Sunday, October 27, 2013

तल्ख़ जुबां कुछ तेरी ऐसी ज़हर घुला है बातों में

कितनी पी है ख़बर नहीं कुछ
फिर से कुछ पी लेता हूँ
जितनी बार याद आती तू  
मर के मै जी लेता हूँ।

हालत मेरी है ऐसी कुछ
जिसका कोई इल्म नहीं
रात-रात को कलम उठाकर
कुछ ना कुछ लिख लेता हूँ

वफ़ादार या कहें बेवफ़ा
इसमें तेरा कोई दोष नहीं
अनजाने ही बोल दिया है
वरना मै बेहोश नहीं।

तल्ख़ जुबां कुछ तेरी ऐसी
ज़हर घुला है बातों में
वरना क्या मज़ाल है किसकी
क़त्ल करें जो रातों में ....

'शिशु' आजकल बहुत अकेले
रात में है कुछ गुजर नहीं
ऐसी है कुछ दुनियादारी
इसमें मेरी बसर नहीं।।

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