Sunday, December 29, 2019

आंखों देखी।



अखबारों  का बासीपन।
टीवी   देख  उदासीपन।।

जापनाह की करे प्रशंसा,
आलोचक का दासी मन।

हुल्लड़बाजी, दंगा करते,
मूरख यहाँ  हुलासी बन।

मगहर में भी मिलता मोक्ष,
सुनकर आए, काशी जन।

लाइन लगी बैंक के बाहर,
होती  देख  निकासी धन।

©शिशु #नज़र_नज़र_का_फ़ेर

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हुलासी: अत्यधिक उत्साहित

Saturday, December 28, 2019

अबकी साल बड्डक्के भइया के देखो सिरमौर है!


अगले साल की अगले साल देखी जाएगी,
अबकी साल बड्डक्के भइया के देखो सिरमौर है!

सिंहासन पर रीतिकाल है,
भक्ति  भाव चहुँओर हैं।
करुणा रस के कवियों का
लेकिन बचा  न  ठौर है।
गीत, लेख, आलोचनाओं का
नहीं  पुराना  दौर  है।
पत्रकार' की 'पत्रकारिता' में-
भी  तो  लय  और  है...
कारण...?
अबकी साल बड्डक्के भइया के देखो सिरमौर है।

अगले साल की अगले साल देखी जाएगी,
अबकी साल बड्डक्के भइया के देखो सिरमौर है!

जापनाह  का  वादा  झूठा,
प्रजातंत्र   से   नाता  टूटा।
पत्ता   पत्ता   बूटा   बूटा,
संविधान को सबने  लूटा।
महंगाई   से   नाता   टूटा।
बाँध दिया सबके ही खूँटा,
कलुआ रूठा, ललुआ रूठा,
जबसे   छीना   कौर   है...
कारण...?
अबकी साल बड्डक्के भइया के देखो सिरमौर है।

अगले साल की अगले साल देखी जाएगी,
अबकी साल बड्डक्के भइया के देखो सिरमौर है!

Saturday, November 2, 2019

लल्ला बनिया की दुकान।



लल्ला बनिया की दुकान हमारे समय का मॉल थी। दुकान क्या थी, इंच भर भी कहीं कोई जगह खाली न थी। हमेशा खचाखच भरी रहने वाली दुकान को देखकर आश्चर्य होता था कि, दुकानदार को इतना सब कैसे मालूम है कि, कौन सी जगह पर कौन सा सामन रखा है। जड़ी, बूटियाँ, लोन, तेल, हद्दी, खड़े पिसे मसाले, गर्री, छोहारे, मुनक्का, बताशा, हींग, साबुन-सोडा सब कुछ। कभी कभी कोई पूछ लेता चाचा सूजी है, वो कहते है, तब सूजी का मतलब सूजी ही था। इसके अलावा, चुटीला, सीसा कंघा के अलावा खाने पीने की सभी वस्तुवें, पिसान (आटा), चावल, दाल, से लेकर घर के उपयोग की सभी वस्तुएँ मिल जाती थीं उस छोटी सी दुकान में।

प्राइमरी स्कूल के दिनों में रमेश चंद्र पाठक चाचा की दुकान से पहले सभी स्टेशनरी, खड़िया, चॉक, दावात, पेंसिल, पेन, जामेट्री बॉक्स और वो कोरस की कॉपी, चौपतिया (अक्षर ज्ञान, मात्राएँ, गिनती और पहाड़े आदि की कुंजी) तथा इतिहास भूगोल की क़िताब आदि सब हम वहीं से तो खरीदते थे।  

क्या भीड़ रहती थी, छोटे बच्चे कम्पट खरीद रहे होते, किसान बीड़ी और तंबाकू, स्कूल जाने वाले बच्चे कॉपी किताब और घर गृहस्थी का सामान खरीदने वाले लोन तेल। अच्छा एक बात और दुकानदार सभी को एक नज़र से देखते, सबको संतुष्ट करते। कभी गुस्सा होते नहीं देखा। हम तो अनाज लेकर जाते थे, तब पैसे होते नहीं थे, अनाज तौलकर पूरा हिसाब करना आसान काम नहीं था, सभी हिसाब चुटकियों में कर देते, सामान के पैसे काटकर बाकी वापस कर देते थे। कई बार अम्मा बोलतीं जाओ ये सामान वापस करके दूसरा सामान ले आओ तब बहुत गुस्सा आता, आधे रास्ते से वापस आकर कह देता दुकानदार वापस नहीं कर रहा है, लेकिन अब लगता है वे जरूर बदल देते।

किराने की दुकान के बाजू में ही एक कपड़े की भी दुकान थी, जहाँ सुख और दुःख के सभी वस्त्र मिलते थे। इस दुकान में जहाँ छोटे बच्चों के कपड़े फ्रॉक, झबुला, सूट, महिलाओं के लिए साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट, पुरुषों के लिए नेकर, बनियान तथा कुर्ता पायजामा का कपड़ा और छात्रों के लिए स्कूली ड्रेस के लिए सफेद शर्ट और खाकी पैंट का कपड़ा भी वहीं मिलता था, वहीं दूसरी तरफ़, कफ़न और क्रियाकर्म आदि सब समान भी वहीं तो मिलता था। कोई मुंडन, जनेऊ संस्कार के लिए कपड़े खरीदता और तभी जिसके घर ग़मी (मौत) हो जाती वह कफ़न खरीदने आ जाता। जिस तरह के ग्राहक होते थे उसी तरह का हावभाव चेहरे पर लाकर सामान देना वाकई काफी तजुर्बे का काम था।

ये सब यादें और लोग ही मेरे लिये गाँव की धरोहर हैं।

दीपोत्सव की सेल

इस दीपोत्सव के अवसर पर-
यदि कहीं प्यार की सेल दिखे,
कुछ ऐसा मेला, मेल दिखे-
आशीष में भारी छूट दिखे,
सम्मान भी अगर अटूट दिखे,
आकर एक बार बता देना-
उस सेल में जाना चाहूँगा,
वो छूट उठाना चाहूँगा!!!

Wednesday, October 30, 2019

चालू और खसम्मार

चालू और खसम्मार।

अच्छा! जैसे कुछ लोग चोर होते हैं और कुछ लोग उचक्के, वैसे ही कुछ होशियार और कुछ चालाक होते हैं। इन चालाकों को हमारी मातृभाषा में चालू और अइया भी कहा जाता है। खड़ी बोली में चालू को धूर्त कहते हैं, उदाहरण के लिए लोमड़ी। और हाँ इसी तरह के कुछ और भी लोग होते हैं जिन्हें खसम्मार कहा जाता है, ये वे हैं, जो अपना काम दूसरों से करवा लेंगें लेकिन दूसरे व्यक्ति के काम के वक़्त तीन पाँच समझाएंगे या मुकर जाएंगें वो भी गँगा क़सम खाकर।

वैसे मैं गणित का छात्र नहीं रहा, लेकिन, सिद्ध करना मुझे बहुत पसंद है, इसलिए ऐसे चालू और खसम्मारों को इस कहानी द्वारा सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। जैसा कि, सर्वविदित है, हर गाँव में हर तरह के लोग होते हैं तो उसी तरह इस गाँव में भी कुछ चालू हैं, थे और रहेंगें लेकिन खसम्मार थे और हैं। रहेंगें को बाद में सिद्ध करेंगें, हो सकता है बाद में वे सुधर जाएँ। 

आसरे के पड़ोसी औतार अपने गाँव की स्टेशन से घर जाने के बदले सबसे पहले साइकिल मिस्त्री की दुकान पर गए। मिस्त्री का नाम एक बार को चंदन मिस्त्री मान लेते हैं। ये महाशय नई से नई साइकिल में कमी बताकर मिनटों में छर्रा और कटोरी बदल देते थे। ग्रीस लगाने के बदले वे चैन बदलने में भरोसा करते थे और साइकिल का धुरा बदलना उनके बाएं हाथ का काम था। औतार मेरठ से एक पुरानी साइकिल बोरे में भरकर या कहें कि पैक करके ले आये थे, इसलिए उसे कसवाने (फिर से बांधने के लिए) चंदन की दुकान पर ले गए। क़रीब दो घंटे की कड़ी मशक्क़त के बाद चंदन मिस्त्री ने जैसे ही साइकिल तैयार की औतार की खुशी का ठिकाना न रहा। 

फिर साइकिल पर बैठकर ही वे घर गए। कैरियर से थैला उतारकर अपनी माँ को दिया और लगे कहानी सुनाने कि, कैसे उन्होंने मुश्किलों से साइकिल ट्रेन में चढ़ाई, वहाँ कुली को पैसे देने के बाद कैसे रेलवे पुलिस को रिश्वत दी, फिर अपने जंक्शन स्टेशन में चाय और समोसे बेचने वाले को पैसे देकर नौचंदी ट्रेन से नीचे रखवाई, और बाद में उसी बदमाश ने वहाँ की रेलवे पुलिस को बता दिया, तब फिर उन्हें रेलवे पुलिस को भी पैसे खिलाने पड़े। और आखिर में अपनी स्टेशन से छनक्कू चाचा की बैलगाड़ी पर रखकर चंदन मिस्त्री की दुकान तक ले गए और तब जाकर वह फिर से साइकिल के रूप में अवतरित हुई है।" उनके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव को पढ़ा जा सकता था। चाय पीते पीते वे साइकिल को निहारते और मन ही मन मुस्कराते हुए पारले जी बिस्किट के साथ सियाराम की दुकान से लाई हुई नमकीन को चबाते हुए पड़ोसियों से बात करने में मशगूल हो गए।

माँ ने कहा 'थोड़ा आराम कर ले।' वे बोले 'थका कोई हूँ।' चाय पीने के बाद साइकिल स्टैंड से उतारकर, हगने के लिए गाँव के निकट वाले बम्बा पर तक ले गए। वहाँ से आने के बाद गाँव के सार्वजनिक कुंवें जिसे वहाँ के परधान अपनी बपौती बताते थे, पर ख़ूब मलमल कर स्नान किया। साबुन वे मेरठ से ही लेकर आए थे इसलिए दो तीन बार शरीर पर रगड़ा। रोएं रोएं खोल दिए, खूब झाग निकाला। जब तक वे बाल्टी भरकर घर पर पहुँचें, तब तक माँ ने उनकी पसंद का खाना, घी चुपड़ी रोटी और रसीले आलू की सब्जी उन्हें परोस दी। भूखे होने के बावजूद उनका मन खाने में लगता बार बार साइकिल को निहारते और खाना खाने के बाद अचानक बैग से चाय, एक टॉर्च, एक छोटी डाइनुमों से चार्ज होने वाली बैटरी, कुछ कैसेट्स, बिस्कुट के पैकेट, रिंच, पाना, पेंचकस (औज़ार) आदि निकाल निकाल कर माँ को देने लगे। माँ सोच में थी बेटा कमाकर आया है कुछ पैसे देगा लेकिन सबसे बाद में उन्होनें माँ को एक कैंची और 500 सौ रुपये पकड़ाते हुए कहा ये तुम्हारे लिए है। माँ तो माँ थी वो क्या बच्चे से हिसाब माँगती। फिर अचानक बैग से नए कपड़े पहनकर रिश्तेदारी जाने के लिए तैयार होने लगे।

माँ ने समझाया 'अभी दोपहर में कहाँ जा रहा है'। भद्दर दुपहरी है रुक जा, शाम को जाना, जहाँ भी जाना हो'। लेकिन वे भला मानने वाले थे!!! बोले 'तुम्हें दोपहर दिख रही है शाम होने वाली है। हालांकि थी दोपहर ही। 

वैसे भी वे माँ की बात कहाँ मानते थे, इसलिए साइकिल पर पिछले साल मेरठ से लाया हुआ स्टीरियो बांधा, और छोटी बैटरी जिसे इस बार मेरठ से लेकर आए थे, को बांधने लगे, छोटे बच्चे कौतूहलवश देखने के लिए जमा हो गए। माँ ने बच्चों को फटकार लगाते हुए कहा 'भागो सब, क्या यहाँ बौरे गाँव का ऊँट आया है जो इतना जमावड़ा लगाए हो'। उन्होंने आधार की कैसेट को रिवाइंड करके जैसे ही स्टीरियो में लागाई पहले तो रेडियो खरखराया, फिर कैसेट को निकालकर पटका और तब गाना बज उठा 'जिन घर कुल्टा हईं मेहरिया वहु घरु कइसे सुधरी'। 

करीब 15 दिनों बाद वे वापस आए। किसी को बताया नहीं, लेकिन उनकी माँ की मानें तो पहले वे सबसे पहले अपनी ससुराल गए, उसके बाद साले की ससुराल, फिर साली के घर, फिर मौसी के घर, फिर सबसे छोटी बुआ के घर और अंत में अपने बड़े भाई की ससुराल होते हुए मामा के घर नातेदारी खाकर वापस आए हैं। इस बीच माँ बहुत परेशान रहीं। और जैसे ही घर वापस आए माँ से कहा कि कल मैं मेरठ वापस जा रहा हूँ। कहानी की शुरुआत अब होती है।

इधर उधर जाने के कारण उनके पास रखे सभी पैसे खर्च हो गए और वापसी के लिए टिकट के पैसे न थे। माँ से माँगना उन्हें गँवारा न था इसलिए उन्होंने साइकिल बेंचने का मन बनाया, सो उन्होंने अपने पड़ोसी आसरे से कहा चच्चा साइकिल खरीदना तो बताना। ख़ूब भनाभन चलती है। पड़ोसी की नीयत तो पहले दिन से ही ख़राब थी। अब मन मांगी मुराद मिल गई। उनके पास पैसे न थे फिर भी मन मसोजकर कहा भैया तीन सौ रुपये रखे हैं बेंचना हो तो बताना। बड़ी देर सोच समझकर औतार ने हाँ कर दी। 

लेकिन आसरे के घर पैसे न थे। बड़ी देर सोच विचारकर वे अपने हितैषी दोस्त चैतू के घर उससे रूपये उधार लेने गए। दोस्त ने कहा पैसे तो हैं लेकिन तुम्हें पैसे की जरूरत क्यों पड़ी पहले ये बताओ? उन्होंने साइकिल लेने का पूरा प्लान समझा दिया। तब अचानक उनके दोस्त ने कुछ सोचते हुए कहा ठीक है यार शाम को ले जाना।

चैतू ने अपनी पत्नी को बताया कि उनका दोस्त पैसे माँग रहा है उसे साइकिल खरीदनी है। पत्नी ने कहा तुम्हारी मति मारी गई है क्या कितने सालों से मैं सोच रही थी कि हामरे घर भी साइकिल हो, कब तक जेठ जी से माँगते फिरोगे। बड़ा मुँह बनाते हैं। वे तुरंत ही औतार के घर गए और औतार की माँ से कहा भौजी सुना है आप साइकिल बेंच रही हैं। लेकिन इतनी सस्ती साइकिल क्यों बेंच रहे हैं। ये तो काफी महंगी लगती है। औतार ने कहा चच्चा कोई ग्राहक हो बताना। चैतू ने तुरंत बिना देरी लगाए कहा खरीदना तो मैं भी चाहता हूँ। पैसे भी हैं और अनजान बनते हुए कुर्ते में हाथ डालकर पैसे निकालते हुए कहा भतीजे ये हैं अगर इतने में सौदा पट रहा हो ठीक है नही तो कोई बात नहीं। उसमें कुल 520 रुपए थे, औतार को तो साइकिल बेंचनी ही थी। 

चैतू आनन फानन में साइकिल लेकर घर गए, उसे उल्टा गद्दी के सहारे टिकाया और खूब रगड़ रगड़ कर धोया। पहिए, रिम, सब चमकाए। फिर चंदन मिस्त्री की दुकान पर उसे ले गए। वे तो उसी इंतजार में रहते थे, कब कोई आ जाए और उसे काटने का मौका मिल जाए। सो सबसे पहले उन्होनें छर्रा कटोरी बदली, पैडल में कवर बदला। नई घंटी लगा दी। हैंडिल की चिक ठीक की और अंत में पहियों के बीच और रंगीन फूल बांधें तथा 15 दिन पहले वाले मुठ्ठे निकालकर नए रंगीन लगा दिए। साइकिल झमाझम लग रही थी। ऑयल और हवा के पैसे वे नहीं लेते थे। ऐसा उन्होनें दुकान के सामने लिख रखा था। इसलिए हिसाब में लिखकर उसे काट दिया। चमकती हुई साइकिल से चैतू ने चौराहे के चार चक्कर लगाए। लोगों को बताया कि ये साइकिल खरीदी है और चंदन मिस्त्री से सब पुराना सामान बदलवा दिया कुल 300 रुपए का खर्च आया है। घर में हर्षोउल्लास था।

शाम को जब आसरे आए तो चैतू के घर साइकिल खड़ी देखकर कहा अच्छा हुआ भैया जो आप साइकिल ले आए, लाओ पैसे मुझे दे दो उन्हें देकर आ जाता हूँ। चैतू ने कहा भैया साइकिल तो हमने खरीद ली। औतार की माँ आकर मुझसे कहने लगीं कि आप खरीदोगे नहीं इसलिए मैंने सोचा मैं ही खरीद लेता हूँ। आसरे को बहुत बुरा लगा। वे चुपचाप अपने घर चले गए। थोड़ी देर में औतार की माँ चैतू के घर आईं और कहा अब हमें साइकिल नहीं बेंचना। क्योंकि आसरे ने उनसे कहा वे साइकिल 600 में खरीदने को तैयार हैं। फिर क्या था ख़ूब झगड़ा हुआ। चैतू ने तो कह दिया ठीक है साइकिल आप ले जाओ लेकिन 1000 दे जाओ क्योंकि इसे बनवाने में मुझे 500 रुपए का खर्चा आया है। भगवान क़सम ख़ूब जमकर झगड़ा हुआ। मौज लेने वालों ने खूब मौज ली। वह दिन था और आज का दिन है चैतू और आसरे में बोलचाल न हुई है और न होगी। 

डिस्क्लेमर: इस कहानी के पात्र और घटनाएँ पूर्ण रूप से काल्पनिक हैं। 

Sunday, October 27, 2019

मिट्टी के कुछ दीपक ले लो दीवाली है बाबूजी

मेहनत तो करता हूँ फिर भी घर खाली है बाबूजी
मिट्टी  के  कुछ  दीपक  ले  लो दीवाली है बाबूजी

अब  तो  नाम ग़रीबी का भी लेने में डर लगता है
सरकारी  दस्तावेज़ों   में   खुशहाली   है  बाबूजी

लाखों  दीप  जलेंगे  ऐसा सुनने में जब से आया
अवधपुरी जाने की ज़िद पर घरवाली है बाबूजी

मिट्टी बेच रहा हूँ जिसमें कोई जाल फरेब  नहीं
सोना चांदी दूध  मिठाई सब जाली  है  बाबूजी

झटका एक लगे तो सबकुछ टूटे विखरे पलभर में
सबका जीवन चीनी मिट्टी की प्याली है बाबूजी

- ज्ञानप्रकाश आकुल

Thursday, October 24, 2019

बेहया।


प्रतिदिन अपमान का घूँट पीता हूँ,
हानि सहता हूँ,
लोग गाली गुफ्तारी देते हैं,
चिढ़ाते हैं, मुँह बनाते हैं,
ईर्ष्या करते हैं और न जाने क्या क्या!
फिर भी मैं उन सभी की खुशहाली
की कामना करता हूँ।
क्योंकि हरा भरा हूँ और...
मुँह से फूल झड़ते हैं मेरे।
शायद इसीलिए ही बेहया कहते हैं लोग मुझे।

झटुआ

भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। 'चल झटुआ' उनका तकिया कलाम था। बीच राह में बैलगाड़ी खड़ी कर देना, बैलों को बांधते समय उनकी रस्सी ढीली छोड़ देना ताकि राह निकलते व्यक्ति को वे झटक जरूर दें। हमेशा मरकहा (मारने वाले) बैल पालते थे, जो उनके अलावा किसी को भी देखकर  सींग हिला देते थे। अन्य दुधारू जानवरों को बाँधते समय ध्यान रखते कि वे बैठते समय आधी सड़क घेर लें और मूत्र विसर्जन सीधे नाली में छोड़ें तथा सड़क पर ही हगें। अपने मुहल्ले के हर बच्चे का उपनाम उनका दिया हुआ था; किसी को मरहना कहते, किसी को घुनघुनिया, किसी को हगोड़ा-पदोड़ा, झुंझुनिया और किसी किसी बच्चे को वे उसके बाप या दादा के नाम से बुलाते जैसे, 'और बुद्धा क्या हाल है'। हर बच्चे की मौसी का हाल चाल पूछते, और बिजइया तोरी मौसी का क्या हाल चाल?, छोटे बच्चे को क्या पता कह देता 'ठीक हैं।' फिर कहते 'अबकी आईं नहीं,' और कहकर खिलखिला कर दाँत निपोर देते। 
 
खेत की जुताई करते समय बैलों की ऐसी तैसी कर देते, ख़ूब चिल्लाते, हरैया, हरैया, क तोरी पलवैया की, मानिहै नाइ, झटुआ...और फिर जब ख़ुद थक कर चूर हो जाते तब बैलों की रस्सी इतनी ढीली छोड़ देते ताकि वे तबतक दूसरे के खेत में एक दो मुहँ मार लें।

खाली समय रस्सी ऐंठते, गूँथ बाँधते, खूँटा गाड़ते, जेतुआ बनाते या लहड़ुआ की रस्सी कसते और नहीं तो चारपाई की अदवायन ही कसने लग जाते। और यदि और ज़्यादा ही समय हुआ तो छप्पर को थोड़ा ऊपर करवाने के लिए लोगों को जमा करते। दोपहर में देखते जब लोग ताश खेल रहे होते तब जानबूझकर वहाँ पहुँच जाते, कुछ लोग कट लेते। बाकियों से कहते चल रे थोड़ा छप्पर ऊपर उठवाना है। लोग मन मसोजकर जाते। और ऊपर उठाने की बजाए नीचे खींचते, तब चिल्लाकर कहते झटुआ।

खेतों से कभी खाली हाथ न आते, और कुछ नहीं तो, एक थोमारिया (छप्पर टिकाने की लकड़ी) ही कंधे पर उठाकर आ गए। सड़क पर कोई रस्सी या कपड़ा पड़ा है उसे उठाकर छप्पर में खोंस दिया। यदि किसी ने पूछ दिया इसका क्या करोगे, कहते चल झटुआ। 

गांव में कोई भी मर जाता उसकी मैजल (शवदाह संस्कार) में ज़रूर जाते। लोग कहते इनका एक थैला मैजल के लिए हमेशा तैयार रहता है। उसमें एक लोटा, एक धोती, आधी बांह का कुर्ता जिसमें पेट चिरी जेब होती पड़ा रहता। उनके पास स्टील की एक गोल गोल तम्बाकू रखने की डिब्बी थी। कभी कभी तो उसे भी चमकाते। साफ करते, धूप में उसे सुखाते और कपड़े से छानकर उसमें चूना भरते। एक दम ताजा चूना। चोट के निशान हर जगह शरीर पर दिखाई देते। इस कारण उनके हाथ या पैर में भी चूना लगा होता। उनके बंगले (जहाँ जानवरों को रखा जाता है) में लभेरे का पेड़ लगा था। बच्चे डमरू बनाने के लिए वहां से लभेरे के फल तोड़ लाते, यदि देख लेते अच्छी खबर लेते, पता होने के बावजूद कहते इसका क्या करेगा, झटिहा।

सड़क किनारे अपने छप्पर के नीचे बैठे रहते और राह चलती किसी किसी औरत को वे जब तक निहारते जब तक वह नज़र आती। किसी महिला ने कह दिया क्या दीदे फाड़कर देख रहे हो, तब वे कहते तुम्हें कैसे पता कि मैं तुम्हें देख रहा हूँ। एक बार किसी अनजान औरत ने कह दिया ऐसे क्या देख रहे हो, तपाक से बोले, अच्छी बहुत हो आजतक अच्छी औरत देखी नहीं है इसलिए सोचा तुम्हें ही देख लूँ। जब कोई नई नई शादी करके रास्ते से निकलता उससे जानबूझकर राम राम कहते। और यदि जवाब न मिलता तो अपने आप ही कह देते ' लिवा लाए, अच्छा किया!' फिर अचानक मुस्की छोड़ते। 

ये सब मेरी दिमाग़ की खुराफ़ात है, न जाने कितने ही ऐसे पात्र हैं जो मुझे घेरे रहते हैं और लिखने पर मजबूर कर देते हैं, ख़ासकर जब खाली होता हूँ, तब ऐसी ही यादों की उथल पुथल मच जाती है। सोचता हूँ, मेरे बारे में भी किसी न किसी को ऐसे ही विचार आते होंगे। यदि कोई मेरे बारे में लिखना चाहे मुझसे लिखवा लेना भगवान कसम निराश नहीं करूंगा...😊

डिस्क्लेमर: इस कहानी का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई सबंध नहीं है।

Saturday, October 5, 2019

संस्मरण-5

भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। 'चल झटुआ' उनका तकिया कलाम था। बीच राह में बैलगाड़ी खड़ी कर देना, बैलों को बांधते समय उनकी रस्सी ढीली छोड़ देना ताकि राह निकलते व्यक्ति को वे झटक जरूर दें। हमेशा मरकहा (मारने वाले) बैल पालते थे, जो उनके अलावा किसी को भीदेखकर  सींग हिला देते थे। अपने मुहल्ले के हर बच्चे का उपनाम उनका दिया हुआ था; किसी को मरहना कहते, किसी को घुनघुनिया, किसी को हगोड़ा-पदोड़ा, झुंझुनिया, टूटा और किसी किसी बच्चे को वे उसके बाप या दादा के नाम से बुलाते जैसे, 'और बुद्धा क्या हाल है'। हर बच्चे की मौसी का हाल चाल पूछते, और बिजइया तोरी मौसी का क्या हाल चाल?, छोटे बच्चे को क्या पता कह देता 'ठीक हैं।' फिर कहते 'अबकी आईं नहीं,' और कहकर खिलखिला कर दाँत निपोर देते।

खेत की जुताई करते समय बैलों की ऐसी तैसी कर देते, ख़ूब चिल्लाते, हरैया, हरैया, क तोरी पलवैया की, मानिहै नाइ, झटुआ और फिर जब ख़ुद थक कर चूर हो जाते तब बैलों की रस्सी इतनी ढीली छोड़ देते ताकि वे तबतक दूसरे के खेत में एक दो मुहँ मार लें।

खाली समय रस्सी ऐंठते, गूँथ बाँधते, खूँटा गाड़ते, जेतुआ बनाते या लहड़ुआ की रस्सी कसते और नहीं तो चारपाई की अदवायन ही कसने लग जाते। और यदि और ज़्यादा ही समय हुआ तो छप्पर को थोड़ा ऊपर करवाने के लिए लोगों को जमा करते। दोपहर में देखते जब लोग ताश खेल रहे होते तब जानबूझकर वहाँ पहुँच जाते, कुछ लोग कट लेते। बाकियों से कहते चल रे थोड़ा छप्पर ऊपर उठवाना है। लोग मन मसोजकर जाते। और ऊपर उठाने की बजाए नीचे खींचते। तब चिल्लाकर कहते झटुआ, ऊपर करना है, कुछ लोग मजाक में कहते अरे हमें तो लगा आप उतार रहे हो।

खेतों से कभी खाली हाथ न आते। कुछ नहीं तो एक थोमारिया (छप्पर टिकाने की लकड़ी) ही कंधे पर उठाकर आ गए। सड़क पर कोई रस्सी या कपड़ा पड़ा है उसे उठाकर छप्पर में खोंस दिया। यदि किसी ने पूछ दिया इसका क्या करोगे, कहते चल झटुआ तुझे कुछ पता नहीं।

गांव में कोई भी मर जाता उसकी मैजल (शवदाह संस्कार) में ज़रूर जाते। लोग कहते इनका एक थैला मैजल के लिए हमेशा तैयार रहता है। उसमें एक लोटा, एक धोती, आधी बांह का कुर्ता जिसमें पेट चिरी जेब होती पड़ा रहता। उनके पास स्टील की एक गोल गोल तम्बाकू रखने की डिब्बी थी। कभी कभी तो उसे भी चमकाते। साफ करते, धूप में उसे सुखाते और कपड़े से छानकर उसमें चूना भरते। एक दम ताजा चूना। चोट के निशान हर जगह शरीर पर दिखाई देते। इस कारण उनके हाथ या पैर में भी चूना लगा होता। उनके बंगले (जहाँ जानवरों को रखा जाता है) में लभेरे का पेड़ लगा था। बच्चे डमरू बनाने के लिए वहां से लभेरे के फल तोड़ लाते, यदि देख लेते अच्छी खबर लेते, पता होने के बावजूद कहते 'झटुआ क्या करेगा इसका'।

औरतों में ख़ास दिलचस्पी रखते। हमेशा सड़क किनारे अपने छप्पर के नीचे बैठे रहते। राह चलती किसी औरत को वे जब तक निहारते जब तक वह नज़र न नीची कर लेती। किसी महिला ने कह दिया क्या दीदे फाड़कर देख रहे हो, तब वे कहते तुम्हें किसे पता कि मैं तुम्हें देख रहा हूँ। एक बार किसी अनजान औरत ने कह दिया क्या देख रहे हो, तपाक से बोले, अच्छी बहुत हो आजतक अच्छी औरत देखी नहीं है इसलिए सोचा तुम्हें ही देख लूँ।  कई बार वे तब तक देखते रहते जब तक कोई आँखों से ओझल न हो जाए। कोई नई नई शादी करके रास्ते से निकलता उससे जानबूझकर राम राम कहते। और यदि जवाब न मिलता अपने आप ही कह देते ' लिवा लाए, अच्छा किया!' फिर अचानक मुस्की छोड़ते।

ऐसे ही न जाने कितने लोग मेरी यादों में घर बनाकर बैठे हैं भगवान क़सम अब हँसी आती है लेकिन उनके जैसा दूसरा कोई और था ही नहीं। पता नहीं जब खाली होता हूँ ऐसी ही यादों की उथल पुथल मच जाती है। सोचता हूँ, मेरे बारे में भी किसी न किसी को ऐसे ही विचार आते होंगे। यदि कोई मेरे बारे में लिखना चाहे मुझसे लिखवा लेना भगवान कसम निराश नहीं करूंगा...😊

Thursday, October 3, 2019

अनुत्तरित?


तब
तुमको   लोटा  डोर  याद  है?
नृत्य  कर  रहा  मोर  याद  है?
झींगुर का वो शोर  याद  है?
याद तुम्हें आ  जाएं  प्यारे,
लौट जाइए, गाँव तुम्हारे।

जंगल  की  वे  भूल  भुलैया,
ताल  तलैया, नार  गुजरिया,
मटरू  चाचा,  गंगा  भइया,
बाट  जोहते,  खड़े  पुकारें,
लौट आइए, गाँव दुलारे।

अब
भावुकता अब  गाँव  नहीं है,
पक्की छत है, छाँव  नहीं है,
रिश्तों  में  ठहराव  नहीं  है,
अपने  अपनों  से  हैं  हारे,
क्यूँ लौटें हम गाँव हमारे?

पहले  सा  व्यवहार  नहीं  है,
खुशियों का त्यौहार नहीं है,
अपनापन भी,प्यार नहीं है,
और न  दिखते हैं चौबारे,
तब क्यूँ लौटूँ अपने द्वारे?

गोबरधन का प्यार!

...तो, यह बात क़रीब क़रीब तब की है जब गाँव में कमल खिलते थे, नवाबों के यहाँ बचे खुचे हाथी थे, किसान बैलगाड़ी से, मजदूर पैदल और साधारण-नौकरीपेशा लोग साइकिल की सवारी करते थे, तथा सड़क के नाम पर चकरोट थे, जंगल से होते हुए पगडंडियां भूल भुलैया जैसी खेतों की तरफ जाती थीं, खेत की मेढ़ पर साइकिल चला सकते थे और घरों में दूध दही के अलावा चाय की जगह सिखन्ना पिया जाता था।

असल में बात यह है, यह बात करीब तीस चालीस साल पहले की है। किसी गाँव में साप्ताहिक हाट लगती थी, वहाँ विभिन्न गांवों के लोग ख़रीदारी के अतिरिक्त शादी विवाह तय करते थे। रिश्तों की पारस्परिक खबरें, जैसे मुंडन, चिदना, फलदान आदि खबरें भी एक दूसरे गाँव वालों को दे देते थे। ग़रीब-मजदूर दो बोतल लेकर हाट जाते-एक में जलाने के लिए मिट्टी का तेल और दूसरे में खाने का सरसों का तेल। मास मछली के शौकीन कलिया खरीदते और किसान बीज और सब्जी बेचते थे। बाज़ार में सीसा, कंघा, चुटीला, क्रीम, पाउडर की दुकानें भी लगती थीं जहाँ नई नवेली बहुवें, विवाहित लड़कियाँ और महिलाएँ सौंदर्य प्रसाधन खरीदने आती थीं।

इसी हाट में पहली बार गोबरधन ने तारा को देखा था। तारा ताराचंद की सबसे छोटी लड़की थी और गोबरधन अहिबरन का बड़ा लड़का। दोनों ही अलग अलग गाँव से थे। गोबरधन मेला हाट में सौंदर्य प्रसाधनों की दुकानदारी करता था, गले में गोल गोल करके रूमाल बांधता था, हाथ में नंबर वाली घड़ी और काली शर्ट के साथ सफ़ेद पैंट पहनता था। बिल्कुल छलिया लगता। गाँव की भौजाइयों का दुलारा था, हंसी हंसी में औरतें उससे कहतीं 'का रे गोबरधन आज कहाँ बिजली गिरायेगा।', वह खिलखिलाकर साइकिल की घंटी बजाकर कहता 'हटिए भौजी, बिजली का पता नहीं लेकिन साइकिल आज जरूर तुम्हारे ऊपर गिर जाएगी।' ख़ूब हंसी मजाक करता लेकिन मजाल जो उसने कभी किसी बहू बेटी पर ग़लत नज़र डाली हो।

गोबरधन आठवीं पास था। गाँव में स्कूल न था इसलिए बच्चे पास के गाँव में स्कूल जाते थे जहाँ आठवीं तक ही पढ़ाई होती थी। वह पड़ोसी गाँव के सन्तू कुम्हार के साथ पहली बार कानपुर से सामान लाया था। उसके पहले वह कुछ दिन पंजाब रहकर आया था जहाँ परचून की दुकान पर काम किया था, कहते हैं मालिक उसे आने ही नहीं दे रहा था क्योंकि उसके काम करने के बाद दुकानदारी में बहुत ही बढ़ोत्तरी हो गई थी। मालिक ने तो उसकी तनख़्वाह भी बढ़ा दी थी, लेकिन वह किसी बहाने से गाँव भाग आया था। अब गाँव आए उसे दो साल से ज़्यादा हो गया था। गाँव ही उसके लिए शहर था।

तारा को देखकर ऐसा लगता जैसे वह आसमान का तारा हो, बड़ी बड़ी आँखें, लंबा कद, गोरा रंग और भरपूर यौवन। बचपन में अपने मामा के घर पली बढ़ी थी अभी हाल ही में गाँव आई थी, उसकी शादी को कुछ ही महीने बाकी थे। और पुरानी कहावत के अनुसार, डोली माँ बाप के घर से निकलनी चाहिए और अर्थी पति के घर से, इसलिए शादी का इंतजाम गाँव में किया जा रहा था।

हाट के अगले दिन गोबरधन फेरी को निकला गाँव गाँव भटका, उसे तारा की तलाश थी, दुकानदारी में मन न लगा। अधिकतर गांवों की महिलाओं को वह भौजी कहता और महिलाएं उसे अपना देवर समझती थीं। मज़ाक करतीं, और समान खरीदतीं, कोई मोलभाव नहीं, सामान में इतना मुनाफ़ा कमाता जैसे दाल में नमक। उधार भी कर लेता। हाट के दिन जब तारा उसकी दुकान पर आई थी तभी से सम्मोहित था वह। वैसे वह स्वयं भी कम सम्मोहक न था। हालांकि उसके रिश्तेदारी और आसपास की जवान लड़कियाँ उस पर जान छिड़कती थीं लेकिन उसने कभी भी उन पर गौर न किया। तारा में न जाने क्या उसे दिखाई दिया, हाट के दिन से ही उसी की सूरत उसे दिखाई दे रही थी। जब तारे निकल आए तब घर वापस आया लेकिन उसे तारा न मिली। गाँव का नाम उससे पूछने की हिम्मत न हुई थी उस दिन। पूछता भी भला कैसे? हाट में आसपास के गांवों के लोग ही आते थे और जिस दिन हाट न होती उस दिन वह उन गांवों में फेरी करता था।

गोबरधन दिनों दिन उदास रहने लगा, दुकानदारी में मन न लगता। औरतें उसका इंतजार करतीं, जब कभी किसी गांव जाता खूब उलाहना देतीं। चुपचाप सुन लेता। घर में सब कहते सूख कर काँटा हुआ जा रहा है न जाने क्या रोग लगा है कोई कहता टीबी है कोई कहता कालाजार है जितने मुँह उतनी बातें। लोग झाड़फूंक की सलाह देते। लेकिन प्यार के रोग की दवाई है क्या भला?

कई महीने बीतने के बाद एक दिन एक गाँव में फेरी के समय उसने तारा को कुंवें से पानी भरते हुए देखा। उसके चेहरे पर पहले जैसी रौनक न थी, चेहरा मुरझाया सा, उतरी हुई सूरत देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह तारा न होकर उसकी बड़ी बहन हो। साइकिल खड़ी करके समान बेचने लगा, औरतों का जमावड़ा लग गया कोई कुछ खरीदता कोई कुछ। बड़ी हिम्मत करके उसने पूछा यह कौन है? किसी औरत ने कहा बेचारी, भाग्य ही फूटे हैं इसके। दूल्हा बारात लेकर आ रहा था कि गाँव के करीब साँप ने काट लिया? न फेरे हुए न शादी, लेकिन सब इसे दोष देते हैं। बेचारी! शादी की रात को कुंवें में कूद गई थी वो तो अच्छा हुआ किसी ने देख लिया और जान बचा ली। बड़ी चुलबुली लड़की थी, अब देखो कैसा हाल है। कौन जाने शादी होगी भी या कौन इससे करेगा? रिश्तेदार कहते हैं कुंडली में दोष है सो पंडित ने भी कह दिया है बारात आने से पहले ही दूल्हा मर जाएगा। भगवान तरस खाए!

गोबरधन घर आया। जब देखो तब तारा का चेहरा दिखाई देता। वह तारा को ख़ुश देखना चाहता था। वैसे ही जैसे पहली बार हाट में देखा था, उसका चेहरा, उसकी बातें चलचित्र की तरह उसके दिमाग़ में घूमने लगीं। क्या करे कोई उपाय न सूझता। रोज उसी गांव में फेरी के लिए जाता। कभी वह दिखती कभी नहीं। एक दिन हिम्मत करके ताराचंद के दरवाजे पर बैठकर पानी मांगा। तारा की भौजाई पानी लेकर आई। उसने अंजुली लगाकर पानी पिया। बातों बातों में पूछ लिया घर में सब ठीक भौजी। उसने सब दुःख कह सुनाया। गोबरधन ने कहा भौजी बुरा न माने एक बात कहें, तारा को पहली बार हाट में देखा था, बड़ी खुश लग रही थी, मुझे उसका दुख देखा न जाता। तारा की भौजाई ने कहा क्या कहते हो भैया किसी न सुन लिया तो क्या कहेगा। क्या कहेगा मेरे मन में कोई पाप नहीं है, बस वह मुझे अच्छी लगती है, दिन रात आठों पहर वही वह दिखाई देती है। भगवान क़सम झूठ बोलूं मुझे नाग डस ले। तारा दरवाजे के ओट से सब सुन रही थी। डर से कांपने लगी।

गोबरधन घर आया, मन हल्का लग रहा था, शाम को तारा की भौजाई ने उसके भाई को डर की वजह से सब हाल कह सुनाया। उसके क्रोध का ठिकाना न था, वो तो रात थी नहीं तो उसी समय लठैतों को लेकर उसकी हड्डी पसली तोड़ने निकल जाता, अगले दिन सुबह वह 8 से 10 आदमियों के साथ गोबरधन के गाँव में धावा बोलने निकल पड़ा। गाँव पहुँचने से पहले ही रास्ते में गोबरधन को देख लोगों ने पिटाई शुरू कर दी। खूब खरी खोटी सुनाई। लहू से लथपथ गोबरधन बोल रहा था मुझे तारा को खुश देखना है बस और कुछ नहीं। इधर तारा को जब पता चला उसका बुरा हाल था, वह भागी भागी अपनी भौजाई के पास उसकी जान की भीख मांगने लगी। बोली उसे बचा लो उसका क्या दोष है, मैं तो ऐसा कुछ नहीं सोचती।

गोबरधन के गाँव में किसी ने ख़बर पहुंचाई। उसके हिमायती भी कम न थे, वह पासियों का गाँव था, एक से बढ़कर एक लठैत। सब बदला लेने पर उतारू थे। गोबरधन ने इशारे से सबको रोका। अगले दिन पंचायत बैठी, दोनों गांवों के लोग जमा हुए, गोबरधन घायल था, पंचों ने फैसला सुनाया जो गोबरधन चाहेगा वैसा ही होगा। किसी ने कहा गोबरधन ने सभी को माफ किया, पुलिस रिपोर्ट नहीं लिखाई जाएगी।

कुछ दिनों बाद गोबरधन जब कुछ ठीक हुआ, वह सीधे तारा के घर पहुँचा और घरवालों के सामने कहा  कि, "भले ही मुझे आप सब मिलकर मार डालें, या मुझे सांप डस ले, कोई ग़म नहीं। लेकिन मैं तारा को ख़ुश देखना चाहता हूँ"। उस दिन तारा ने गोबरधन को सही से देखा था। वह उसकी निडरता  और निश्छल प्रेम पर मोहित हो गई थी। निडरता में सच्चाई छिपी होती है और सच्चाई जब जबान पर आती है तब दुश्मन भी उसका मुरीद हो जाता है। तारा का बाप ताराचंद अहीरों का अगुआ था। उसके पास चालीस भैंसे थीं, कई एकड़ जमीन थी और कई खेतों को मिलाकर एक बड़ा चारागाह बना रखा था। दरवाजे पर बीस लाठियां हमेशा रखीं रहती थीं। भाले छुरी छप्पर में घुसे रहते थे।

उसे गोबरधन पर तरस आया बोला भूल जा बेटा उसको, क्यों अपनी जिंदगी बर्बाद करने पर तुला है। वह अभागन है जो भी उसको ब्याहने आएगा मर जायेगा। गोबरधन ने कहा कोई परवाह नहीं दादा आप हाँ कह दीजिए। पंचायत में पंचों ने कहा यह शादी यदि होगी तो ताराचंद के घर का हुक्का पानी बंद कर दिया जाएगा। ताराचंद को हुक्का पानी से बढ़कर बेटी की फिक्र थी। लठ्ठ लेकर पंचों को दरवाजे से भगाया। इधर गोबरधन के घरवालों को भी यह फिक्र थी कि कहीं वास्तव में उनके बच्चे की बलि न चढ़ जाए।  जबकि इधर गोबरधन और तारा दोनों में प्रेम का बीज अंकुरित हो गया था। तारा हमेशा उसी के बारे में सोचती रहती। उसके चेहरे पर फिर से हरियाली आ गई थी। गोबरधन गबरू जवान दिखने लगा। ताराचंद ने शादी की तैयारी शुरू कर दी थी। और उधर दोनों परिवार वालों के यहां कुछ लोग साजिशें रचने लगे थे। गोबरधन की माँ नहीं चाहती थी कि वह तारा से शादी करे उसे अशुभ दिखाई देता था और वह सपने में देखती कि उसके बेटे को सांप ने काट लिया है। वह तारा को जहर देने के लिए मन बना चुकी थीं और उधर तारा का भाई वास्तव में गोबरधन को सांप से कटवाने पर योजना बना चुका था, सपेरों को सुपारी दे चुका था और किसी बहाने उसे सांप से कटवाने की सोच रहा था। लेकिन बारात के एक दिन पहले तारा की भाभी ने तारा को बता दिया कि, उसके भाई क्या योजना बना रहे हैं। इधर गोबरधन की छोटी बहन ने माँ की सब करतूत उसे कह सुनाई कि कल शादी से पहले सगुन में भेजी गई मिठाई में जहर मिलाकर वे तारा को मार डालेंगीं।

इधर गोबरधन परेशान था उधर तारा। रात को गोबरधन तारा के गाँव जा पहुँचा और अपनी माँ की योजना कह सुनाई, इधर तारा की भाभी ने अपने पति की योजना का खुलासा कर दिया। फिर क्या सुबह होने से पहले दोनों पंजाब जाने वाली ट्रेन में बैठकर पंजाब रवाना हो गए। वहाँ गोबरधन ने अपने पहले मालिक सरदार जोरावर सिंह को सब हाल कह सुनाया। जोरावर ने उन दोनों की गुरुद्वारे में शादी करवा दी और रहने को घर दिया। आज तारा और गोबरधन का बेटा डॉक्टर है, और बेटी भी डॉक्टरी की पढ़ाई जालंधर से कर रही है। वे दुबारा वापस कभी अपने गांव नहीं आए। तारा का भाई और गोबरधन की माँ कई बार पंजाब जाकर उनसे माफी मांगने गए। हालांकि दोनों ने अपनों को माफ कर दिया है, लेकिन उन्हें आज भी उनकी माफी में वही साजिशें नज़र आती हैं।

Wednesday, October 2, 2019

जागो जागो

याद  आएंगें  जब  भी  बुद्ध,
तब  आयेंगें   याद  अशोक।
हत्या  महिमा  मण्डित होगी,
तब  तब  होगा गाँधी शोक।।

जब हिंसा पर बजीं तालियाँ,
तब  तब  होगा  कत्लेआम।
जब खादी पर लाँछन आया,
तब  समझें जनता नाकाम।।

बदहाली में जब किसान हों,
तब  शासन से  आशा  क्या?
जाकर  पूछो   मजदूरों  से,
होती   घोर   निराशा   क्या?

जरा  सोचिए  गौरतलब  है,
देश का होगा  कब  उद्धार?
जागो, बदलो, भाग्य स्वयं के,
कब तक  खाते  रहोगे  हार!!

Friday, September 27, 2019

पिछली सरकार

धोखे  से  कुछ  बात  बन  गई, तब 'हुजूर' हक़दार।
और  ग़लत  हो  जाने  पर  तब ' पिछली  सरकार'।।
तब  पिछली  सरकार,  कौम  को  समझ  न आता।
प्रश्न   पूछिए   यदि   'वजीर'   से,   वह  धमकाता।।
कहें   'शिशु'  तुग़लकी   फ़रमानों  को  कैसे  रोंके?
'भाग्य विधाता' जब देते हों  ख़ुद ही ख़ुद को धोखे।।

शब्दार्थ
पिछली सरकार- नेहरूजी
भाग्य विधाता: जनता

Sunday, September 22, 2019

भगोले बाबा।


आज से करीब 30 साल पहले की बात है। स्वयं का खेत न होने के कारण पिताजी और हमारे बड़ेदादा (पिताजी के बड़े भाई) बटाई खेत करते थे। दोनों ने 40 साल एक साथ मिलकर बटाई खेत किया। तब हम एक में थे, केवल खाना अलग बनता था। खेत पर खाना अलग अलग घरों से जाता लेकिन खाने के समय दोनों घरों का खाना एक जगह कर दिया जाता था। आजकल की तरह नहीं कि भाइयों की शादी हुई नहीं और अलगाव हो गया।

तब पिताजी और बड़ेदादा दो लोगों के खेत बटाई जोतते थे, एक लम्बे बाबा-दुलारे बाबा का और दूसरा भगोले बाबा के बोर के पीछे वाला खेत। अब याद नहीं है वह भगोले बाबा का खेत था या किसी अन्य व्यक्ति का। बोर के पीछे एक गलगल (बड़े निम्बू) का पेड़ था और दूसरा मौसमी का। बोर के पास में साफ सुथरी जगह थी, छायादार और फलदार पेड़ थे। आम, जामुन, आँवला और महुआ। बोर के पास दो हौद थे एक ढंका रहता था जिसमें पीने का पानी रहता था और दूसरे हौद में अलग पानी, बोर में यदि पानी उतर जाता था तब उसे डालकर चालू किया जाता था। भगोले बाबा दिन भर खेत पर रहते, मौसमी देखकर बड़ा मन ललचाता, गलगल खाने के लिए नहीं बल्कि तोड़ने का मन करता। लेकिन जब भी मैं वहाँ होता वे मौजूद रहते। दिन में कभी नहीं सोते, हमेशा काम करते रहते। कभी सन कातते, कभी रस्सी बनाते। एक आध बार मुझसे भी बान (चारपाई को बुनने वाली रस्सी) पकड़कर ऐंठन लगवाई। बड़ी खीज होती। एक बार उनके न रहने पर चोरी से 2 बड़ी बड़ी मौसमी तोड़ ली, मौसमी तोड़ते समय पड़ोस में लगे गलगल के कांटें से गाल छिल गए, लेकिन मेरी मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न था, घर आने से पहले ही कोहलैय्या पर पहुंचकर आम की लकड़ी घुसेड़कर एक मौसमी को फोड़कर उसका रस चूसा।

बाबा पक्के रंग के हट्टे कट्टे बहुत लंबे इंसान थे। सफ़ेद धोती, और ढीला कुर्ता पहनते थे। मेरी यादाश्त के अनुसार वे गांजे के शौकीन थे, बोर के आसपास गांजे की उत्तम कोटि की पौध थीं, तम्बाकू को गांजे में मिलाकर चिलम भर कर कस लगाए जाते। बोर पर हमेशा 4 से 5 आदमी बने रहते। बोर पर एक कोठरी थी, जिसमें ताला लगा रहता था, मेरा बड़ा मन करता कि उसके अंदर क्या है, एक दिन वो गलती से खुला रह गया। बाबा गाँव गए थे किसी काम से, मैं कोठरी में घुस गया, वहाँ का नज़ारा देखकर बड़ी आंखे खुली की खुली रह गईं, वह दैत्याकार इंजन था, जिसके एक तरफ करीब 3 फ़ीट व्यास का एक पहिया था और पहिए पर पटा चढ़ा था। मैंने पटा पकड़कर घुमाना चाहा कि उसपर लगी ग्रीस मेरे हाथों में लग गई। मिट्टी में हाथों को ख़ूब घिसा लेकिन वो छूटने का नाम ही नहीं ले रही थी मार का डर सताने लगा। तभी न जाने क्या सूझा पीने वाले पानी के हौद में जाकर हाथ धोने लगा। ग्रीस पूरे पानी में तैरने लगी। अब और डर गया दुगुनी मार पड़ने के डर से पिताजी को बिना बताए घर की राह पकड़ी कि आगे से भगोले बाबा दिखाई दिए। काटो तो खून नहीं, उन्हें देखकर वैसे ही डर लगता था, पूछताछ करने लगे कहाँ जा रहा है अकेले, कसम से बुरा हाल था। हाथ देखकर बोले अरे ये कहाँ से लगा लिया। चल बोर पर, मैं डरा हुआ था मार पड़नी निश्चित थी। दोपहर का समय था आसपास के किसान आकर वहां खाना खाने वाले थे। पिताजी को आवाज देकर बुलाया। डाँट पड़ने लगी, तभी किसी ने हौद का पानी देख लिया अब तो मेरा रोना छूटने वाला था, पिताजी ने लकड़ी उठा ली मारने के लिए, लेकिन बाबा ने हाथ पकड़कर छुड़ाया, और बोले "तो क्या हो गया, बच्चे ने पानी खराब कर दिया, दुबारा बोरिंग चला देता हूँ,"। रामा दीदी के पिताजी को बोला जाओ इंजन चला दो। इंजन चलते ही सभी नहाने धोने लगे। हौद को दुबारा साफ सुथरा करके पानी भरा गया। उस दिन से भगोले बाबा के पास जाकर बैठने का मन करता। उनके प्रति बहुत सम्मान उमड़ने लगा, वे कभी कभी मुझे गलगल देते, एक बार 4 बड़ी बड़ी मौसमी दीं। उन्होंने बोर के पास गाजर बोई थी, बोले जब मन करे गाजर उखाड़ कर खा लिया करना। आज बाबा की बरबस याद आ गई।

इस कहानी से ये शिक्षा मिलती है कि पहले के समय लोग दूसरे के बच्चे को भी अपना बच्चा समझते थे और अब 'अपनो पूत पोतिंगड है, दोसरे का पूत धोतिंगड है।'

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