Tuesday, April 23, 2019

तुमको चमकते शहर से फुर्सत मिले अगर

जो हो गए बर्बाद सब, उसमें हमारा हाथ!
आवाम खुश हो रही सुनकर हमारी बात!!

तुम कह रहे हो हारना मेरा नहीं उसूल है,
सब्र कीजिए, अमा दिख जाएगी औक़ात।।

तुमको चमकते शहर से फुर्सत मिले अगर,
गुर्बत भी देख लेना 'शिशु' आकर हमारे साथ।

सोचता हूँ, शब को  लिखना पड़ा ग़र दिन,
दिन के उजाले में लिखूँगा खुशनसीब रात!!

Sunday, April 21, 2019

उत्तर की बारात।

यह कहानी किसी के लिए मनगढंत क़िस्सा और किसी के लिए वास्तविक घटना लग सकती है। कहानी सुनी-सुनाई है, इसमें कितनी सच्चाई है यह कहना मुश्किल है तथा इस कहानी का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। आपको कई जगह अतिश्योक्ति भी लग सकती है और किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का इसका बिल्कुल उद्देश्य नहीं है...

...तो शुरू करते हैं, आज से कोई 50 साल पहले उत्तर में एक बारात गई थी। जिस गांव के लिए यह बारात गई थी उस गाँव को बारात ले जाने वाले लोग उत्तर कहते हैं। यह जिला सीतापुर में है, जोकि, नैमिषारण्य तीर्थ के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ की बलुआ मिट्टी में बाजरा और जौ तथा उपजाऊ चिकनी मिट्टी में गन्ना, गेहूँ और मक्का उगाए जाते हैं। चौका नदी के पश्चिमी भूभाग में धान की खेती की जाती है। कंकड़ या कैल्सियमी चूना पत्थर एकमात्र खनिज है जो खंड के रूप में मिलता है। कहानी के शुरुआत में ही खेती का वर्णन इस लिए किया जा रहा कि यह कहानी इसी के इर्द गिर्द बुनी गई है।

तब के समय में अधिकतर बारातें बैलगाड़ी पर जाती थीं। दूल्हे और दुल्हन के लिए डोली का इंतजाम किया जाता था जिसे पीनस या मियाना कहा जाता था, इसे बेचारे कहार कंधों पर ढोते थे। और तब कई बार दूरी अधिक होने के कारण बारात एक दिन पहले ही रवाना हो जाती थी और तीन दिन बारात ठहराने का इंतजाम किया जाता था ताकि बैलों के साथ ही साथ बारातियों को भी आराम मिल सके, एक दिन पक्का खाना (पूड़ी पकवान) मिलता और बाकी दो दिन कच्चा खाना रोटी, सब्जी, चावल, दही बड़ा, चना उड़द की दाल, अचार वगैरह) परोसा जाता था। रास्ते में आने जाने के लिये भौंरिया बनाने के लिए आटा, सत्तू और आलू, आदि का इंतजाम भी कर लिया जाता था। बाल्टी, लोटा, रस्सी, पत्तलों (बर्तन) और कुल्हड़ का इंतजाम किया जाता था। एक बैलगाड़ी पर खाने पीने की चीजें लदी होती थीं। जिस बैलगाड़ी में दुल्हन के लिए गहने कपड़े होते उसे बीच में चलाया जाता... बैलगाड़ी पर पुआल भर लिया जाता तथा जानवरों के लिए भूषा दाना भी रखा जाता। तब परजा जिनमें कहार, कुम्हार और नाई प्रमुख थे को बारात में खूब आदर मिलता, इनकी जिम्मेदारी परिवार के प्रमुख व्यक्तियों की तरह ही होती। कारण कुंवें से पानी खींचने का कार्य कहार और दूल्हे को नहलाने के लिए कहार तथा बर्तन का इंतजाम कुम्हार करता। कुछ अन्य जातियां भी परजा की श्रेणी में आती थीं लेकिन छुआछूत की भावना के कारण पंडित, ठाकुर, कुर्मी  और अन्य अगड़ी जातियाँ उन्हें बारात में नहीं ले जाया जाते थे, हाँ जब बारात वापस आ जाती तब उन्हें उनका नेग दे दिया जाता था।

यह बारात भी उसी के अनुसार तैयार हुई और समय पर रवाना हुई। जबसे उत्तर में विवाह तय हुआ था गाँव में कौतूहल था। लोग उत्तर की बारात के लिए उत्साहित थे। तब बारात में जाना आज आजकी तरह मजबूरी न था। इसे एक प्रकार का सामूहिक कार्यक्रम समझा जाता था। शादी में जाने के लिए हर कोई तैयार रहता था। जब छिदना हुआ तो गांव में नौटंकी का आयोजन किया गया। जिसे उत्तर के लोगों ने खूब पसंद किया था। उत्तर की तरफ जाने वाली गाँव की यह पहली बारात थी, हर कोई बारात में जाने को उत्साहित था। लोगों ने कई दिन पहले तैयारी कर रखी थी। बाबू दर्जी से अचकन सिलवाने की होड़ लग गई। चमहाऊ जूतों को तेल पिलाया जाने लगा, काले और सफेद बाल वाले लोग नाई के चक्कर लगाते कि उसके काले बाल रखे सफेद छाँट दे। कुर्ता, तम्बा (पायजामा) सिलवाई के चक्कर में दर्जियों के भाव बढ़ गए। धोती खरीदने के लिए गुप्ता की दुकान पर लोग आने लगे। लोग मूंछों पर ताव देते कि उत्तर की बारात में जाना है भाई। सुना है वहाँ खातिरदारी खूब होती है अब देख भी लेंगें कोई कहता...जिस जाति की बारात जानी थी उनके यहाँ चर्चा के लिए उत्तर की बारात ही मुख्य चर्चा थी। आखिर बारात तैयार हुई और तय हुआ सुबह के चार बजे बारात निकलेगी। इसलिए बैलों को रात में अच्छा चारा दिया गया, दाना लगाकर उन्हें दुबारा खिलाया गया। एक दिन पहले ही उन्हें नहलाया गया था खरारा लगाया गया, सींगों को पहले से ही रंग दिया गया था। उनके गले में बड़ा घुंघरू बांधा गया और सींगों में चोटी बाँधी गई। बैलगाड़ी के पहिए को खोलकर उन्हें डीजल और सन रोगन से तैयार किया गया। और रास्ते में किसी भी मुसीबत के लिए एक दो एक पहिए, जुआ (बैलगाड़ी की स्टेरिंग) का इंतजाम भी कर लिया गया था। जिस आदमी को रास्ता पता था उसका लहड़ुआ सबसे आगे दाला (हांका) गया। डोली को कुछ दूर कहार ले गए बाद में दूल्हे और डोली को एक बैलगाड़ी पर चढ़ा दिया गया था।

बारात को अंधेरा होने से पहले पहुँचना था क्योंकि रात में अनजान जगह बारात लुट जाने का ख़तरा था, लेकिन उत्साहवश यह बारात समय से दो घंटे पहले पहुँच गई थी, दिन होने के कारण उसे 3 किलोमीटर पहले एक कुंवें पर ही रोक लिया गया। कई लोगों ने स्नान  किया और कपड़े भी बदले क्योंकि रास्ते में धूल ने सबकी हालात खराब कर दी थी। जब कुछ अंधेरा हुआ बारात गांव की तरफ रवाना हुई। डोली को बैलगाड़ी से उतारकर दूल्हे को उसमें बिठाया गया।

गैस और हंडा की रोशनी दूर से दिख गई थी जहाँ बारात को रुकना था, यह एक बाग था जिसमें विभिन प्रकार के पेड़ थे। एक जगह पर शामियाना भी लगाया गया। बाग में बहुत पुराना कुंवा था जिस पर घिरनी लगी थी जिससे पानी आसानी से खींचा जा सके। चारपाई पर गलीचे बिछे थे। बारातियों को नाश्ता दिया गया। जब नाश्ता दिया जा रहा था एक व्यकि टार्च लेकर लोगों की गिनती कर रहा था। लोगों ने समझा यह शायद खाने को ध्यान में रखते हुए की जा रही होगी। किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। द्वारचार के लिए बरातियों का स्वागत कंडें की रोशनी से किया गया। रवाईश जलाई गई। जब बाराती खाना खाकर वापस आ गए एक व्यक्ति और आया और लोगों की गिनती करने लगा। सबने सोचा यह यहां का रिवाज़ होगा...

और अगले दिन सुबह 5 बजे के करीब दो व्यक्ति जिनमें एक पास राइफल और दूसरे के पास लठ्ठ था, आया और बरातियों से कहा चलो ठाकुर साहब ने बुलाया है। लोगों को रात में मालूम हो गया था कि यह ठाकुरों का गाँव है क्योंकि मामूली कहासुनी और झगडे हो चुके थे। तब शादियों में ये होना आम बात थी। कुछ लोग बैठे रहे और कुछ चलने लगे तभी राइफल लिए व्यक्ति ने कहा सभी 40 के 40 चलिए। कोई भी आदमी को रुकने की जरूरत नहीं, चूंकि दूल्हा और उसके घर के कुछ सदस्य अभी भी दुल्हन के घर पर थे इसलिए वे बच गए। एक बुजुर्ग को जो चलने में समर्थ न थे रुकने का इशारा करके सब चल दिए। ऐसा था जातिगत आतंक।

ठाकुर का घर एक काफी बड़ा घर था, जिसका चबूतरा सड़क से करीब 5 फिट ऊंचा था। 200 फ़ीट लंबी कच्ची दीवार पर कलीने से छप्पर पड़ा हुआ था, जिसके नीचे लकड़ी के 10 तख़्त और इतनी ही चारपाई बिछीं थीं। मुख्य दरवाज़ा बहुत बड़ा था जिस पर लोहे और पीतल के बड़े बड़े भाले जैसे दिख रहे थे, दरवाजे के ऊपर मिट्टी का एक बड़ा दीपक रखा था और जिसने लग रहा था उसकी कालिख सफेद पुती दीवाल पर काला टीका का काम कर रही थी। ठाकुर लकड़ी की आरामदायक कुर्सी परअधलेटा था। जैसे ही लोग पहुँचें उसने उठकर देखा और बिना कुछ बोले फिर पसर गया। तभी अंदर से एक कारिंदा आया और चौबन्दी (जिसमें भूसा बांधकर लाया जाता है) फेंक कर वापस चला गया। लोगों का माथा ठनका। यह भूसा उठाने का एक संकेत था। लोगों को एक खेत पर ले जाया गया जहां पहाड़ जैसा ठेर था। कारिंदे के हाथ में एक मोटा और मजबूत लठ्ठ था, लठ्ठ फटकारते हुए उसने कहा ज्यादा नहीं है दो ही चक्कर लगेंगें। चलो, नातेदारों चलो तैयार हो जाओ। एक आदमी ने थोड़ा विरोध किया, कारिंदें ने उसके पिछवाड़े पर एक लठ्ठ बजाया, वह वहीं ढेर हो गया, बाकी सब बिना किसी विरोध के काम पर लग गए। दो घंटे की कड़ी मशक्कत से लोगों ने भुसा उठाया और फिर 1 घंटे उसे भुसौरी में भरने में लगाया। जब वे दुबारा ठाकुर के दरवाजे पर पहुँचें तांबें की दो बड़ी टंकियों में राब का शरबर तैयार था, सबको कुल्लड़ में शर्बत परोसा जाने लगा जिसे लोगों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। कुछ एक को छोड़कर कारिंदें ने बिना कोई नुकसान पहुंचाए सबको पुनः बाग में जहां बारात रुकी थी छोड़ दिया।

बारात अगले वापस गाँव लौट आई थी। रास्ते में किसी ने किसी से कोई बात नहीं की। गाँव में जो किसी कारण बरात न जा पाए थे, पूछने लगे कैसी रही आवभगत। किसी ने कुछ न बोला। बात आई और गई। आखिर कुछ दिनों बाद जब फिर उत्तर से किसी के लिए रिश्ता आया लोगों का धैर्य जवाब दे गया और सभी वही घटना एक दूसरे से सुनाने लगे। कोई बोलता वहां गन्ना भी खूब होता है अबकी बार गन्ना छिलवा लेंगें, कोई कहता धान भी अच्छा होता है धान झोरवा लेंगें। बात यह थी कि, उत्तर की बारात करने को कोई राजी न हुआ।

अब सुना है उत्तर से बारातें फिर हो रहीं हैं क्योंकि अब ठाकुरों का उतना आतंक नहीं है लेकिन फिर भी लोग वहाँ बारात जाने को उतना उतावलापन नहीं दिखाते जितना अन्य जगहों पर।

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