Wednesday, November 4, 2020

हमारे और तुम्हारे मोहल्ले में इतना सा ही अंतर है...

हमारे और तुम्हारे मोहल्ले में इतना सा ही अंतर है...

तुम्हारे मोहल्ले में  कबाड़ी बहुत हैं।
हमारे मोहल्ले में  जुगाड़ी  बहुत हैं।।

हमारे मोहल्ले में सबको ख़बर है-
तुम्हारे मोहल्ले में अनाड़ी बहुत हैं।

दुकानदार हमारे मोहल्ले का कहता-
तुम्हारे मोहल्ले पे उधारी बहुत है।।

ताश की गड्डी हमारे मोहल्ले की है।
तुम्हारे मोहल्ले में जुआरी बहुत हैं।।

तुम्हारे मोहल्ले में  बंदर-बंदरिया हैं।
हमारे  मोहल्ले में  मदारी  बहुत हैं।।

हमारे  मोहल्ले  में  चिंता  न फ़िक्र।
तुम्हारे मोहल्ले में दुनियादारी बहुत है।

हमारा मोहल्ला अब शोहदों से मुक्त।
तुम्हारे मोहल्ले में 'पटवारी' बहुत हैं।😊

#नज़र_नज़र_का_फ़ेर #शिशु

Tuesday, November 3, 2020

अब मेरी सुधि में तुम पथ पर दीप जलाये मत रखना ।।

अब मेरी सुधि में तुम पथ पर 
दीप जलाये मत रखना ।।

मैं सागर में खोयी नौका,
कब जाने किस छोर लगूँ ।
और तुम्हारा कुसुमित जीवन,
खिलकर फिर मुरझा जायेगा ।
माना, मन से मन के विनिमय
में, कुछ मोल नहीं चलता है ।
फिर तुम सा, मुझ जैसे को
पाकर भी क्या कुछ पायेगा ।।

यक्ष-प्रश्न जीवन के जितने 
सुलझा पाओ, सुलझा देना ।
पर इन प्रश्नों मे ही जीवन, 
तुम उलझाए मत रखना ।।

जिसके आगे भोर न होगी,
ऐसी कोई रात नहीं है ।
कौन घाव ऐसा जीवन का,
समय न जिसको भर पाया है ।।
जीवन खुशियों का मेला ही
नहीं, अपितु दुख भी सहने हैं ।
सबको मनचाहा मिल जाये,
यह संभव हो कब पाया है ।।

अपने हिस्से के सारे सुख,
जितने चुन पाओ चुन लेना ।
लेकिन मन में गिरह लगाकर,
दर्द पराये मत रखना ।।

-चन्द्रेश शेखर

Saturday, October 31, 2020

नज़्म

थक  गया  हूँ  मैं  पता कर, पता कर।
'अक़्ल  गई  चरने'  हमको सताकर।।

तेरे मुहल्ले में यदि सीसीटीवी लगे हैं,
तो  मेरे  मुहल्ले में आकर  ख़ता कर!

हल्की-सी-आहट से काँप जाता हूँ मैं,
दरवाज़ा-खटखटाना दोस्त बताकर!

आती  हैं  हिचकियाँ, कुछ रहम कर,
इतना  भी  न  मिरा  नाम  रटा  कर।

जाले  हटा  दिए हैं  सियासत के मैनें,
मेरी पोस्ट पढ़ो तुम 'चश्मा हटा कर'!

#नज़र_नज़र_का_फ़ेर #शिशु

Tuesday, September 22, 2020

हलकान!


जुमले -  वादे  -  झूठों  से।
प्रजातंत्र - की - लूटों   से।।
काँटों  से  बचना  आसान,
मुश्किल लेकिन -ठूठों  से।।

छुट्टा साँड़ समझ में आता,
गाय छुटी क्यों - खूँटों  से?
हाल  बराबर  लेता  रहता,
खेतिहर अपने- रूठों  से।

निर्दयता,  बर्बरता  की  बू-
आती  क्यों  है  बूटों  से ?
एसपी साहब भी हलकान!
नए - नए - रंग - रूटों  से...

#शिशु #नज़र_नज़र_का_फ़ेर

Tuesday, August 11, 2020

बेमतलब करते हो याद!दिनभर आती आहट है।

अंदर अबतक राहत है!
बाहर  पर  घबराहट है।

बेमतलब करते हो याद!
दिनभर आती आहट है।

मेरे मरने पर इतना दुःख!
दीये  जले,  सजावट  है।

सच में, दुःख के आँसू थे!
छोड़ो  अजी  बनावट  है।

यारों तक ने जश्न  मनाया,
इस हदतक कडुआहट है!

#नज़र_नज़र_का_फ़ेर #शिशु #राहतइन्दौरी

Friday, August 7, 2020

व्यर्थ क्या, अव्यर्थ क्या है?

व्यर्थ क्या, अव्यर्थ क्या है?

क्यों जिए,
क्यों मरे,
नैन थे,
भरे-भरे...
बात जब
पता चली,
रुठकर
ख़ता चली-
पूछने सवाल सबसे/
ज़िंदगी का अर्थ क्या है? 
व्यर्थ क्या, अव्यर्थ क्या है...

खोलकर लब बोले दें, अकेले ही ठीक हैं।

यदि  जुआँ  संघर्ष  का  खेले  ही  ठीक  हैं-
और दुःख, तकलीफ़ यदि झेले ही ठीक हैं।

साथ  में  रहना  यदि  तुमको  नहीं  मंजूर,
खोलकर लब बोले दें, अकेले  ही ठीक हैं।

'भीड़' कहकर मत गरीबों का करें अपमान,
मॉल  छोड़ो,  आज  भी  मेले  ही  ठीक  हैं।

कर्ज़ लेकर ज़िंदगी में मौजमस्ती तुम करो!
किन्तु  अपनी  जेब  में  धेले  ही  ठीक  हैं।

कार  वालों  से  उलझते  क्यों  दरोगा  जी?
सब्जियाँ,  फ़लफ्रूट  के  ठेले  ही  ठीक  हैं।

©नज़र_नज़र_का_फ़ेर #शिशु

Saturday, July 11, 2020

जब एक गदहिया कुम्हार ने निरुत्तर कर दिया था-

जब एक गदहिया कुम्हार ने निरुत्तर कर दिया था-

तो इसमे बुरा कहाँ सरकार
पढ़ा जो सोलह दूनी आठ।
जमाता हूँ गदगे पर ठाठ...

शहर में ख़ाक कमाते हो,
गाँव तो खाली आते  हो।
बिना  मूँछों  के  मुँहचोट्टा,
नज़र तक जाली आते हो।।
रात में पीकर मैं अद्धा-
खुले में सोता डाल के खाट।
पढ़ा जो सोलह दूनी आठ।
जमाता हूँ गदहे पर ठाठ...

शहर में प्रतिदिन ही बेचैन-
बॉस के सुनते कड़वे बैन।
मोहमाया में पड़कर आप-
न लेते पलभर तक का चैन।।
खरीदा तो क्या है गद्दा-
नींद के लिए चाहिए टाट।
पढ़ा जो सोलह दूनी आठ।
जमाता हूँ गदहे पर ठाठ...

साथ में क्या ले जाएंगें?
कमाएंगे, क्या पाएंगें?
अधिक से अधिक यही होगा-
दाल रोटी ही खाएंगें।
बुरा तुम मानो पर दद्दा-
अंत में उठ जाती है हाट।
तो इसमे बुरा कहाँ सरकार
पढ़ा जो सोलह दूनी आठ।
जमाता हूँ गदहे पर ठाठ।।

ट्रक शायरी-1


भाँग,  धतूरा, गाँजा  है, माचिस,  बीड़ी-बंडल भी।
चिलम, जटाएँ, डमरू है, कर में लिए कमंडल भी।।
गंगाजल की  चाहत में  क्यूँ  होते  हलकान  'शिशु'।
कोरोना का काल भयानक,  घूम रहा भूमंडल भी।।

ट्रक शायरी-2
कार  चलना  सीख  रहा है,  स्कूटी तो  सीख गया।
संभल न पाता लेकिन साइकिल तक का हैंडल भी।
मामूली  ख़रोंच थी लेकिन, टांकें  पंद्रह  बीस लगे।
साइकिल सीख रहा था जब टूटी चप्पल सैंडल भी।।

पाला पड़ा गपोड़ों से।डर लग रहा थपेड़ों से।।

पाला  पड़ा  गपोड़ों  से।
डर  लग रहा थपेड़ों  से।।

अर्थव्यवस्था  पटरी  पर
आई  चाय  पकौड़ों  से।

बच्चे बिलखें कलुआ के,
राहत   बँटी  करोड़ों  से।

जीत गए फिर से खच्चर,
शर्त  लगाकर  घोड़ों  से।

जो  ठोकर  के  आदी  हैं,
उनको क्या डर रोड़ों  से।

अँग्रेजी सीख रहा हूँ-😊



बॉरोइंग  ड्यूज़  रखता   हूँ।
ज़ुबाँ    एब्यूज़   रखता   हूँ।।
 
वर्क  पेंडिंग  रहे  कुछ  दिन,
ख़ुद को कन्फ्यूज़ रखता हूँ।

माइजर    संग   मक्खीचूस,
बर्फ़  तक  यूज्ड  रखता  हूँ।

कहीं  ज़्यादा  न  बिल आए,
बल्ब  भी  फ़्यूज  रखता  हूँ।

ख़बर  झूठी  न  दिखला  तू,
न्यूज़  की  न्यूज़  रखता  हूँ।

©शिशु #नज़र_नज़र_का_फ़ेर

शब्दार्थ–
Borrowing: उधारी
Dues: देय राशि न देना
Abuse: ग़ाली गलौच
News: ख़बर
Pending: टालना
Confuse: भ्रम में रहना
Miser: कंजूस
Used: पहले से प्रयोग की गई
Fuse: बेकार

Wednesday, June 17, 2020

क्या होगा भविष्य भारत का स्वयं लेखनी पड़ी हो-राम सिंह 'प्रेमी'

----------एक गीत----------

मल्लाहों की मक्कारी से नाव भँवर में डूब रही जब,
क्या होगा भविष्य भारत का स्वयं लेखनी पड़ी हो।।टेक।।

पदलिप्सा की मोह निशा में शासन तंत्र हुआ जब अंधा,
लोकतंत्र के मूल्यों की हत्या करना ही हो जब धंधा, 
शांत प्रदर्शन सत्याग्रह पर भी जब दमन चक्र हो चलता,
आतंकी दानवता का शिशु जब अपहरण गर्भ में पलता,
हिंसा भ्रष्टाचार दलाली शासन के पर्याय बने जब,
संविधान का दम घुटता जब गिनता अपनी मौत घड़ी हो--

शासन ने ही वोटों के हित हिन्दू-मुस्लिम को भड़काया,
तुष्टिकरण के ही चक्कर में मन्दिर-मस्जिद विष फैलाया,
पंथ सम्प्रदायों के पीछे जाता मानव धर्म ढकेला,
कूटनीति के पाँसों में जब राष्ट्र धर्म बनता सौतेला,
अपनों के ही हाथों से जब अपनों की ही गर्दन कटती,
जब मानव-मूल्यों की हत्या करने की बेअंत कड़ी हो-----

सदनों में आपस में ही जब करते सभी घिनौनी बातें,
और वहाँ जब बात बात पर प्रचलन में हों जूता लातें,
राष्ट्र नायकों का जनहित से हो जाता है जब उच्चाटन,
बिना बनी ही सड़कों का जब मंत्री जी करते उद्घाटन,
मर्यादा जब बनी भिखारिन सरकारी योजना खोखली,
ठौर ठौर जब राजनीति में अपराधों की लगी झड़ी हो-----

राष्ट्र समस्याओं की उलझन पहले जैसी बनी हुयी है,
तालमेल के रंग बाहरी घात भीतरी घनी हुयी है,
जाति धर्म दल प्रान्त भेद की शाल विषैली तनी हुयी है,
राष्ट्र धर्म में सम्प्रदाय की तुच्छ भावना सनी हुयी है,
जब संकुचित स्वार्थ की आँधी नैतिकता के मूल्य ढहा दे,
प्रजातन्त्र की लाश घिनौनी जब कुर्सी के तले गड़ी हो----

झोपड़ियों में सदा मोहर्रम सदनों में जब दीवाली हो,
शाख शाख पर बैठे उल्लू सूख रही जब हर डाली हो,
राजनीति के पण्डे ही जब सदाचार की कब्र बना दें,
मानवता, ईमान,न्याय की लाशें जब उसमें दफ़ना दें,
जनता का जनसेवक पर से 'प्रेमी'जब विश्वास हट गया,
जब शासन की काया रोगी राजनीति की देह सड़ी हो-----

क्या होगा भविष्य भारत का स्वयं लेखनी मौन पड़ी हो,
मल्लाहों की मक्कारी से नाव भँवर में डूब रही जब,
क्या होगा भविष्य भारत का स्वयं लेखनी मौन पड़ी हो।।

Saturday, May 9, 2020

सब रिश्तों से बढ़कर तुम,रिश्तों की पुरवाई माँ...!

सब रिश्तों से बढ़कर तुम,
रिश्तों की पुरवाई माँ...!

तुमसे खेत, तुम किसान माँ।
मेरे घर का राष्ट्रगान माँ।।
सुख-समृद्धि सब तुमसे है,
छप्पर-छानी और मकान माँ।
मेरा पहला विद्यालय हो,  
तुम ही विद्यामाई माँ...!

सब रिश्तों से बढ़कर तुम,
रिश्तों की पुरवाई माँ...!

सुर, लय, राग, तराना माँ।
भजन, कहानी, गाना माँ।।
त्यौहारों की रौनक तुमसे,
भोजन, पानी, दाना माँ।।
पाककला में सबसे माहिर,
लगता तुम हलवाई माँ...!

सब रिश्तों से बढ़कर तुम,
रिश्तों की पुरवाई माँ...!

#शिशु #नज़र_नज़र_का_फ़ेर #माँ

Monday, May 4, 2020

घंटा


आज एक पुरानी याद आ गई। हमारे समय प्राइमरी पाठशाला कुरसठ बुजुर्ग में पढ़ने वाले हर बच्चे की ये इच्छा होती थी कि स्कूल बंद होने की घंटी वे बजाएं। हर बच्चा समय से पहले तैयार रहता था, लेकिन समस्या ये थी कि तब घड़ी किसी-किसी अध्यापक के पास होती थी। आदरणीय मुरारीलाल दीक्षित जी हमारे प्रधानाचार्य थे। उनके हाथ में पीतल की एक घड़ी बंधी रहती थी। सफ़ेद ढीला कुर्ता पायजामा, ऐनक और वह पीतल की घड़ी उनके व्यक्तित्व की शोभा बढ़ाती थी। उनके अलावा उस स्कूल में कुल पाँच अन्य अद्यापक भी थे, श्री सोबरन लाल जी, श्री अहिबरन जी, श्री पांडेय जी, श्री राठौर जी (जलिहापुर वाले) और श्री मूलचंद जी।

हमारी क्लास चबूतरे के नीचे नीम के पेड़ के नीचे लगती थी और पाँचवी कक्षा के बच्चों को विद्यालय के पक्के कमरे में बिठाया जाता था। वह घण्टी भी इसी कक्षा की शोभा बढाती थी। इसलिए उसे बजाने के ज़्यादा मौके पाँचवी कक्षा के बच्चों को ही मिलता था। लेकिन सर्दी के दिनों में उनकी क्लास भी चबूतरे पर लगती तब अन्य क्लास के बच्चों को भी मौका मिल जाता। 

हमारी कक्षा के बच्चों ने घड़ी से मिलान करके दीवाल की परछाईं को एक निशान से सेट कर लिया था फिर क्या जैसे ही परछाई वहां आती उससे पहले ही बच्चे वहां जमा हो जाते और छीनाझपटी करके घंटी बजा देते। एक दिन घंटा समय से पहले ही बज गया। जैसे ही घंटी बजी सभी बच्चे धमाचौकड़ी मचाते हुए भाग खड़े हुए। बाद में पता चला कि दिन छोटे बड़े के चक्कर में परछाई ने अपना समय बदल दिया था...

आज हमारे मुहल्ले के एक शरारती लड़के ने भी यही कारस्तानी कर दी और साढ़े चार बजे ही थाली पीट दी, फिर क्या सभी लोग उसके सुर में सुन मिलाने लगे, किसी ने भी घड़ी देखने की जहमत न उठाई जबकि अब सबके घर में घड़ी, मोबाइल है तब।

अभी अभी ख़बर पढ़ी है कि, कई जगह कुछ देशभक्तों ने घण्टा बजाने की प्रशंसा में रैली निकाली है, सब गुड़ गोबर कर दिया। क्या कहें, हिंदुस्तान का आदमी घंटा नहीं सुधारने वाला मोदी जी कितनी ही घंटी बजवा लें!

#कोरोना #को_रोना
...जैसा कि, मैं पहले लिख चुका, जब मैं दिल्ली कमाने आया तो चिल्ला गाँव मेरा पहला ठिकाना बना। इस गाँव का कीचड़ देखकर ऐसा लगता था जैसे कि बांसा गांव, जिला हरदोई में आ गया हूँ। क्योंकि कीचड़ के मामले में बांसा पहले और कुरसठ दूसरे नाम पर था। हालांकि कुरसठ आज साफ़ सफाई और सड़क के मामले में अव्वल है, लेकिन बांसा में अभी और भी सुधार की गुंजाइश है...तो चिल्ला गाँव की गंदगी देखकर मन होता था कि वापस मेरठ लौट जाऊँ...

मेरा ऑफिस समाचार अपार्टमेंट के पास शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में फर्स्ट फ्लोर पर था। घर से ऑफिस जाते समय मैं हमेशा पार्क वाली राह लेता था, जहाँ उस रिहाइशी कॉलोनी में रहने वाले पत्रकार, अभिनेता आदि पसीना बहाते नज़र आते। हाफ पैंट और टी-शर्ट में पालतू कुत्ते के साथ दौड़ लगाते लोगों को देखता तो बड़ा कौतूहल होता। तब फिजिकल फिटनेस के बारे में इतना ज्ञान न था। कभी कभी जवान लडकियां बिना दुपट्टे के जब दौड़ लगाती दिखतीं तो शर्म के मारे बुरा हाल हो जाता लेकिन अगले दिन उन्हें देखने की उत्सुकता जाग्रत हो जाती। हालांकि पैसे वाले लोग उस दूरी को तय करने के लिए रिक्शा करते थे बावजूद मैं शॉर्टकट लेकर आफिस जाता। समय का पाबंद होने की वजह से मैं आफिस वाली जगह पहले ही पहुँच जाता और वहाँ आसपास की दुकान पर काम करते हुए लड़कों, एटीएम में ड्यूटी करते हुए गार्ड आदि को देखता, यकीन मानिए उनके कार्य में बड़ी ईमानदारी दिखती। किराने की दुकान में काम करने वाले गाँव से आए हुए लड़के जीतोड़ मेहनत करते। कोई झाड़ू लगाता, कोई सामान की सफाई करता, काम की लगन या कहें कि मालिक का डर वे हमेशा काम में तल्लीन दिखते। एटीएम के गार्ड मुस्तैदी से दरवाजे पर खड़े रहते, जैसे ही कोई पैसे निकालने आता वे उसे सलूट मारते और चेहरे पर मुस्कराहट की चाशनी बिखेर देते। एटीएम मशीन में घुसने वाला उसे इग्नोर करता हुआ अंदर जाता और ढेर सारे नए नए नोट से साथ बाहर आता। तब एटीएम में नए नोट ही लगाए जाते थे। मेरे पास एटीएम न होने का मलाल दिखाई पड़ता। 

इतना सब देखने के बावजूद भी समय से पहले ही आफिस पहुंच जाता। काम से फुर्सत न मिलती। हिंदी टाइपिंग, आर्टिकल, धारावाहिक, फ़िल्म की स्क्रिप्ट, किताबें, लेटर, अखबार की कंपोज़िंग, विज्ञापनों की डिज़ाइन, कवर पेज़ की डिजाइन आदि का ढेर लगा रहता। अंग्रेजी में हाथ कमजोर होने के कारण भी अंग्रेजी में अखबार निकालने वाले गुप्ता जी मेरा खूब सर खाते। अख़बार में आर्टिकल छपवाने वाले लोग आते, कोई स्कैनिंग करवाता, कोई विदेश में अपने लड़के को मेल लिखवाता। आफिस में कभी कभी जवान लड़के लड़कियां आकर सर्फिंग करते और याहू चैट में चूमाचाटी वाले मैसेज भेजते। पूरे दिन काम रहता और सांस लेने की फुर्सत न मिलती। जब हमारे दादा-दादी की उम्र के बुजुर्ग को फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते सुनता दाँतों तले उंगली दबा लेता। ये इलाका काफी संपन्न और पढ़े लिखे लोगों का था। 

शाम को जब मैं आफिस से निकलता मार्किट में रहीस लड़के लड़कियां कोक, पेप्सी बर्गर आदि खा पी रहे होते। वे विदेश की तरह कमर में हाथ डाले या एक दूसरे का हाथ पकड़कर मार्किट के चबूतरे पर बैठे रहते। कभी कभी अंधेरे का फायदा उठाकर कुछ लोगों को चूमाचाटी करते हुए जब देखता बहुत अजीब लगता। दवा की दुकान में लोगों की भीड़भाड़ देखकर लगता जैसे यहाँ के लोग बहुत बीमार हैं...

कमरे पर जाने के लिए कभी कभी कीचड़ से बचने के लिए अलग अलग रास्ते चुनता लेकिन निराशा हाथ लगती। जैसे ही गांव में घुसता लगता दिल्ली में नहीं बल्कि गांव से भी बद्तर जगह पर रहने आ गया। चिल्ला छोड़े बरसों हो गए लेकिन वह गांव आज भी जेहन में बसा हुआ है।
उल्लुओं  ने  चमन  को  रौंद डाला  है।
चमन  चमगादड़ों  का  बोलबाला  है।।

दीप  हमनें  जलाए  रोशनी  ख़ातिर।
पटाखों से  हुआ  लेकिन  उजाला है।।

मेरी कश्ती भवँर में अब फंसेगी क्या?
नदी है नहीं! वहाँ  तो  एक  नाला है।।

दोष मुझमें  नज़र आने  लगे हैं अब।
बुराई  को स्वयं  में क्यों  खंगाला है?

#नज़र_नज़र_का_फ़ेर #शिशु

तामून, 1953-1960 के दौरान की एक दास्तान*


उस दिन गाँव में तामून (चूहों के मरने के बाद एक बीमारी, इसमें मनुष्य के गले में गाँठ बन जाती थी) से ग्रसित होकर बैजनाथ (बैजू बाबा) के परिवार में कुल पाँच मौत एक ही दिन में हुईं थीं। जिसमें उनके पिता श्री देवीदीन, चाचा लालचंद और बंसी के अलावा उनके बड़े भाई तथा एक बुजुर्ग महिला की मौत हुई थी। पूरा  गाँव सदमें में था। तब मातम और जश्न पूरा गांव मिलकर मनाता था। ये दास्तान तबकी है...

आज़ादी के बाद भारत में जश्न का माहौल था। खेतीबाड़ी अपने ढ़र्रे पर वापस आ रही थी। अंग्रेजी शासन के लगान से किसान उबरने लगे थे कि सन 1953 में आई इस त्रासदी से हज़ारों लोग मरने लगे। गांव के गांव उजड़ने लगे। हमारे गांव में भी लोगों ने अपनी अपनी झोपड़ी गांव से बाहर खेत या बाग़ में बनाई। गांव में सन्नाटा पसरा रहता था। तब पैसे वालों के घर भी कच्ची मिट्टी के होते थे। गाँव में लोग ताला कुलुप डालकर बाहर रहने लगे। वहीं किसान रहते और वहीं उनके जानवर।

कुम्हारों के आंवा (मिट्टी के बर्तन पकाने वाली भट्टी) और चाक गांव से बाहर पेड़ के नीचे स्थापित थे। लोगों में चूहों से इतना भय था कि उन्हें देखते ही बीमारी का भय हो जाता। यदि किसी के घर में कोई चूहा मृत अवस्था में मिल जाता वे भय से ग्रसित हो जाते। तब मरना और जीना नियति के हाथ में था जिसे लोग भाग्यशाली होने और श्रापित होने से परिभाषित करते थे। 

त्रासदी के करीब 10 साल बाद भी किसानों की हालत बहुत ही दयनीय रही, घोर दरिद्रता, ग़रीबी में लोगों के दिन बीते। इतना सब होने के बावजूद भी गाँव में कोई भूख से न मरा। बड़े काश्तकारों ने गरीब और बटाई खेत करने वालों की खूब मदद की। उनसे अनाज में हिस्सा न लिया। खूब अनाज दान किया गया। वैर भाव सब खत्म हो गए। इंसानियत और भाई चारे की ऐसी मिशाल आजतक न देखी गई...

*आज पिताजी से फोन पर हुई बातचीत पर आधारित।

संस्मरण: अच्छे लोग।



आज से क़रीब बीस साल पहले सन 2000 में ग्रेड्यूएशन के आखिरी साल परीक्षा देने से पहले ही मैं कमाने के उद्देश्य से मेरठ आ गया था। घर से किराए के लिए पैसे मिले थे। अनेकों महीनों अपने चचेरे भाई के घर रहा, उन बेचारों ने मुझे रहना और खाना दिया। फ़िर खुद्दारी के चलते उनका घर छोड़ दिया और निकल पड़ा अकेले चुनौतियों का सामना करने। टाइपिंग पहले ही सीख गया था, इसलिए टाइपिंग की जॉब खोजना शुरू किया लेकिन निराशा हाथ लगती। कोई कोई काम करवा लेता और पैसे न देता। सोतीगंज में एक चैम्बर में वकील का दफ़्तर था, वह बड़ा ही अय्याश था, चैम्बर बंद करके अनर्गल हरकतें करता और मैं उसके इंतजार में बाहर बैठा रहता। हालाँकि मैं वहां शाम के 6 बजे ही पहुंच जाता लेकिन वह डिक्टेशन देना 8 बजे के बाद शुरू करता जब उसकी असिस्टेंट चली जाती, इस तरह रात के 10 बज जाते। महीने का मेहनताना 300 रुपए था। सुबह पाँच बजे से ट्यूशन पढ़ता तब जाकर बड़ी मुश्किल से कमरे का 400 रुपए किराया और खाना खर्चा चल पाता। 

...फिर जिंदगी में आए राहुल भैया, राजीव और संजीव भैया! उन्होंने बहुत कुछ किया मेरे लिए, मेरा एडमिशन कंप्यूटर सेंटर में करवाया, तथा कम्प्यूटर की पढ़ाई के दौरान ही राजू भैया ने मुझे चौधरी सर्विसेस में काम पर लगवा दिया। यह एक कॉमर्शियल सेंटर था, जहाँ, फोटोकॉपी, एसटीडी आईएसडी, इलेक्ट्रॉनिक टायपिंग, कंप्यूटर पर डिजाइनिंग होती थी। दुकान काफी छोटी थी लेकिन दुकानदार का दिल बहुत बड़ा। चौधरी साहब उसके मालिक थे, वे यूको बैंक से रिटायरमेंट जनरल मैनेजर थे। उनके पूर्वज हमारे जिले से ही थे और मेरठ के खतौली जिले में आकर बस गए थे। उनका गांव मल्लावां के क़रीब नहर के किनारे वाला गांव था ऐसा उन्हें याद था। चैधरी सरनेम लगाते लेकिन वे हैं कुर्मी।

पहले दिन ही उन्हें मैं पसंद आ गया। मेरा काम था फ़ोटोकॉपी करना, फोन करने वालों के नंबर नोट करना, फैक्स करना, फोन औऱ बिजली का बिल जमा करना... आदि आदि और तनख्वाह 600 रुपये तय हुई। हिंदी और अंग्रेजी दोनों में उन्हें जबरदस्त ज्ञान था। लोग उनसे लेटर लिखवाकर फिर टाइपिंग करवाते और फाइनल प्रिंट निकलवाने से पहले उनसे ही प्रूफ रिडिंग करवाते। 

दुकान सुबह 10 बजे खुल जाती जबकि मेरी कंप्यूटर क्लासेज 7 से 11 तक चलती। और मैं 11.30 वहां पहुंच ही जाता तथा रात के 9 बजे तक वहीं रहता।  जिस दिन कम्प्यूटर सेंटर की छुट्टी होती उस दिन मैं जल्दी ही दुकान पर पहुंच जाता तब चौधरी साहब दुकान की साफ सफाई करते हुए देखता। वे सफाई प्रिय थे और दुकान की सफ़ाई स्वयं ही करते। लेकिन उन्हें सफाई करते हुए देखना मुझे अच्छा न लगता और मैं उनका हाथ बटाता। वे मना करते लेकिन मैं जबर्दस्ती झाड़ू छीन लेता और सफाई करता तब तक वे डस्टिंग करते। फिर 10.30 बजे तक वहां काम करने वाले सभी आ जाते। खूब काम रहता, लोगों की भीड़ रहती। लेकिन कोई भी वहां से निराश न लौटता। एक छोटी सी दुकान में हम 4 लोग काम करते, मैं फोटोकॉपी देखता, चौधरी साहब हिसाब देखते, कम्प्यूटर ऑपरेटर कंप्यूटर पर कार्य करता। एलेक्ट्रोनिक टायपिंग के लिए कभी कभी इनकी छोटी बेटी जो एमबीए की पढ़ाई कर रही थीं वे भी काम करतीं। किसी भी कस्टमर को बिना चाय पिलाए न भेजते। हमारे यहां से चाय वाले की खूब कमाई होती। दोपहर में प्रतिदिन हम सोतीगंज वाले राधे की चाट खाते। वह उन्हें जनता था और मुझे भी। जैसे ही मैं वहाँ जाता आर्डर तैयार कर देता। हमारी दुकान में जिस दिन ज़्यादा काम होता हम शाम को बेगमपुल से पकौड़ी लेकर आते।

जब दोपहर में कंप्यूटर ऑपरेटर खाना खाने घर जाता तब मुझे कम्प्यूटर पर काम करने के लिए प्रोत्साहित करते। बैठकर डिजाइनिंग करवाते। एक एक टूल का उन्हें ज्ञान था मैं जो भी बनाता उसकी प्रसंसा करते। कभी कभी डाँट भी देते। धीरे धीरे मैं कम्प्यूटर पर काम करना सीख गया। और जब कम्प्यूटर ऑपरेटर काम छोड़कर चला गया तब वो जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। 

मैंने वहाँ बहुत कुछ सीखा, उन्होंने मेरा बैंक में खाता खुलवाया। पैसे सेव करने के तरीके समझाए और सबसे इंसान बनने में मदद की। मैं वहां करीब 2 साल काम किया। जब डिप्लोमा खत्म हुआ तब मैं ही दुकान खोलने लगा, चाभी घर से लेकर आता, साफ़ सफाई करता। जनरेटर में डीजल आदि चेक करता। पेपर के स्टॉक का हिसाब लगाता। लेखा जोखा रखता। हिसाब किताब चेक करता। जनरेटर के लिए डीज़ल लाता। पेपर मार्किट से पेपर और स्टेशनरी लाता। अब मैं वहाँ का वर्कर न होकर उस दुकान का हिस्सा था। जब वे आराम करने के लिए घर चले जाते सारा काम मैं देखता। इतवार को छुट्टी रहती लेकिन घर के काम करने के बाद दोपहर से दुकान खोल देता उस दिन के वे एक्स्ट्रा पैसे देते। हिसाब किताब के बहुत पक्के। महीने के पहले ही तनख्वाह दे देते।

फिर जब मेरी जॉब दिल्ली में लगी वहाँ से जॉब छोड़ने का मन न करता। तीन चार दिन बिना बताए ही गुजर गए रोज सोचता आज शाम को बताऊँगा लेकिन हिम्मत न होती। आख़िर एक दिन शाम को जब मैंने बताया वे दुखी हो गए। कुछ देर के लिए हम शांत हो गए। मेरी आँखों में आँसू आ गए, उनकी आंखें भी गीली हो गईं। काफी देर बाद खुश होकर उन्होनें चाय का आर्डर दिया और मेरे लिए शुभकामनाएं दीं। मेरठ में मेरा आखिरी वेतन 2500 रुपए था। दो साल में इतनी तरक़्क़ी और कहीं न हुई।

काफ़ी दिनों बाद मैं परिवार के साथ मेरठ उनसे मिलने गया। नज़र कमज़ोर हो गई है। लेकिन मुझे देखकर बांहों में भर लिया हम लोग काफ़ी देर तक वहाँ रहे। चलते समय पत्नी और बच्चे को पैसे दिए। बड़ा अपनापन लगा। ख़ूब बातें की। आने का मन न कर रहा था। मेरे जीवन में उनके जैसे अनेकों नेकदिल और जिंदादिल इंसान आए हैं। भगवान चैधरी साहब को दीर्घायु दे...💐

कारिंदा


ज़मीदारी का जमाना था। उस समय ज़मीदार के यहाँ हाँ हजूरी के लिए हरकारा या कारिंदा होता था, जो सताई जाने वाली प्रजा को ज़मीदार के इशारे पर बुलाकर लाती थी और यदि कोई काम न हुआ तो वे हुजूर के कान भरते। ऐसे ही किसी गाँव में एक ज़मीदार साहब के यहाँ एक कारिंदा था। वह मालिक की ख़ूब हाँ में हाँ मिलाता और उनकी झूठी तारीफ़ करके और अपना उल्लू सीधा करता। 

एक साल उस गाँव में अनाज और चारे का भयंकर अकाल पड़ा। लोग त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगे। बड़े से बड़े काश्तकारों के यहाँ जानवरों के लिए चारा न रहा। लेकिन ज़मीदार को कोई फ़िक्र न थी उनके यहाँ अनाज और चारे का उचित प्रबंध था।ज़मीदार ठहरे ज़मीदार उन्हें भला क्या फ़र्क पड़ता। लेकिन कारिंदा भी हलकान था। माघ, पूस का महीना था, कारिंदा ज़मीदार के चबूतरे पर जमा करब (जानवरों के लिए एक प्रकार का चारा तथा इसी की भुट्टे से ज्वार भी निकलती है) को उठाकर प्रतिदिन ले जाता और अपने जानवरों के लिए चारे का प्रबंध करता। इस प्रकार करब दिनोंदिन कम होने लगी। एक दिन ज़मीदार की नज़र पड़ी और उन्होनें कारिंदे से आखिर पूछ ही लिया, 'ये करब कम कैसे हो रही है।'

इससे पहले मालिक आगे और कुछ कहते कारिंदे ने तपाक से उत्तर दिया, 'मालिक करब कुत्ते उठाकर ले जा रहे हैं और वही खा रहे हैं।' 

अच्छा, इन ज़मीदार महाशय ने न कभी खेत देखा और न ही खलिहान! इसलिए कारिंदें ने जो भी कहा उसे उस समय के लिए मान लिया। बात आई और गई...

एक दिन ज़मीदार साहब जब कारिंदे के साथ घूमने निकले तो देखा क्या कि, कुछ कुत्ते करब के ढेर में घुसकर सीसी खेल रहे हैं (इस खेल में 5 से 6 कुत्ते मिलकर एक दूसरे को दौड़ाते हैं, गुर्राते हैं, लेकिन एक दूसरे को काटते नहीं, केवल मौज मस्ती करते हैं)। कुत्ते करब को उठाकर धमाचौकड़ी कर रहे थे। कारिंदे ने ज़मीदार की तरफ इशारा करते हुए कहा, 'देखा मालिक कुत्ते करब खा रहे हैं।' 

मालिक ने हाँ में हाँ मिलाया, और कारिंदे को उचित इनाम दिया।

आजकल इधर सरकार में भी कुछ कारिंदें हैं, वे भी हुजूर को खुश करने के लिए हाँ हजूरी में व्यस्त हैं...😊

...कारिंदा, पार्ट-2


कारिंदा ज़मीदार का इतना अधिक भक्त था कि, कई दफ़े तो ज़मीदार साहब के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। 

हुआ ये कि, एक शाम ज़मीदार ने अपनी बैठक से ही जोर से आवाज देकर उसे पुकारा। वह भागा-भागा, गिरते-पड़ते, जैसे-तैसे बैठक में पहुँचा।

ज़मीदार ने पूछा, 'क्या कर रहे थे?' 

कारिंदा बोला, 'मालिक, मैं तो कुंवें से पानी भर रहा था'। 

'फिर इतनी जल्दी कैसे आ गया?' ज़मीदार ने पूछा। 

कारिंदें का उत्तर सुनकर ज़मीदार फूले न समाए और उसे नक़द पुरस्कार से नवाज़ा।

कारण जानकर आपको चक्कर आ जाएगा- हुआ ये कि, कारिंदा ज़मीदार को ख़ुश करने के चक्कर में उनका ही गगरा (पीतल का घड़ा) रस्सी सहित कुंवें में फेंक कर उनकी बात जो सुनने आ गया था।

...उसी तरह प्रजातांत्रिक सरकारों में भी मंत्रीजी जैसे ज़मीदार और अफ़सर जैसे कारिंदें अपना और उनका नाम रोशन करने में व्यस्त हैं।

इति कथा समाप्तम!😊

तामून, 1953-1960 की दास्तान, भाग-2


...हाँ तो हुआ ये जब तामून आया गाँव के ज़्यादातर निवासी गांव छोड़कर बाग या हार बाहर (खेत खलिहानों) में झोपड़ी डालकर रहने लगे। लेकिन कुछ महारथी गाँव में ही डटे रहे। उनपर ईश्वर की कृपा कहें या बीमारियों से उनकी लड़ने की क्षमता (इम्युनिटी) बाल बांका तक न हुआ। और इन्हीं में से कुछ नास्तिक या कहें कि ईश्वर से वरदान प्राप्त लोग घरों में चोरी-चकारी करने लगे, यदि किसी घर में कुछ न मिला तो दरवाजे, खिडकियाँ ही उखाड़ लाते, और यदि किसान के घर में घुसते जहाँ दरवाजे, खिड़की न मिलते तो सेरावनि (खेत की जुताई करने के बाद मिट्टी को बराबर करने वाली मजबूत और सीधी सपाट लकड़ी), हल, जुंआ, गेरावनि (रस्सी) आदि आदि...ही उठा ले जाते।

एक बार गांव में सबसे अच्छी बनी चौपाल की दीवाल में बने खूबसूरत हाथियों को लाठियों से ही फोड़ डाला और अफवाह ये फैला दी कि, देखो आज रात में 12 बजे दो हाथी आपस में लड़ गए। फिर क्या हुआ-जो भोलेभाले लोग थे उन्होंने तो विश्वास भी कर लिया। लेकिन बाद में ऐसी कारस्तानी करने वालों का भंडाफोड़ हुआ। 

हैरानी की बात तो ये है कि, उन्हें न कोई पाप लगा, न ही कोई रोग या गंभीर बीमारी हुई और तो और उन्हें कोई बद्दुआ तक न लगी, बल्कि गाँव के लोगों की बातों पर विश्वास करें तो, ऐसे लोगों की मौत क्या शानदार तरीके से हुई! अच्छे-खासे, बैठे-बिठाए ही स्वर्गीय हो गए...

ऐसे ही कोरोना महामारी के बाद भी अच्छी और बुरी कहानियाँ निकलकर आएंगीं ही...

बलई

बलई।
बात तब की है जब बैलगाड़ी से बारात जाती थी। राजेन्द्र चाचा के मझले भाई वीरेंद्र चाचा की बारात के लिए मेरे पिताजी हमारे बैलों के सींग रंग चुके थे और बैलों के गले में घुंघरू बाँध रहे थे कि बलई आ गए, वे अपने लहड़ुआ के ऑंगन के लिए सन और डीज़ल लेने आए थे। तब मुझे पता चला कि ये तैयारी बारात के लिए  चल रही है तभी मैं भी जिद कर बैठा। पिताजी ने लाख समझाया तुम बहुत छोटे हो नहीं ले जा सकता लेकिन बलई ने कहा क्या चाचा ले चलो मेरे छोटे भाई को। बलई बहुत ही मेहनती ग़रीब किसान का बेटा था। लोग उससे खूब रमूज करते थे। बहुत हँसमुख और जी तोड़ मेहनत करने वाला लड़का था। उनके पिता रामदास चाचा के बड़े भाई थे। गोरा रंग, करीब 6 फ़ीट लंबाई के हल्के शरीर के व्यक्ति थे। जबकि बलई उनकी तुलना में बहुत कम लंबाई के थे।

उन दिनों बारात में गांव में अक्सर सभी जातियों के लोग बारात में जाते थे। इसके दो कारण थे, एक कि बारात ले जाने के लिए बैलगाड़ी और लहड़ुआ ही संसाधन था दूसरा उस समय भले ही लोग जातिगत थे लेकिन वे सामाजिक थे। हर जाति के लोग एक दूसरे को बारात में चलने के लिए आमंत्रित करते थे, जबकि उस समय तो राजेन्द्र चाचा से हमारे घरेलू संबंध थे। मेरे पिताजी उनका बटाई खेत करते थे। मेरे पिताजी और राजेंद्र चाचा की गाढ़ी दोस्ती थी। वे खाना अपने घर खाते थे और पानी मेरे घर, वैसे ही जैसे किसी समय मेरी और इंद्रभूषण (अस्पताली) की दोस्ती थी। बारात दोपहर को रवाना हुई। खूब रोनेधोने के बाद पिताजी मुझे ले जाने के लिए तैयार हो गए।

बारात मल्लावां के पास अकबरपुर के लिए प्रस्थान हुई। रास्ते में बैलगाड़ी दौड़ की खूब होड़ लगी। मेरे घर में बड़े बड़े और दमदार बैलों की जोड़ी थी। खूब मजा आया और लहड़ुआ दौड़ में जीत बलई की जोड़ी की हुई। तब बारात में एक दिन पक्का खाना और दूसरे दिन कच्चा खाना बनाया जाता था। बारात में ख़ूब आवभगत हुई। बारात बाग में ठहराई गई थी, जहाँ कुआं था। ख़ूब हंसी मजाक, नाच गाना हुआ। लेकिन अगले दिन एक अजीब घटना हो गई। हंसी हंसी में किसी ने बलई के ऊपर खजोहरा (खुजली करने वाली जंगली पत्ती) डाल दी। वो बेचारे खूब खुजलाते, जबकि लोग ठहाके लगाकर खूब हंसते। तब इतनी समझ न थी वरना लोगों से कहता क्या मजाक है किसी की जान जा रही है और आप हंस रहे हैं लेकिन ख़ैर। मुझे बड़ा दुख हो रहा था। कोई जनवासे से आटा लेकर आया उसका उपटन लगाकर मला लेकिन फ़ायदा न हुआ। कुंवें पर खूब रगड़ रगड़ कर नहाया। लेकिन खुजली जाने का नाम न ले रही थी। बड़ी मुसीबत आ गई। किसी ने कहा खटाई लगाओ, तिल्ली का तेल लगाया लेकिन फायदा न हुआ। भगवान जाने कैसे ठीक हुई।

पिछली बार बलई के भाई से मुलाकात हुई तो उनसे बलई के बारे में पूछा तब सुनकर बड़ा दुःख हुआ बलई ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। कारण मैंने न पूछा। ऐसे अनेकों मेहनतकश मेरी यादों में बसे हैं। यादों यादों में आज उनकी याद आ गई। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।

तीन महीने की नौकरी



चौधरी सर्विसेस से पहले लालकुर्ती, मेरठ में एक कमर्शियल सेंटर में टाइपिस्ट की एक जॉब मिल गई। वहाँ के मालिक उत्तरप्रदेश बिजली बोर्ड से रिटायर्ड हेड क्लर्क थे। वह जॉब मुझे मेरे मकान मालिक के लड़के ने बताई थी जो दुकानदार के लड़के का पिट्ठू था। जब मैं इंटरव्यू के लिए गया तो उस दिन वहाँ तीन लोग और थे जहाँ टाइपिंग टेस्ट एक बहाना था, असल में वे उसे रखने वाले थे जो मजबूर हो और कम पैसे में काम को राजी हो जाए। इसलिए मुझसे बेहतर उन्हें कैंडिडेट न मिला।

हमारे मालिक की टाइपिंग स्पीड हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ही कमाल की थी। "40 साल की नौकरी में यही मेरी पूँजी है" ऐसा उनका कहना था तथा जब भी कोई टाइपिंग करवाने वहाँ आता वे शेखी बघारते हुए यही रटा रटाया वाक्य सुनाते थे। जबकि, उनके बेटे की आवारागर्दी, ख़र्चीले स्वभाव, तड़क भड़क घर-मकान, रहन सहन और पूँजी देखकर अंदाज़ा लगाना मुश्किल न था कि, वे कितने बड़े ईमानदार रहे होंगें। ख़ैर।

 "इससे नहीं हो पायेगा" उनका तकिया कलाम था। जैसे ही कोई टाइपिंग करवाने आता, वे कहते इससे नहीं हो पाएगा। लाओ मैं कर देता हूँ। ये सेंटर उन्होनें अपने बिगड़ैल बेटे के लिए खोला था, जहाँ टाइपिंग सिखाने के साथ ही साथ फ़ोटोकॉपी और पीसीओ, फैक्स आदि का भी इंतजाम था। दो कम्प्यूटर भी थे जो हमेशा ढके रहते थे। कभी कभी उनका बिगड़ैल जवान लड़का उस पर गेम या कोरल ड्रा पर कुछ चीले कौवे बनाता रहता था। लड़कियों के नाम वाला उनका एकलौता लड़का 'पिंकी' दुकान पर एक पल भी न टिकता। हमेशा सूट बूट में रहने वाला वह एक पल में ही न जाने कहाँ बाइक पर चढ़कर फुर्र हो जाता। वे दिन भर मुझसे अपने आवारा बेटे की आलोचना करते और जब मैं उनकी हाँ में हाँ न मिलाता तब कोई ऐसा काम थमा देते जिससे ऊब महसूस होती जैसे कार्बन पेपर गिनना, फ़ोटोकॉपी के लिए A4 और लीगल रिम कितने हैं, की गिनती करना, आलपिन की डिब्बी जानबूझकर गिरा देते ताकि मैं खाली न बैठ रहूँ। और कुछ नहीं तो टाइपिंग मशीन ही खोलकर बैठ जाते और कलपुर्जे साफ़ करने को कहते आदि आदि। लेकिन असल काम न करवाते। 

वहीं पास में एक मंदिर था जहाँ चबूतरे पर संगमरमर लगा था, शाम के समय मैं पेशाब करने का बहाना करके कई बार उस मंदिर में तरावट और ऊब से बचने के लिए 10 पंदह मिनट बैठता और पुजारी से गप्पें हाँकता, वह हमारे पड़ोसी जिले पीलीभीत का रहने वाला था। वह बेसुरा पुजारी अखंड रामायण का जब पाठ करता तब अपने गाँव की धुन में पिरोई  चौपाई याद आ जाती और मन होता जाकर कह दूँ "बेसुरे"। लेकिन शाम को बंटने वाले प्रसाद के चक्कर या कहें कि डर की वजह से में ऐसा न कह पाता। वहाँ धनाढ्य लोग आए दिन केला, जलेबी पूड़ी, हलुआ आदि बांटते रहते और पुजारी मुझे एक दिन पहले ही बता देता तब मुझे खाना न बनाना पड़ता। शाम के लिए भी पैक कर लेता।

कोई भी टाइपिंग करवाने आता मुझसे पहले वे मशीन पर बैठ जाते और फटाफट करके दे देते।  गुल्लक में ताला लगाकर रखते चाभी पायजामें में खोंस लेते जैसे पुराने समय की सासू माँ। बेटे के पास डुप्लीकेट चाभी थी, जिसके बारे में उन्हें पता था। वह आए दिन उनके पैसे पर हाथ साफ करता रहता था। एक दिन उसने 100 रुपए मुझे और 1000 खुद साफ कर, हिदायत दी यदि किसी को बताया तो 200 वापस करने पड़ेंगे। उस पैसे से मैंने बेगमपुल की बाजार से लिल्लामी अमिताभ बच्चन वाली बेलबॉटम और और बड़े बड़े छापा वाली टीशर्ट खरीदी। जिसे शर्म की वजह से कभी न पहना और एक दिन कूड़े बीनने वाले को भेंट कर दी।

एक दिन शाम की चाय के समय मेरे मालिक बैठे बैठे हमेशा के लिए सो गए। तभी कोई टाइपिंग करवाने आ गया, मैंनें उन्हें जगाए बिना टाइपिंग कर दी। 3 महीने में यही मेरा पहला और आख़िरी टाइपिंग का जॉब था। अगले दिन से दुकान बंद होने के साथ ही मेरा आखिरी महीने का वेतन 500 रुपए भी डूब गया। लेकिन मुझे कोई अफ़सोस न हुआ, वास्तव में वहाँ 3 महीने में कोई ख़ास काम किया ही न था। 

एक दिन बेगमपुल पर जब चौधरी सर्विसेस के लिए जनरेटर की ख़ातिर डीज़ल लेकर आ रहा था तब उनके रंग मिज़ाज लड़के को देखा, वह 4 बजे टाइपिंग सीखने वाली छम्मकछल्लो को बाइक पर घुमा रहा था। तब मुझे समझ आया कि वह 4 बजे ही क्यों मुझे पेपर और स्टेशनी खरीदने के लिए पेपर मार्केट भेजता था और मालिक को आराम करने की सलाह देता था। कितना भोला था न मैं!

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