Thursday, March 8, 2018

कपोलें

पतझड़ बीत गया है लेकिन, बड़ी उदासी छायी है।
कोयल ने भी राग न छेड़ा,  ख़ामोशी घिर आई है।

लगते हैं वीराने जंगल,  नदी बिना  जल  धारा है।
चरागाह सूने  दिखते हैं,  लगता  गया  उजाड़ा है।

दूर-दूर तक पथिक न कोई, कहीं दिखाई देता अब।
पुरवा-पछुवा सब बेज़ान,  ख़बर न कोई लेता अब।

बहुत हो गया इंतज़ार अब,  ढलने  वाली  बेला है।
जैसे प्रियसी का जीवन,  प्रिय के बिना अकेला है।

उसी रूप में आ जाओ अब कवि ने तुम्हें पुकारा है।
नीरसता को त्याग के देखो, जीवन कितना प्यारा है।

#बसंत #शिशु

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