Wednesday, May 23, 2018

अपनी-अपनी देशभक्ति


विगत कुछ वर्षों से हम आधुनिक भारत में रह रहे हैं। क्योंकि देश अब देशभक्ति के अप्रितम दौर से गुजर रहा है। देश के कोने-कोने से लोग राष्ट्रभक्ति की अपनी-अपनी परिभाषा गढ़ रहे हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश देशभक्ति के चरम आनंद को प्राप्त करने के लिए नित नई खोज में कार्यरत है। युवा वर्ग को रोज़गार से ज़्यादा देशभक्ति का जप करने में मजा आ रहा है, ठीक वैसे जैसे जै श्रीराम कहने से मंदिर वहीं बनायेंगें की भावना जागृत हो जाती है।

सोशल मीडिया का तो कहना ही क्या, यहाँ तो उठते ही देशभक्ति के नारों की गूँज सुनाई देने लगती है। लाइक और कमेंट प्राप्त करने के लिए लोग एक दूसरे को ट्रोल (देशी भाषा में कहने का मतलब है, ग़ाली गलौज) करने से लेकर मार पिटाई, बलात्कार जैसी धमकी देना आम बात है। आमने-सामने की लड़ाई, मानसिक लड़ाई में बदल गई है। फ़ॉर्वर्डेड मैसेज आते ही वास्तविकता को सोचे समझे बिना ही बहसों का दौर शुरू हो जाता है। इसे देश भक्ति की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या कहेंगें?

इधर लोकतंत्र की तीसरी आँख कही जाने वाली मीडिया का भी यही हाल है। चैनल दो धड़ों में विभाजित हैं, जहां एक तरफ खबरों की चर्चा हो रही होती है वहीं दूसरे चैनल पर देशद्रोहियों की झूठी खबरों को दिखाकर टीआरपी का खेल खेला जा रहा है। खबरों की प्रतियोगिता में मसाले लगाकर जीरे की छौंक दी जाती है। ऐंकर्स लोकप्रियता के मायने में नायक और नायिकाओं को पीछे छोड़ रहे हैं और ख़बरों की ऐसी की तैसी हो रही है।

धार्मिक आंदोलनों के द्वारा सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करने वाले धर्म गुरु अध्यात्म का ज्ञान देने की बजाय देशी और स्वदेशी का ज्ञान पेलकर मुनाफ़े के सौदागरों को टक्कर दे रहे हैं। उन्होंने अपना अलग एक एजेन्डा सेट कर लिया है।

लेखक, आलोचक, कवि तथा साहित्यिक गतिविधियों के ज्ञाता साहित्य से ज़्यादा देशप्रेम की कविताओं, लेखों को पत्रिकाओं द्वारा, सम्मेलनों द्वारा जनता में परोस रहे हैं। कमाल की बात है कि, इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान के वातावरण को जीवंत कर दिया है। 

यह वह दौर है जब देशद्रोही और देशप्रेमी दोनों एक दूसरे को द्रोही कह कर संबोधित कर रहे हैं। कब कौन देशद्रोही देशप्रेमी बन जाये और कब कौन देशप्रेमी देशद्रोही हो जाएगा यह लंबी बहस का विषय है। वातावरण देशप्रेम से ओतप्रेत है। सांस बाहर छोड़ो सांस अंदर लीजिये, देखिये कैसा देशप्रेम से सरोबार हो जाएंगें। प्रदूषित और जहरीली हवा में भी आपको आनंद के चरम की प्राप्ति होगी। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, बलात्कार, हिंसा, अपराध इन सबका एक ही इलाज है देशभक्ति। ऐसा लगता है:- "सब मर्जों की एक दवाई, देशभक्ति है भाई।

Sunday, May 20, 2018

क्योंकि औरतें तुम्हारी खेती हैं...

Prof. Shamsul Islam
 भारतीय समाज में औरत ही एक ऐसी हस्ती है, जिसका नसीब संस्कृतियों, वर्गों और धर्मों में व्यापक अंतर और भेद होने के बावजूद हर जगह एक जैसा ही रहता है। लगातार तिरस्कार और अपमान जैसे उसकी नियति है। औरत की अक्ल उसकी एड़ी में होती है, औरत झगड़े का सबसे बड़ा कारण होती है और औरत की असल दवा पिटाई है - औरत के बारे में इस तरह का सोच केवल गवार कहे जाने वालों की ही बपौती नहीं है। भारतीय संसद में कई बार ऐसा हुआ है कि, सत्ताधारी पक्ष को शर्म दिलाने कि लिए चूड़ियां पेश की गयीं। जाहिर है कि, चूड़ियां औरतों की तरह नालायक हैं। यहा पर भारतीय प्रजातंत्र की एक और विडम्बना की ओर ध्यान दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि, यूरोपीय उदारवादी परम्परा में प्रशिक्षित भारतीय संविधान के निर्माताओं ने राष्ट्र अध्यक्ष के लिए जो नाम चुना, वह ‘राष्ट्रपति’ था। इसके दो ही अर्थ हो सकते थे, या तो यह मान कर चला गया कि, कभी कोई महिला इस पद पर विराजमान हो ही नहीं पायेगी या अगर कोई महिला इस पद को प्रहण कर भी लेती है तो उसे पुरूष रूपी पति का रूपधारण करना ही होगा। वह सुश्री या श्रीमती रहते हुए इस पद की परिभाषा से बाहर मानी जायेगी। 
 
महिलाओं के बारे में इस घटिया सोच (इसे पाशविक सोच इसलिए नहीं का जा सकता, क्योंकि, जानवरों में मादा जानवर के साथ ऐसा सुलूक होता हो, ऐसा कोई सबूत हमारे सामने नहीं है) की पैठ को समझना है, तो हमारे आस-पास घट रही दुर्घटनाओं के संबंध में इसे अच्छी तरह देखा जा सकता है। अगर सड़क पर किसी वाहन से कुचलकर कोई व्यक्ति मर जाये तो अक्सर भीड़ उस वाहन को आग लगा देती है, पड़ोस से झगड़े की आवाज आ रही हो तो पड़ोसी दखल देते हैं या पुलिस बुला देते हैं, पर दिल्ली जैसे शहर में जहाँ  औसतन रोज एक बहू जला कर मार दी जाती है, इस बात पर कोई दंगा नहीं होता। चश्मदीह गवाह अनजान बन जाते हैं। मध्यवर्गीय बस्तियों में जहाँ एक सर्वेक्षण के अनुसार 20 से 30 प्रतिशत घरों में पत्नियों को अक्सर पीटा जाता है, पड़ोसी बिल्कुल बहरे-गूँगे बने रहते हैं। सबसे शर्मनाक हाल तो पुलिस थानों का है। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं कि, जब पीड़ित महिलाएँ अपना दुखडढ़ा लेकर थाने गयीं और रपट दर्ज करना चाहा, तो थाने में मौजूद पुलिस कर्मियों ने यह कहकर रपट लिखने से मना कर दिया कि, भारतीय परिवारों में औरत के साथ मारपीट तो चलती ही है, इतना ‘एडजस्ट’ तो औरत को करना ही चाहिए। 
 
महिलाओं के बारे में व्याप्त इस तरह के रूझानों का सामाजिक आधार क्या है, क्या यह कुछ लोगों के समाज विरोधी सोच का नतीजा है? क्या औरत पर ये अत्याचार इसलिए हो रहे है कि समाज का अपराधीकरण हो रहा है? सच इससे कहीं ज्यादा कड़वा, खतरनाक और चैंका देनेवाला है। महिला होने की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि पैदा होने के साथ जीवन भर जो तिरस्कार और जुल्म उन्हें भुगतना पड़ता है, उसे हमारा समाज और हमारे समाज में पायी जानेवाली धार्मिक मुख्यधाराएँ समाज विरोधी और अमानवीय मानती ही नहीं हैं। 
 
इस संदर्भ में प्राचीन शिव पुराण और कुरान के अध्ययन से काफी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। शिव पुराण की उमा संहिता का चैबीसवाँ अध्याय महिलाओं की प्रकृति की व्याख्या करता है। इसके अनुसार, औरतें ‘नीच प्राणी हैं’। वे ‘मंदबुद्धि होती हैं और वे हर समस्या की जड़ हैं’। औरतों की एक समस्या यह है कि ‘हर औरत शालीनता की सीमाओं को लाँघ जाती हैं। शिव पुराण में यह भी बताया गया है कि ‘औरत से ज्यादा मुनाहगार और पापों से ओतप्रोत कोई दूसरा नहीं है। हर पाप की जड़ में औरत ही होती है। औरतें आम तौर पर परम्परागत शिष्टाचार  की मर्यादा को नहीं निभाती। अगर वे अपने पतियों का साथ नहीं छोड़तीं तो उसका कारण यह है कि कोई दूसरा मर्द उन्हें घास नहीं डालता है या उन्हें अपने पतियों का भय होता है। हद तो यह है कि वे औरतें भी, जिनको पूरा सम्मान दिया जाता है, भरपूर प्यार मिलता है और जिनका खूब ध्यान रखा जाता है, कुबड़े, अंधे, अल्पबु़िद्ध और बौने मर्दों के मोह में फंस जाती हैं। क्योंकि वे खुला संभोग करती हैं, इसलिए वे ढुलमुल और पापिन होती हैं... अग्नि चाहे कितनी ही लकड़ी जला ले, संतुष्ट नहीं होती है, महासागर में कितनी भी नदिया मिल जायें, पर उसका कोई नहीं छका सकता; मौत का देवता कितने भी लोगों को मौत के घट उतार दे, फिर भी तृप्त नहीं होता और महिलाए चाहे कितने भी मर्दों के साथ संभोग करें, तृप्त नहीं हो पाती हैं।’ शिव पुराण का यह अध्याय इस निष्कर्ष पर खत्म होता है कि अगर एक ओर महिला हो और दूसरी ओर मौत का देवता, यम, तेजधार तलवार, जहर, नाग और अग्नि एक साथ भी हों, तब भी बुराई में महिला का ही पलड़ा भारी रहेगा। 
 
कुरान के अध्याय सूरतुलबकर में इस बात को स्पष्ट करके लिखा गया है कि ‘तुम्हारी औरतें तुम्हारे लिए ऐसी हैं जैसे खेती की जमीन, इसलिए जिस तरह चाहो उसमें खेती करो और भविष्य का सामान अर्थात औलाद पैदा करों।’ इसी अध्याय में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि मर्दों को औरतों पर एक खास दरजा दिया गया है। एक और अध्याय, जिसका शीर्षक ‘निसा’ अर्थात औरत है, में मर्दों को यह छूट दी गयी है, ‘जो औरतें तुम्हें पसंद आयें उनसे निकाह कर लो। दो-दो, तीन-तीन, चार-चार तक कर सकते हो।’
 
इन धार्मिक स्रोतों से छन कर औरतों से सम्बन्धित जो साहित्य बाजार में उपलब्ध है, उसका थेड़ा जायजा लेना जरूरी है। इस साहित्य की जानकारी महिलाओं की कभी न खत्म होनेवाली त्रासदी के स्रोत को पहचानने में काफी मदद करेगी। यहाँ आशय उस भौंडे और अश्लील साहित्य से नहीं है जो किसी भी शहर में फुटपाथों पर रंगीन-पन्नी कागज में लिपटा खुलेआम मिलता है, बल्कि धार्मिक कहे जानेवाले उस साहित्य से है जो धार्मिक पुरस्तक विक्रेताओं द्वारा आध्यात्मिक एवं शैक्षिक उद्देश्य से छापा जाता है और जोरदार तरीकेे से बिकता है। औरतों को लेकर हिंदू और मुसलमान दोनें ही तरह के पुस्तक प्रकाशनों में किताबों  की बाढ़-सी आयी हुई है। हिंदू स्त्री के जीवन उद्धार को लेकर गीता प्रेस, गोरखपुर के पास पुस्तकों का भण्डार है, जिन्हें प्राप्त करने के लिए किसी रेलवे स्टेशन पर जाना ही काफी है।  गीता प्रेस को पुस्तकों की बिक्री के लिए देश के हर बड़े स्टेशन पर हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष सरकार ने स्टाल उपलब्ध कराये हैं।    
 
मुसलमान औरतों का जन्नत का रास्ता दिखानेवानला साहित्य किसी भी मुस्लिम-बहुल इलाके में आसानी से हासिल किया जा सकता है। 
 
गीता प्रेस की ‘नारी शिक्षा’ 28 संस्करण, ‘गृहस्थ में कैसे रहें’  11 संस्करण,  ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा’  32 संस्करण, ‘दांपत्य जीवन का आदर्श’  7 संस्करण, और आठ सौ पृष्ठों में ‘कल्याण नारी अंक’ काबिले गौर है। ये पुस्तकें एक स्तर पर महिलाओं को निर्बल और पराधीन मानती हैं। 
 
‘कोई जोश में आकर भले ही यह न स्वीकार करे परंतु होश में आकर तो यह मानना ही पड़ेगा कि नारी देह के क्षेत्र में कभी पूर्णतः स्वाधीन नहीं हो सकती। प्रकृति ने उसके मन, प्राण और अवयवों की रचना ही ऐसी की है। जगत के अन्य क्षेत्रों में जो नारी का स्थान संकुचित या सीमित दीख पड़ता है, उसका कारण यही है कि, नारी बहु क्षेत्र व्यापी कुशल पुरूष का उत्पादन और निर्माण करने के लिए अपने एक विशिष्ट क्षेत्र में रह कर ही प्रकारांतर से सारे जगत की सेवा करती रहती है। यदि नारी अपनी इस विशिष्टता को भूल जाये तो जगत का विनाश बहुत शीघ्र होने लगे। आज यही हो रहा है।’ हनुमान पोदार ‘नारी शिक्षा’ में इसी पहलू को आगे रेखांकित करते हैं, ‘स्त्री को बाल, युवा और वृद्धावस्था में जो स्वतंत्र न रहने के लिए कहा गया है, वह इसी दृष्टि से कि उसके शरीर का नैसर्गिक संघटन ही ऐसा है कि उसे सदा एक सावधान पहरेदार की जरूरत है। यह उसका पद-गौरव है न कि पारतन्त्रय।’ क्या स्त्री को नौकरी करनी चाहिए? बिल्कुल नहीं! ‘स्त्री का हृदय कोमल होता है, अतः वह नौकरी का कष्ट, प्रताड़ना, तिरस्कार आदि नहीं सह सकती। थोड़ी ही विपरीत बात आते ही उसके आसू आ जाते हैं। अतः नौकरी, खेती, व्यापार आदि का काम पुरूषों के जिम्मे है और घर का काम स्त्रियों के जिम्मे।’ क्या बेटी को पिता की सम्पति में हिस्सा मिलना चाहिए? सवाल-जवाब के रूप में छापी गयी पुस्तिका ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ के लेखक स्वामी रामसुख दास का जवाब इस बारें में दो टूक है, ‘हिस्सा मांगने से भाई-बहनों में लड़ाई हो सकती है, मनमुटाव होना तो मामूली बात है। वह जब अपना हिस्सा मागेगी तो भाई-बहन में खटपट हो जाये इसमें कहना ही क्या है। अतः इसमें बहनों को हमारी पुराने रिवाज पिता की सम्पत्ति में हिस्सा न लेना ही पकड़नी चाहिए, जो कि, धार्मिक और शुद्ध है। धन आदि पदार्थ कोई महत्तव की वस्तुए नहीं हैं। ये तो केवल व्यवहार के लिए ही हैं। व्यवहार भी प्रेम को महत्व देने से ही अच्छा होगा, धन को महत्व देने से नहीं। धन आदि पदार्थों का महत्त्व वर्तमान में कलह करानेवाला है और परिणाम में नर्कों में ले जानेवाला है। इसमें मनुष्यता नहीं है।’ क्या लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ने की इजाजत दी जा सकती है? नहीं, क्योंकि ‘दोनों की शरीर की रचना ही कुछ ऐसी है कि उनमें एक-दूसरे को आकर्षित करने की विलक्षण शक्ति मौजूद है। नित्य समीप रह कर संयम रखना असम्भव सा है।’ इन्हीं कारणों से स्त्रियों को साधु-संन्यासी बनने से रोका गया है - ‘स्त्री का साधु-संन्यासी बनना उचित नहीं है। उसे तो घर में रह कर ही अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। वे घर में ही त्यागपूर्वक संयमपूर्वक रहें। इसी में उसकी उनकी महिमा है।’ दहेज की समस्या का समाधान भी बहुत रोचक तरीके से किया गया है। क्या दहेज लेना पाप है? उत्तर है, ‘शास्त्रों में केवल दहेज देने का विधान है, लेने का नहीं है।’ 
 
बात अभी पूरी नहीं हुई है। अगर पति मारपीट करे, दुःख दे, तो पत्नी को क्या करना चाहिए? जवाब बहुत साफ है, ‘पत्नी को तो यही समझना चाहिए कि मेरे पूर्व जन्म को कोई बदला है, ऋण है जो इस रूप् में चुकाया जा रहा है, अतः मेरे पाप ही कट रहे हैं और मैं शुद्ध हो रही हूँ। पीहरवालों को पता लगने पर वे उसे अपने घर ले जा सकते हैं, क्योंकि उन्होंने मारपीट के लिए अपनी कन्या थोड़े ही दी थी।’ अगर पीहरवाले खामोश रहें, तो वह क्या करे? ‘फिर तो उसे अपने पुराने कर्मों का फल भोग लेना चाहिए, इसके सिवाय बेचारी क्या कर सकती है। उसे पति की मारपीट धैर्यपूर्वक सह लेनी चाहिए। सहने से पाप कट जायेंगे और आगे सम्भव है कि पति स्नेह भी करने लगे।’ लड़की को एक और बात का भी ध्यान रखना खहिए, ‘वह अपने दुःख की बात किसी से भी न करे नहीं तो उसकी अपनी ही बेइज्जती होगी, उस पर ही आफत आयेगी, जहाँ उसे रात-दिन रहना है वहीं अशांति हा जायेगी।’ अगर इस सबके बाद भी पति त्याग कर दे तो? ‘वह स्त्री अपने पिता के घर पर रहे। पिता के घर पर रहना न हो सके तो ससुराल अथवा पीहरवालों के नजदीक किराये का कमरा लेकर रहे और मर्यादा, संयम, ब्रहाचर्यपूर्वक अपने धर्म का पालन करे, भगवान का भजन-स्मरण करे।’ अगर किसी का पति मांस-मदिरा सेवन करने से बाज न आये तो पत्नी क्या करे? ‘पति को समझाना चाहिए... अगर पति न माने तो लाचारी है पत्नी को तो अपना खान-पान शुद्ध ही रखना चाहिए।’ अगर हालात बहुत खराब हो जाये तो स्त्री पुनर्विवाह कर सकती है? ‘माता-पिता ने कन्यादान कर दिया, तो उसकी अब कन्या संज्ञा ही नहीं रही, अतः उसका पुनः दान कैसे हो सकता है? अब उसका विवाह करना तो पशुधर्म ही है।’ पर पुरूष के दूसरे विवाह करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। ‘अगर पहली स्त्री से संतान न हो तो पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए केवल संतान उत्पत्ति के लिए पुरूष शास्त्र की आज्ञानुसार दूसरा विवाह कर सकता है। और स्त्री को भी चाहिए कि वह पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए पुनर्विवाह की आज्ञा दे दे।’ स्त्री के पुनर्विवाह की इसलिए इजाजत नहीं है क्योंकि ‘स्त्री पर पितृ ऋण आदि कोई ऋण नहीं है। शारीरिक दृष्टि से देखा जाये तो स्त्री में कामशक्ति को रोकने की ताकत है, एक मनोबल है अतः स्त्री जाति को चाहिए कि वह पुनर्विवाह न करे। ब्रहाचर्य का पालन करे, संयमपूर्वक रहे।’ इस साहित्य के अनुसार गर्भपात महापाप से दुगुना पाप है। जैसे ब्रम्ह हत्या महापाप है, ऐसे ही गर्भपात भी महापाप है। अगर स्त्री की जान को खतरा है तो भी इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती - ‘जो होनेवाला है, वो तो होगा ही। स्त्री मरनेवाली होगी तो गर्भ गिरने पर भी वह मर जायेगी, यदि उसकी आयु शेष होगी तो गर्भ न गिरने पर भी वह नहीं मरेगी।’ फिर भी कोई स्त्री गर्भपात करा ले तो? ‘इसके लिए शास्त्र ने आज्ञा दी है कि उस स्त्री का सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए।’ यदि कोई विवाहित स्त्री से बलात्कार करे और गर्भ रह जाये तो? ‘जहाँ तक बने स्त्री के लिए चुप रहना ही बढ़िया है। पति को पता लग जाये तो उसको भी चुप रहना चाहिए।’ 
 
सती प्रथा का भी इस साहित्य में जबरदस्त गुणगान है। सती की महिमा को लेकर अध्याय पर अध्याय हैं। सती क्या है, इस बारे में इन पुस्तकों के लेखकों को जरा-सा भी मुगालता नहीं है ‘जो सत्य का पालन करती है, जिसका पति के साथ दृढ़ संबंध रहता है, जो पति के मरने पर उसके साथ सती हो जाती है, वह सती है।’ अगर बात पूरी तरह समझ न आयी हो, तो यह लीजिए, ‘हिंदू शास्त्र के अनुसार सतीत्व परम पुण्य है इसलिए आज इस गये-गुजरे जमाने में भी स्वेच्छापूर्वक पति के शव को गोद में रख कर सानंद प्राण त्यागनेवाली सतियाँ हिंदू समाज में मिलती हैं।’ ‘भारतवर्ष की स्त्री जाति का गौरव उसके सतीत्व और मातृत्व में ही है। स्त्री जाति का यह गौरव भारत का गौरव है। अतः प्रत्येक भारतीय नर-नारी को इसकी रक्षा प्राणपण से करनी चाहिए।’ सती के महत्त्व का बयान करते हुए कहा गया है, ‘जो नारी अपने मृत पति का अनुसरण करती हुई शमशान की ओर प्रसन्नता से जाती है, वह पद-पद पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करती है।’ सती स्त्री अपने पति को यमदूत के हाथ से छीकर स्वर्गलोक में जाती है। उस पतिव्रता देवी को देख कर यमदूत स्वयं भाग जाते हैं। 
 
मुसलमान औरतों को लेकर जो साहित्य हमारे देश में उपलब्ध है, वह इससे किसी मायने में उन्नीस नहीं है। दर्जनों उपलब्ध किताबों में से नमूने के तौर पर ‘मिया बीवी के हकूक’  लेखकः मुफती अब्दुल गनी और ‘मुसलमान बीवी’ लेखकः इदरीस अंसारी को लेने से ही साफ तस्वीर उभर कर सामने आ जायेगी। यह बात बहुत स्पष्ट करके बतायी गयी है कि ‘औरतें मर्दों की खेतिया हैं, वे इनका चाहे जैसा इस्तेमाल करें।’ मुफती साहब फरमाते हैं, ‘बस अपने आपको गुलाम माने और शौहर को आका। और अगर मान लो किसी वक्त शौहर हिंसा भी करे तो अपने अन्नदाता की हिंसा को सब्र से सहे।’ वे यह भी बताते हैं कि ‘नर्क में बहुमत औरतों का ही होगा। औरत टेढ़ी पसली से पैदा की गयी है। सीधा करने की फिक्र मत करो, वरना टूट जायेगी। और न बिल्कुल आजाद छोड़ दो, नही तो और टेढ़ी हो जायेगी।’ इस्लाम का हवाला देते हुए बताया जाता है कि ‘जिसका शौहर उससे नाखुश हो, उसकी नमाज कबूल नहीं की जायेगी। और जो औरत ऐसी हालत में मरे के उसका शौहर उससे नाराज रहा तो वह जन्नत में दाखिल न होगी।’ इदरीस अंसारी तो यहा तक फरमाते हैं कि ‘अगर पति संभोग के लिए बुलाये और बीवी मना कर दे तो फरिश्ते उस औरत को तब तक कोसेंगे जब तक वह समर्पण न कर दे।’ शौहर के साथ जिन्दगी कैसे बितानी चाहिए, इसके भी तुक्ते बताये गये हैं-‘उसकी आँख के इशारे पर चला करो। मसलन शौहर हुक्म दे कि रात भर हाथ बाँधकर खड़ी रहो तो तकलीफ गवारा करके आखरत की भलाई और सुर्खरूई हासिल करो। किसी वक्त कोई ऐसी बात न करो जो उसके मिजाज के खिलाफ हो। मसलन अगर वो दिन को रात बतला दे तो तुम भी दिन को रात कहने लगो।’ और ‘जो औरत खुशबू लगाकर मर्दों के पास से गुजरती है, ऐसी औरत बदकार है। औरत परदे में रहने की चीज है। फिर जब वह अपने घर से बेपरदा निकलती है, तो शैतान उसे मर्दों की नजर में अच्छा करके दिखला देता है और बदमाश उस औरत को खूबसूरत समझ कर उसके पीछे लग जाते हैं।’ आगे चल कर यह भी बताया जाता है कि ‘मर्द का हर झूठ लिखा जाता है, लेकिन मर्द अपनी बीवी को खुश करने के लिए बोले तो उसका कोई गुनाह उसे नहीं लगता।’ मुफती साहब की किताब में तो ‘औरत को मारने का हक’ शीर्षक से अलग से एक अध्याय ही है। ‘शौहर को जबरदस्ती करने का भी हक़ है। वह सजा के तौर पर मार भी सकता है। लेकिन इतना न मारे के निशान पड़ जाये और बहुत तकलीफ पहुँचे। वह डंडे से भी मार सकता है।’
 
समानता, न्याय और व्यक्ति की गरिमा बनाये रखने की दुहाई देनेवाले हमारे इस विशाल लोकतंत्र में औरत के बारे में इस तरह के हिंसक और उत्पीड़क विचार खुले आम फैलाये जा रहे हैं। औरत के खिलाफ प्रसारित किया जा रहा यह दर्शन मानवीय अधिकारों की अंतराष्ट्रीय घोषणा, भारतीय संविधान, भारतीय पेनल कोड और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की खुल्लम-खुल्ला मजाक उड़ा रहा है। औरतों के बारे में ऐसे विचारों से पुरूष प्रधान समाज के हर अंग की सहमति लगती है। जरा-जरा-सी बात पर पुस्तकों, नाटकों और कविताओं पर प्रतिबंध लगानेवाले प्रजातंत्र की इस मामले में खामोशी का आखिर कुछ मतलब तो होगा ही। गीता प्रेस की महिलाओं पर किताबें फेरीवालों द्वारा सुप्रीम कोर्ट अहाते में खुली बिकती हैं    ।
 
इस संबंध में एक और पहलू पर ध्यान देना जरूरी है। हिंदू-मुसलमान सांप्रदायिक और कठमुल्लावादी ताकतों ने हमारे देश को युद्ध का अखाड़ा बना रखा है। पर औरत के मामले में दोनों के विचारों में जबरदस्त समानता और एकता है। गीता प्रेस वाली महिलाओं की किताबों को मुस्लिम महिलाओंवाली किताबों के खाते में लिख दें या इसका उलटा हो जाये तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता। सच्चाई तो यह है कि इस विडम्बना को खत्म करने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में एक नहीं, सैकड़ों तसलीमा नसरीनों को जन्म लेना होगा। 

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