Friday, October 24, 2008

दीवाली का बोनस

कुछ लोग दीवाली का इन्तजार दीवाली के अगले दिन से दुबारा करने लगते हैं। कारन जो भी हों. इन कारणों पर यदि ज्यादा लिख दिया तो हमारी खैर नही. इसलिए मैं इस बिन्दु पर ज्यादा जोर नही देना चाहता.

ऐसा कहते हैं की भारत एक कृषि प्रधान देश हैं। आज जो किसानो की हालत है वह किसी से छुपी नही है. जो भी अखबार पड़ता हैं न्यूज़ देखता है उसे हो पता ही होगा की किसान कितनी संख्या में आत्महत्या करने पर मजबूर हैं. अब यदि ऐसे में कहा जाए की उनको बोनस मिलता हैं या नही. चर्चा करना बेकार है.

आपने ऐसा कम ही सुना होगा की दीवाली के बाद किसी को बोनस मिला हो. लेकिन यह सत्य है. और वह बोनस देता है किसान अपने बैलों को. उत्तर भारत में ऐसी प्रथा है की दीवाली के अगले दिन बैलों को काम पर नही लगाया जाता. उस दिन उनकी छुट्टी रहती है. किसान खुद भी उस दिन आराम करते हैं. उस दिन किसान अपने बैलों को नहलाता है उनकी पूजा करता है और उन्हें अच्छा से अच्छा पकवान भी खिलाता है. तो अब यदि किसान अपने बैलों को बोनस देता है तो किसानो को भी बोनस मिलना चाहिए ये एक अनुत्तरित प्रशन है.

महिला और विकलांगता

भारत में महिलाओं को लैंगिक रूप से कमजोर समझा जाता है। इसका सीधा सा अर्थ है महिला पुरूष के बराबर काम नहीं कर सकती। उनके पास पुरूषों जैसी आजादी और उतने सामाजिक अधिकार भी नहीं है। इसके लिए वे निरंतर संघर्ष कर रही हैं और इसमें कुछ हद उन्हें कामयाबी भी मिली है। लेकिन मैं यहां पर एक आम महिला की बात न करके विकलांग बालिकाओं और महिलाओं पर लिखने की कोशिश करूंगा।

एक सर्वे से पता चलता है कि भारत में 5 करोड़ विकलांग हैं। जिनमें तक़रीबन 2 करोड़ की संख्या विकलांग महिलाओं की है। जिस समाज में लड़कियां पैदा होना ही अपशगुन माना जाता हो यदि उसी समाज में एक विकलांग बालिका का जन्म हो तो समाज का उनके प्रति दृष्टिकोण क्या होगा इसकी कल्पना करना आसान ही होगा। जिन परिवारों में विकलांग लड़कियों का जन्म होता है उनके ज्यादातर परिवार में कुंठा और निराशा छायी रहती है। उन्हे यही चिंता रहती है कि इस लड़की का क्या होगा। उसका विवाह किस प्रकार होगा, आगे का जीवन वह कैसे काटेगी, किसके सहारे जियेगी। इसी प्रकार और भी बहुत सारे सवालों का जवाब ऐसे परिवारों के पास नहीं होता.

ऐसी विकलांग बालिकाओं की शिक्षा के प्रति परिवार का नजरिया बहुत संकीर्ण होता है। ज्यादातर परिवारों की आपस की राय यही होती है कि उसका पढ़ना-लिखना बेकार है। क्योंकि इन लड़कियों को रोजगार तो मिलने से रहा। ऐसा माना जाता है कि ये परिवार उनकी पढ़ाई की ओर ध्यान न देकर उनकी शादी की चिंता में रहते हैं वे सोचते हैं कि जितना खर्च हम इसकी पढ़ाई पर करेंगे उतना पैसा उसकी शादी में दहेज देकर उसका विवाह किया जा सकता है।

सामाजिक समारोंहों में भी इन विकलांग लड़कियों को नहीं ले जाया जाता। इस बारे में उनकी सोच होती है कि यदि उसे शादी में ले जायेंगे तो परिवार की बदनामी होगी और लड़की के साथ लोग दुव्र्यवहार करेंगे। जिसके कारण इन लड़कियों में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वे चिड़चिड़ी हो जाती हैं, उनके व्यवहार में रूखापन आ जाता है।

आज आम महिलाएं पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। वे नौकरी-पेशा में हैं, खुद पर निर्भर हैं। यहां तक कि पुरूषों के समान वेतन पर काम कर रही हैं और अच्छें पदों पर भी हैं। वहीं एक विकलांग महिला परिवार के किसी न किसी सदस्य पर निर्भर रहती है। उसे आम जरूरत तक के सामान के लिए परिवार और रिश्तेदारों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। विकलांग महिलाओं के बारे में आम धारणा यह बनी हुई है कि वह बाहर जाकर काम करने में असमर्थ है। उनकी दलील होती है कि दिल्ली जैसे शहरों में जहां भीड़-भाड़ वाली गलियां हैं, जरूरत से ज्यादा भरी हुई बसे हैं और गुस्सैल बस कंडक्टर हैं। ऐसी जगहों पर आम आदमी भी यात्रा करने से पहले एक बार सोचता है। इन जगहों पर इन विकलांग महिलाओं और बालिकाओं के लिए यात्रा करना कितना कठिन और खतरनाक है। इन सबके बावजूद भी विकलांग महिलाएं यदि काम के लिए निकलती हैं तो उन्हें उचित मजदूरी नहीं दी जाती। समाज इस बारे में उनके साथ भेद-भाव वाला रवैया अपनाता है।

इन विकलांग लड़कियों के परिवारों को उनकी शादी के लिए और भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। समाज की यह सोच है कि एक विकलांग महिला की शादी भी विकलांग पुरूष से होनी चाहिए ताकि वह उसकी भावनाओं की कद्र कर सके, उसकी देखभाल कर सके। यदि किसी विकलांग महिला की शादी आम पुरूष के साथ होती है तो परिवार को बहुत सारा दहेज देना पड़ता है। इसके बाद भी पति और उसके परिवार को यह आशंका बनी रहती है कि वह अपने बच्चे को संभाल पायेगी कि नहीं। इसीलिए इन विकलांग महिलाओं की शादी या तो किसी शादी-शुदा इंसान या किसी बृढ़े इंसान के के साथ कर दी जाती है।

इन सब चीजों के अलावा समाज और परिवार का नजरिया भी उनके प्रति ठीक नहीं होता। परिवार या रिश्तेदारों के ऊपर निर्भर रहने के कारण उनके साथ दुव्र्यवहार किया जाता है। ताने कसना, अपमानित करना और जलील करना तो आम बात है। यहां तक कि उनके साथ ऐसे दुव्र्यवहार किये जाते हैं जो अपराध की श्रेणी में आते हैं जैसे उपेक्षा करना, गाली-गलौच करना, शारीरिक प्रताड़ना देना आदि।

इन विकलांग महिलाओं और लड़कियों कि स्थिति में बदलाव लेन के लिए सरकार और बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएं काफी प्रयास कर रहे हैं। लेकिन समाज को भी एक जिम्मेदराना व्यवहार अपनाना होगा। जब तक समाज और परिवार उनके जीवन स्तर को सुधारने के लिए एक जिम्मेदाराना और व्यवहारिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता तब तक यह कहना कि उनके जीवन में बदलाव आयेगा कहना कठिन है।

आज जरूरत है इन विकलांग महिलाओं की पहचान करके उनके लिए जरूरी संसाधन जुटाये जायें। उनको रोजगार और स्वरोजगार दोनों तरह का सहयोग दिया जाये। उन्हें सिलाई-कढ़ाई के अलावा आधुनिक तकनीका का ज्ञान भी दिलाया जाये। इसके अतिरिक्त बहुत से ऐसे और भी काम हैं जिन्हें बैठकर किया जा सकता है जैसे पत्रकारिता, ग्राफिक्स डिजाइंन, आफिस मैनेजमेंट, अध्यापन और सलाहकार आदि में भी उनको शिक्षित किया जाये। इसके बाद हम देखेंगे जैसे ही समाज का नजरिया बदलेगा वैसे ही उनके जीवन में बदलाव आयेगा और वह समाज का एक हिस्सा बनकर आम नागरिक की तरह जीवन यापन कर सकेंगी!

दीवाली के दीप जलें चहुं ओर रोशनी छा जाये

दीवाली के दीप जलें चहुं ओर रोशनी छा जाये
मन मांगी मुराद सबको पावन अवसर पर मिल जाये

पहले दीवाली कैसी थी इसका कुछ मैं वर्णन कर दूं
जी चाह रहा है इसी तरह मन को अपने हलका कर लूँ?

याद आ गये बचपन के दिन
छुटपन के दिन, खुशियों के दिन

कभी पटाके नहीं जलाये क्येकि मुझे डर लगता था
अभी मिठाई अभी मिलेगी हरपल ऐसा लगता था।

यार दोस्त सब मिलजुल कर हम खेल खेलते सुबहो शाम
करते थे ना कोई काम, करते थे ना कोई काम,

गुल्ली-डंडा खूब खेलते, सांझ सुबह का ख्याल नहीं
अम्मा डंडा लेकर आये, बापू की परवाह नहीं

इस प्रकार दिन कट जाते थे, जब तक खुलते स्कूल नहीं
फिर हो जाती थी तैयारी पढ़ने की क्योंकि दिसम्बर दूर नही।

अब दीवाली कहां रही इस बार दीवाला हो ही गया।
यह देश कहां से कहां गया, सेंसेक्स कहां से कहा गया।

अब खेल को गेम बोलते हैं, उसका ही सारा चक्कर है
जो जीत गया वो जीत गया जो हार गया वो कहां गया?

अब शोर-शराबा है ऐसा,
डर लगता है कैसा-कैसा

कहीं पटाके और अनार में कोई बम ना आ जाये
इस हंसती-खिलती दीवाली में मातम फिर ना छा जाये

प्रभु ऐसा उपाय कर दो,
रोशन जग पूरा कर दो

'शिशु' की यही कामना है,
दूजी नहीं ‘भावना’ है।

प्रभु फिर से तुम आ जाओ
किसी वेश में किसी वेश में,
फर्क न पड़ता किसी देश में

इस जग का उद्धार करो
जीवन नैया पार करो

सुख-शान्ति चहुं ओर बिखेरो
सपने सबके खूब उकेरो

मनोकामना पूरी हो
अधंकार से दूरी हो

और रोशनी छा जाये
चहुँदिश खुशियाँ आ जायें।

Wednesday, October 22, 2008

तेरी कसम......

हमारे देश में कसम खाने और कसम खिलाने की परम्परा प्राचीन काल से चलती आ रही है। ऐसा माना जाता है कि राजा हरिश्चंद्र ने अपनी कसम पूरी करने के लिए पत्नी और बच्चे तक को एक मेहतर के हाथ बेंच दिया था। पुराणों में एक कथा है कि अयोध्या के राजा दशरथ की प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए उनके पुत्रों ने 14 वर्ष तक का जंगल में बिताये, इस दौरान उन्हें वहां गंभीर परिस्थियों का सामना करना पड़ा। ऐसा कहते हैं कि उस समय कसम को पक्का वादा या सौगंध कहते थे और उस सौगंध को पूरा करने के लिए लोग अपनी जान तक की बाजी लगा देते थे। उनके लिए कसम तो एक प्रतिज्ञा होती थी।

आधुनिक युग में इसी को ध्यान में रखते हुए कसम अदालतों में अपराधी और गवाहों को खिलाई जाती है। जैसा कि सर्वसत्य है कि बदलाव प्रकृति का नियम है और इन्हीं बदलावों के फलस्वरूप इन कसमों की परिभाषा भी अब धीरे-धीरे बदलने लगी है। अब कसम को मजाक में लिया जाता है। यदि लड़का फिल्म देखकर आये और बाप पूछे कि बेटा कहां से आये हो। बेटा पहले ही बोल देगा ‘कसम से पापा मैं अपने दोस्त के घर से आ रहा हूं। बाप को भी पता है कि बेटा कसम खा गया तो इसका मतलब यह नहीं कि वह दोस्त के घर से ही आ रहा है। बाप ने खुद भी तो अभी भाग्यवान (पत्नी) के सामने कसम खाई है कि वह ऑफिस से टाइम से निकले थे लेकिन रास्ते में ट्राफिक मिल गिया इसलिए लेट हो गये।

ऐसा मन जाता है कि पहले कसमों का कोई उतार नहीं था। शायद इसलिए लोग अपनी कसमों पर अडिग रहते थे। पुराणों, ग्रंथों के जानकार बताते हैं कि पहले का युग धर्म-कर्म का युग था। लेकिन अभी के युग का क्या? मैं पूछता हूं क्या आज का युग धार्मिक नहीं है? आज तो और अधिक मंहगे मंदिरों का निर्माण हो रहा है और इतना ही नहीं इन मंदिरों में भक्त जनों की लम्बी-लम्बी कतारें भी देखी जा सकती हैं। लेकिन ऐसा नहीं। आज के युवा शायद अब कसम पर उतना ध्यान नहीं देते। वैज्ञानिक युग जो है।

ऐसा नहीं कसमें अब खायी नहीं जातीं, कसमें अब भी खायी जाती हैं फर्क बस इतना है उन कसमों के आगे झूठ लग गया है। अब कसमें झूठी खायी जाती हैं। आज का प्रेमी ऐसा हो ही नहीं सकता कि वो अपनी प्रेमिका का सामने कसमें न खाये। और वो कसमें भी ऐसी वैसी नहीं, वो कसमों खायी जाती हैं साथ जीने और मरने की। प्रेमिकाएं भी अपने पूर्व प्रेमियों की कसमें खाकर कसमें खाती हैं। भारतीय अदालतों का तो कहना ही क्या? आदमी गीता पर हाथ रखकर कसम खाता है और अदालत से निकलकर सीधे मंदिर जाकर कसम उतार आता है। या ज्यादा से ज्यादा यह हुआ कि पंडित जी को कुछ पैसा-टका देकर टटका-टोना करा दिया। बस। मामला खतम। भारत के राजनेता तो इसलिए कसम खाते ही नहीं वो तो वायदे करते हैं और वायदे तो वायदे हैं उन्हें तो आसानी से तोड़ा जा सकता है।

यदि कसम खाने और तोड़ने की गिनती की जाये तो पता चलेगा कि पचासों हजार कसमें रोज खायी जाती हैं और उतनी की संख्या में तोड़ी भी जाती हैं। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों की तो भाषा की कसम बन गयी है। इन जिलों में तो बाकायदा कसम में ही बात होती है। ‘तेरी कसम यार मैं अभी-अभी खाना खाकर आ रहा हूं’, तेरी कसम यार आज मैंने ऐसी लड़की देखी जिसके दो-दो ब्यायफ्रैंड, तेरी कसम यार मैं आज मरते-मरते बचा। अब उसे कौन याद दिलाये कि बच्चे अपनी कसम खा दूसरे की क्यों खाता है लेकिन दूसरे का भी तो वही हाल है वो कहता है तेरी कसम यार मैं तेरे पैसे कल तक जरूर दे दूंगा। तेरी कसम।

आप पूछेंगे कि यह क्या ऊट-पटांग लिखता रहता है तो मेरा भी जवाब यही होगा तेरी कसम यार अगली बार यह नहीं लिखूंगा।

Tuesday, October 21, 2008

गरीब, गरीबी और गंदगी........

गरीबी हिसां का एक बद्तर रूप है। - महात्मा गांधी

सिक्के के दो पहले होते हैं यह सभी जानते हैं और मानते भी हैं लेकिन उस समय क्या कहेंगे जब तीन चीजें सामने आ जायें जैसे गरीब, गरीबी और गंदगी। ये तीनों एक दूसरे के न होकर एक तीसरे के पूरक हैं। ऐसा माना जाता है कि गरीब से गरीबी बनी और गरीबी से गंदगी। और कहेंगे भी क्यों नहीं क्योकिं उनका वाह्य आवरण और उनके रहने-सहने के तरीके से ऐसा ही तो लगता है!

शहर वाले मानते हैं कि गंदगी गांव से आयी है। मतलब गांव से गरीब आये और और गंदगी साथ लाये। इसलिए शहरी गरीब को गांव की गरीब की तुलना में ज्यादा गंदा माना गया है। शहरी गरीबों के गंदगी में रहने के कारणों पर बहुत ही कम लोग चर्चा करते हैं। और जो लोग चर्चा करते भी हैं वो गंदगी के कारणों पर न करके उसके उपायों पर करते हैं।

मुद्दा यह है कि गरीब को ही क्यों गंदा कहा जाता है जबकि शहरों का ज्यादातर कूड़-कचरा बीनने वाले ये बेचारे शहरी गरीब ही तो होते हैं। ऑफिसों में काम करने वालों से लेकर घर में काम करने वाले ये सभी शहरी गरीब ही तो हैं। इधर ऑफिसों में आदमी साफ-सफाई का काम करते हैं उधर बड़ी-बड़ी कॉलोनियों के घरों के उनकी औरतें सफाई का काम करती हैं। यहां तक कि उनके बच्चे भी इसी शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए कूड़ा-कचरा बीनते नजर आते हैं। बात यह है कि उनको हमारी और आपकी सफाई से मौका ही नहीं मिलता कि वो अपनी साफ-सफाई रख पायें। इसके अतिरिक्त सामाजिक उपेक्षा का कारण भी उनको साफ-सफाई रखने में बाधक है। समाज का नजरिया उनके प्रति नकारात्मक है। उनको पता है यदि हम साफ-सुथरे भी रहेंगे तो भी कहने वाले यहीं कहेंगे कि हम गंदे हैं। हमारे घर गंदे हैं। इसलिए उन्होंने अपने को अपने हाल पर छोड़ रखा है।

इन गंदी बस्तियों को साफ रखने के लिए सरकार ने कई योजनाएं चला रखी हैं जैसेः एकीकृत कम लागत सफाई स्कीम (आई।एल.सी.एस.), शहरी स्थानीय निकाय, स्लम उन्मूलन बोर्ड, विकास प्राधिकरण, सुधार न्यास, जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड इत्यादि।

कुछ राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय विकास एजेंसियां भी इन शहरी बस्तियों में साफ-सफाई के लिए काम कर रही है। बहुत सी छोटी-छोटी बस्ती आधारित संस्थाएं भी साफ-सफाई के लिए काम करती नजर आती हैं।

इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें भी अपने-अपने राज्यों में विभिन्न योजनाओं चला रही हैं। महाराष्ट्र सरकार ने स्लम सेनिटेशन प्रोग्राम नामक स्कीम चला रखी है जो मुम्बई की स्लम बस्तियों में शीवर और सफाई का काम देखती है। सफाई व्यवस्था में दिल्ली सरकार का एक अपना तरीका है वह यह देखती है कि जिस स्लम में ज्यादा गंदगी होती है उस स्लम बस्ती को ही साफ कर देती है। पिछले साल उसने दिल्ली की खूब सफाई की। उसका तो मानना है ‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’। इन सभी योजनाओं के चलने के बाद भी बात कुछ बनती नजर नहीं आ रही है। दिल्ली सरकार तो दिल्ली को रानी बनाने पर तुली है।

बहरलाह हकीकत से दूर भागते इस सारे परिवेश में जो बात मुझे नजर आ रही है वह यह है कि इन शहरी गरीबों को रोजगार उपलब्ध कराना। यदि उन्हें सही तरह का रोजगार मिले तो यह निश्चित है उनके रहन-सहन के स्तर में भी बदलाव आयेगा। इसके अतिरिक्त उनकी प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत कर जनस्वास्थ्य के प्रति लोेगों में जागृति पैदा की जाए, सभी लोगों को साफ पीने का पानी तथा भर पेट भोजन उपलब्ध कराया जाए, उन्हें गांव में ही समुचित रोजगार दिए जाएं। ताकि शहरों की तरफ पलायन रूके। समाज का नजरिया भी उनके प्रति बदलेगा। वो अपने बच्चों को पढ़ा सकेंगे और पढ़े-लिखे बच्चे आगे से आगे विकास में सहभागिता निभायेगें तथा अपनी बस्ती और अपने घरों को स्वच्छ रखने में अपने परिवार की मदद कर पायेंगे।

साफ-सफाई का ये नारा,
हमको भी लगता है प्यारा
साफ़ - सफाई सबको प्यारी,
हमको प्यारी, तुमको प्यारी।
लेकिन एक मजबूरी मेरी,
मिलती नही मजूरी पूरी।
घर-परिवार करे मजदूरी
अभी बात है यहीं अधूरी
बेटा, बेटी कूड़ बीने,
तब जाकर होता है खाना
पानी बस हम पी लेते हैं,
हफ्तों होता नहीं नहाना।
साफ-सफाई का ये नारा,
लगता सबको ही है प्यारा
मैं भी कोशिश करता हूं कुछ,
कुछ करदे सरकार हमारा।
साफ-सफाई का ये नारा,
हमको भी लगता है प्यारा -----

Monday, October 20, 2008

हम वह किताबें नहीं पढ़ेंगे

हम वह किताबें नहीं पढ़ेंगे
जिसमें लिखा है- ‘अंगूर खट्टे हैं’‘
गाय दूध देती है’
और ‘मधु मक्खी शहद’

गाय दूध नहीं देती
उसके बछड़े को बांधकर
उनके हिस्से का दूध छीन लेना
और कहना कि गाय दूध देती है
कहां का न्याय है।

हमें अस्वीकार है यह पढ़ना
कि मधुमक्खी शहद देती है
हम जानते हैं कि
उसके पूरे वंश का नाश करके ही
हम निकाल पाते हैं शहद

नौ दो ग्यारह अब तुम्हारे लिए रह गया है
अब वह हमारे लिए है
एक एक दो, दस एक ग्यारह

बात-बात पर बेंत फटकारना
और बिला वजह कान उमेठने का मतलब
अहिंसा नहीं होता।

यह कविता हरिहर प्रयास द्विवेदी की मूल रचना ‘भीगी बिल्ली’ से ली गयी है।

मुझे नहीं मालूम

किसी बात को नकारने के लिए एक यह कह देना ही काफी है ‘मुझे नहीं मालूम’

‘मुझे नहीं मालूम’ मैंने इसे लिखना ही क्यों शुरू किया आखिर इसका नतीजा भी क्या निकलेगा। ये भी कोई लिखने की बात है। ‘मुझे नहीं मालूम’। लेकिन वास्तव में ‘मुझे नहीं मालूम’ आप क्यों ऐसा सोचते हैं जबकि हर किसी भी बात का कोई न कोई मतलब जरूर होता है। ऐसे ही किसी भी बात को बिना सोझे समझे कह दिया ‘मुझे नहीं मालूम’। हां यह बात अलग है कि समझकर जब इंसान किसी बात को कह देता है कि ‘मुझे नहीं मालूम’ तब और बात है।

भारतीय पुलिस इसी ‘मुझे नहीं मालूम’ के चक्कर में कितनी बार चक्कर में पड़ जाती है। अपराधी कहता है उसे नहीं मालूम कि क्यों उससे यह मालूम कराया जा रहा है जबकि उसे नहीं मालूम। पुलिस कहती है ‘मुझे मालूम है ’, अरे जब पुलिस को मालूम है ही तो ‘मुझे नहीं मालूम’ फिर उस इंसान को क्यों परेशान कर रहे हो जो बार-बार कह रहा है उसे नहीं मालूम। अरूषि काण्ड में उत्तर प्रदेश पुलिस की तो इसी के कारण फजीहत तक हो गयी। पुलिस बार-बार कहती रही कि डॉ तलवार को मालूम है लेकिन डॉ तलवार बार-बार कहते रहे कि उन्हें नहीं मालूम। बात सी।बी.आई तक आ गयी। लेकिन मामला वहीं का वहीं रहा नहीं मालूम। सुना है अब यू.पी पुलिस भी कह रही है उसे नहीं मालूम।

बच्चे जब किसी बात पर कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम तब समझ में आता है कि चलो बच्चा है नहीं मालूम लेकिन उम्र दराज लोग जब कहते हैं कि ‘मुझे नहीं मालूम’ तब मुझे मालूम होता क्यों यह लगता है कि बच्चे को वास्तव में नहीं पता होगा क्योंकि जब बच्चे के बाप को नहीं मालूम तो बच्चे को कैसे मालूम होगा। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि शादी की 40वीं और 50वीं वर्षगांठ मना चुके इंसान को भी उसकी बीबी कहती है कि ‘मुझे नहीं मालूम’ तुम ऐसे हो। यानी पूरा जीवन साथ बिता दिया लेकिन फिर भी नहीं मालूम।

आजकल तो इसके बारे में लोगों का नजरिया बदल गया है जब वे कहते हैं नहीं मालूम तो समझो इसे जरूर मालूम होगा और यदि कहता है कि मालूम है तो समझो नहीं मालूम होगा। कई बार लोग मालूम होते हुए भी कहते हैं मालूम तो है यार लेकिन मालूम होते हुए भी क्यू पचड़े में पड़ू इसी लिए ‘मुझे नहीं मालूम’ ही कहना ठीक है। आजकल कोर्ट और कचहरियों में यही तो हो रहा है। जिसको मालूम है वही नहीं मालूम की रट लगाये है और जिसे नहीं मालूम वह मालूम है की रट लगाये है। मामला रफा-दफा। बस। मनोचिकित्सकों का कहना है कि नहीं मालूम कहना एक बहानासाइट नामक बीमारी है। लेकिन ‘मुझे नहीं मालूम’ ऐसा होगा।

बात तब और दिलचस्प हो जाती है कि जब एक आदमी दूसरे आदमी की महानता का बखान करता है। ‘यार तुम्हें नही मालूम तुम क्या चीज हो’ पहला आदमी यह जानकर नहीं खुश होता कि दूसरे ने उसकी बड़ाई की है उसे तो यह मालूम हो जाता है कि या तो वह (बड़ाई करने वाला) उससे कोई चीज मांगना चाहता है या उसका ऐसा कहकर मजाक उड़ा रहा है।

पढ़े लिखे लोगों को ‘मुझे नहीं मालूम’ कहने की आदत बन चुकी है। अनपढ़ का क्या? उसे मालूम भी होगा तब भी कह देगा ‘मुझे नहीं मालूम’ और लोग भी विश्वास कर लेंगे कि अनपढ़ है इसलिए नहीं मालूम होगा। और ये अनपढ़ लोग ये भी बड़े ढीठ होते हैं जब तक पड़े लिखों से ‘मुझे नहीं मालूम’ न कहवा लें तब तक दम नहीं लेते। अब देखिये-एक बार एक अनपढ़ ने मुझसे कहा ‘दो और दो कितने होते हैं?’ मैंने कहा चार। ‘ठीक है पढ़े लिखे हो’। अनपढ़ ने कहा। अच्छा यह बताओ भला यह क्या लिखा है (एक टेढ़ी-मेढी लकीर बनाकर)। मैने कहा ‘मुझे नहीं मालूम’। मैं यही तो सुनना चाहता था। अनपढ़ का जवाब था। अरे इतना भी नहीं मालूम यह बद्धा मूतनि है (बैल के पेशाब की डिजाइन)।

पाठकगण भी सोच रहे होंगे कि यह भी क्या बेमतलब की बात लिखे जा रहा है। मेरा तो यही जवाब होगा ‘मुझे नहीं मालूम’।

झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों का दर्द

झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग चाहें जिस भी शहर और प्रांत से आते हों उन्हें बिहारी मान लिया जाता है। बिहारियों को यह बात भले नागवार लगती ही है लेकिन जो बिहारी नहीं हैं उनका क्या? बात यह कि झुग्गियों में गरीब एक जगह जुटते हैं फिर वह किसी भी प्रांत से आये हुई हों। यह शहरी गरीब किसी न किसी गांवो की उपज हैं। लेकिन शहरों में जिस प्रकार से इस तबके को एक हीन भावना से देखा जाता है उससे कहीं न कहीं हर आने वाला व्यक्ति न चाहते हुए भी अपनी पहचान को झुपाने के लिए मजबूर हो जाता है और अपने मूल स्थान की जगह अपने को उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उड़ीसा या साउथ का हूँ ऐसा कहते हैं। लेकिन साउथ वाले तो अपने राज्य तक का नाम नहीं बताते। उन्हें तो पता है कि क्या फर्क पड़ता है तमिलनाडु बतायें तब भी साउथ के और आंध्र प्रदेश बताये तब भी रहेंगे। शहर में रहने वाले इन गरीबों को गरीब न कहकर शहरी गरीब कहा जाता है। तो अब आगे से इन्हें गरीब न कहकर शहरी गरीब ही कहेंगे।

ज्यादातर शहरी गरीबों के पास न वोटर कार्ड है और न राशन कार्ड। वे दिल्ली के कानूनी शहर में नहीं आते। इन शहरी गरीबों की संख्या कितनी है यह अनुमान लगा पाना कठिन है। आंकड़ों का क्या, वो तो भारतीय राजनीति की तरह बदलते रहते हैं। फिर भी सरकारी फाइलों में दो तरह के स्लम दर्ज हैं। स्वयंसेवी संस्थायों (NGO) की भाषा में इन्हें लिस्टेड और अनलिस्टेट कहा जाता है। इन शहरी गरीबों की संख्या वर्तमान दिल्ली की 18 मिलियन जनसंख्या के आधी है। (source : as per Economic survey, Government of the National capital Territory of Delhi, 2007-08)

ऐसा माना जाता है कि ज्यादातर शहरी गरीब मजदूरी करते हैं। मजदूरी भी दो तरह की करते हैं-रोजनदारी पर काम करने वालों को दिहाड़ी मजदूर कहते हैं और जो कम वेतन पर काम करते हैं उन्हें केवल मजदूर कहा जाता है। दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर गारा-ईंट, मिस्त्री, भिस्ती, पुताई-रंगाई, ट्रकों से सामान उतारने से लेकर रिक्शा खींचने तक का काम करते हैं। और मजदूर कहे जाने वाले लोग फैक्ट्रियों, में सिलाई, ऑफिसों में झाड़ू पोंछे आदि का काम करते हैं।

कुछ शहरी गरीब, गरीबों की जिंदगी के सामान बेचते हैं। जिसमें हरी सब्जी-फल से लेकर मिट्टी-प्लास्टिक के बरतन, कपड़े नये-पुराने, चाट-पकौड़े, मसाले आदि। चूंकि यहाँ सब कुछ थोड़ा सस्ता मिलता है इसलिए मध्यवर्गीय कोलोनियों में रहने वाली औरतें भी हरी-हरी सब्जी खरीदने का मोह नहीं छोड़ती। वे भी अपनी पड़ोसन से नजरें बचाती हुई कुछ साग-सब्जी ले ही लेती हैं।


जब से दिल्ली सरकार ने इन झोपड़ियों को हटाने का काम शुरू किया है तबसे ऐसा लगता है इनकी संख्या अचानक बढ़ गयी है। क्योंकि अब झुग्गियों में वो अपने सगे-संबधी के घर में पनाह लिए हुए हैं। आखिर कहां जाते मजदूर बेचारे। जाते तो कहां रहते? उनके बच्चे कहां पढ़ते? अपनों से कट कर वे जिंदगी से कैसे जुड़ते? ज्यादातर यहीं कॉलोनी-कॉलोनी घूम कर दाल रोटी के अवसर खंगालते रहे। अचानक कॉलानी में ग्रूप बनाकर घूमने वाली और घर का काम में हाथ बंटाने वाली, चौका बत्र्तन करने वाली, झाड़ू पोंछा करने वाली औरतों की बाढ़ सी आ गई है वे घर-घर जाकर काम के अवसर तलाशने लगीं। कई दफा उनकी आपस में झड़पे भी हो जाती।

दिल्ली के शहरी अमीर कह रहे हैं कि आजकल घरों में काम करने वालों के दाम बहुत बढ़ गये हैं। जबकि उनको यह कहते हुए स्वयं सुना जाता है कि आजकल मंहगाई बढ़ गयी है। तो सवाल यह उठता है कि मंहगाई क्या उन शहरी अमीरों के लिए बढ़ी है। क्या शहरी गरीब इससे अछूते हैं। सवाल का इंतजार है?

Sunday, October 19, 2008

अगले जनम मोहि गदहा बनइयो.... (हास्य व्यंग)



इंसान को यदि आज तक कुछ मुफ्त में मिलता आ रहा है तो वह ताज है गधे का। साधारण सी बात है आम बोलचाल में ही भी किसी न किसी को गधा कह दिया जाता है। ऐसा नहीं कि किसी गधे को ही गधा कहा जाता है (ज्यदादातर लोग सोचते

हैं कि बेवकूफ इंसानों के लिए ही गधा शब्द बना है) लेकिन मेरी समझ में तो विद्वान मनुष्य इस पदवी से पहले नवाजे जाते हैं। आज की बात मैं नहीं कह सकता लेकिन पुराने समय में अभी कोई 10 साल पहले स्कूल में यदि कोई पहली पदवी मिलती है तो वह है गधे की मिलती थी।

बहुधा लोग अपने आप को ही गधा कहने लगते हैं। ‘‘क्या है गधा हूं हैं’’ ऐसा कम ही लोग कहते हैं। ज्यादातर लोग कहते हैं यार मैं तो बस गधा हूं इधर ऑफिस में और उधर घर में। शादीशुदा इंसान को तो और भी गधा समझा गया है और यदि शादी नहीं करे तो भी गधा कहा गया है। लेकिन गधे को क्या उसकी शादी हो या न हो फिर भी वह गधा है।

वास्तविकता यह है कि ज्यादा काम करने वालों को गधा कहा जाता है। यार-दोस्त कहते हैं - क्या यार गधे ही तरह दिन भर काम करने रहते हो। और यह भी सत्य है कि यदि गलती से भी कोई गलत काम हो जाये तो भी कहा जाता है कि गधा है क्या इतना काम भी नहीं कर सकता। लोग तो यहां तक कह देते हैं गधे हो क्या देख कर काम नहीं कर सकते। मैं कहता हूं भाई इसमें देखने वाली तो कोई बात ही नही हो सकती, यह तो सभी को मालूम है कि गधा अंधा नहीं होता, तो आप किसे गधा कहेंगे गधा कहने वाले को या गधा कहे जाने वाले को। शायद ही किसी ने सुना होगा कि कामचोर इंसान को गधा कहा गया हो। मैं तो यह कहता हूं कि ज्यादा काम करने वाले को गधा कहा जाता है।

मौका परस्ती लोग तो गधे को बाप समझते ही हैं लेकिन ज्यादातर भारतीय नारियों ने अपने पतियों को गधे की पदवी दे रखी है। वे अपने बेटों से कहती हैं आने दो अपने गधे बाप को उल्लू कहीं का। ठीक से एक काम भी नहीं कर सकता। अब वो गधी तो हैं नहीं इसलिए वो ऐसा बोलती हैं। उनका मतलब होता है बाप गधा। बेटा उल्लू। मतलब साफ बेटा भी गधा और बाप भी उल्लू। बेटा यह सोचकर संतोष कर लेता है चलो मां ने कम से कम हमें गधा तो नहीं और बाप यह समझकर संतोष कर लेता है कि चलो कम से कम मैं उल्लू तो नहीं हूं। हां यह बात अलग है कि दोनों गधे हैं और दोनों उल्लू।

उनका किसी भी धर्म और मजहब से कोई लेना देना नही। उन सबका तो मालिक एक है और वह है इंसान। इधर इंसान को देखो हिन्दू भी कहता है सबका मालिक एक यानी भगवान। मुसलमान कहता है सबका मालिक एक यानी खुदा और ईसाई कहता है सबका मालिक एक यानी ईसा मसीह वगैरा...वगैरा॥ लेकिन गधा। मैं फिर एक बार कहूंगा कि गधा तो गधा है। गधे का किसी देश और भाषा से भी मतलब नहीं है हां यह जरूर कह सकते हैं कि भारत में गधे को गधा कहा जाता है वहीं विदेश में उसे दूसरे नामों से पुकारा जाता है पर क्या फर्क पड़ता है अनुवाद करने के बाद तो उसे भी गधा ही कहा जायेगा। संस्कृत का यह श्लोक शायद गधों के लिए ही लिखा गया होगा- ‘‘तु वसुधैव कुटुम्बकम’’।

अब यदि बात की जाये कि जानवरों में सबसे सीधा जानवर कौन है तो लोग यही कहगें कि गधा। कुत्ता कितना ही वफादार क्यों न हो मालिक को काट ही लेता है यह एक मुहावरा है और मुहावरा कभी गलत नहीं बना, ऐसा सयाने लोग कहते हैं। किसी भी दुष्ट इंसान के लिए गधे का प्रयोग नहीं किया गया उसे कुत्ता, सुअर, सांप, बिच्छू, सब कह सकते हैं लेकिन क्या गधा कहेंगे, जवाब आयेगा नहीं। फिर भी लोग कुत्ते की जगह गधे को नहीं पालते। बात यह है कि उनके मन में एक डर बैठ गया है कि यदि उस गधे को पाला तो इस गधे (पालने वाले) की घर से छुट्टी।

यह गधा ही है जो पुराने समय औरतों के सम्मान के लिए अपनी पीठ पर उन सभी अत्याचारियों और जुल्म ढाने वालों का बोझ उठाता आ रहा है। वरना क्या यह बात ठीक है कि एक सीधे सादे जानवर पर यह करना उचित है कि नहीं। शायद इसलिए बिठाते हैं कि गधा बेवकुफ है। मुझे यह बात आजतक नहीं समझ में आयी कि आखिर गधे पर ही क्यों, शेर पर या चीते पर क्यों नही। रेगिस्तान में होने वाली ऊंट दौड़ के लिए उसे रेगिस्तान भेज दो उस पापी को। इस बेचारे गधे पर क्यों। इतिहास गवाह है कि सदियों से लेकर आज तक किसी गधे ने किसी भी इंसान को कोई नुकसान पहुंचाया हो।

इस सबसे मुझे एक बात समझ में आ गयी कि इंसान से ज्यादा गधा बने रहने में अच्छाई है, क्योंकि जब मनुष्य योनि में जन्म लिया तब तो गधा कहा ही जाता है और यदि गधा बनेगें तो भी गधा ही कहा जायेगा।

प्रभु मेरी भक्ती यदि सच्ची।
बात करूं मै अच्छी-अच्छी।।
तो ऐसा दे दो वरदान।
गधा बनू मैं गधे समान।।

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