Friday, November 7, 2008

यानी सभ्य ऊंचे होते हैं और असभ्य नीचे .....


हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत बालकृष्ण भट्ट जी ने नीचपन की एक बहुत अच्छी परिभाषा दी है-‘‘नीचता वहीं बसती है जहां प्रत्यक्ष में ऊंचाई है।’’ बात सौ आने सही है। क्योंकि इसी नीचता से ही ऊंच-नीच शब्द की उत्पत्ति हुई है। गांवों में बाल विवाह के लिए एक दलील दी जाती थी कि लड़कियों के साथ कोई ऊँच-नीच न हो जाये इसलिए उनकी शादी जल्दी करना ठीक होगा। कहा जाता है कि नीचता के कारण आदमी मुंह दिखाने तक के लायक नहीं रह जाता।

एक सार्वभौमिक सत्य यह भी है कि जहां ऊंचाई है वहीं नीचाई है। अमीरी और गरीबी भी इसी के पर्याय हैं। मतलब अमीर ऊंचे हैं और गरीब नीचे हैं। इसलिए अमीर की नजर में गरीब नीच होते हैं। इसी प्रकार असभ्य के लिए भी नीच शब्द का प्रयोग किया जाता है। यानी सभ्य ऊंचे होते हैं और असभ्य नीचे।

आज समाज के चलन में अनुसार ऊँच-नीच का भेद ऐसा चल पड़ा है कि अब उसमें जौ मात्र भी अदल-बदल हो पाना सम्भव नहीं। कहा जाय तो नीच एक प्रकार से गाली बन गया है जैसे राज ठाकरे की नजर में बिहारी नीच हैं और महाराष्ट्रिय ऊंचे हैं। लेकिन बिहारियों और उत्तर भारतियों की नजर में राज ठाकरे नीचता का काम कर रहे हैं। इसलिए राज ठाकरे नीच हैं। खैर इसमें पड़कर समय गंवाना भी नीचता है जैसे कि आजकल इस विषय पर देश के नेता कर रहे हैं।

कहते हैं कि किसी भी गलत काम करने वाले को भी नीच कहा जाता है। होता यह है कि जिसने नीच कहा वह अपने को ऊंचा समझता है। कभी-कभी व्यक्ति नीचता की हद पार कर जाता है। तब उसे नीचपन कहते हैं। नीचपन किसी भी दूसरे योनि के प्रणियों के लिए नहीं वरन मनुष्य मात्र के लिए ही बना है। ऊंची दुकान फीके पकवान भी इसी से बना होगा।

रूपया ऊंच-नीच की भरपूर कसौटी है। जिसने भी रूपये को लात मारकर प्रतिष्ठा का आदर किया वह ऊंचा है और जो रूपये के पीछे पड़कर अपने परिवार, समाज और देश का अहित करता है वह नीच है। ऐसे ही धर्म के लिए भी बोला जाता है जो अपने धर्म का पालन करते हुए दूसरे धर्म के लोगों की भलाई करता है वह ऊंचा है और जो अपने धर्म के लाभ के लिए दूसरे धर्मों को हानि पहुंचाता है वह नीच है। ऐसा अभी हाल ही में उड़ीसा में देखने को मिला।

इसी नीचता पर गोस्वामी तुलसीदास ने कई सारी चौपाइयों का निमार्ण किया देखिये-‘‘नीच निचाई नहिं तजें जो पावे सतसंग’’ (इसका अर्थ है कि नीच मनुष्य अपनी नीचता से बाज नहीं आता चाहे कितनी ही अच्छी संगति में रहता हो)। एक जगह तुलसीदास ने यहां तक कहा कि ‘नवनि नीच के अति दुखदाई, जिमि अकुंस घनु उरग, बिलाई’’ इसका अर्थ यह है कि नीच यदि कभी आकर नम्रता प्रकट करे तो इससे बहुत डर की बात समझना चाहिए। फिर दुबारा एक जगह उन्होंने ऐसा भी कहा है कि ‘‘सठ सुधरइं सतसंगत पाई’’ (सठ यानी नीच क्योंकि मूर्ख व्यक्ति विद्वानों की नजर में नीच होते हैं) इस उपयरोक्त चौपाई का अर्थ है- नीच को नीचता त्यागने के लिए उच्च विचार वाले लोगों के साथ उठना-बैठना चाहिए।

बात सीधी सी एक है कि नीचता कैसी भी हो नीचता ही रहेगी। इसलिए हे मानुष नीचता को छोड़कर ऊंचे उठो। इसे मराठी में कहें तो कुछ ऐसा है-‘‘म्हसून हे माणसांनो नीच ला सोडून वर उठा।’’

Wednesday, November 5, 2008

हम, तुम सबमे अच्छे

आप
दोमुंहा सांप
वो सब अक्ल के कच्चे
हम, तुम सबमे अच्छे
तुम सब गधे के पूत
हमीं स्वर्ग के दूत

यही इस समय चल रहा है
पता है इसलिए कि चुनाव का बिगुल बज रहा है

आरोप - प्रत्यारोप के बाण चल रहे हैं,
युध कि तरह चुनाव के ऐलान हो रहे हैं!

अदला बदली तो हमारा गहना है
यह मेरा नही उनका कहना है

पुराने सारे नारे नए में बदल गए
भाजपा के प्रत्यासी बसपा में चले गए

"तिलक तराजू और तलवार उनके मारो जूते चार" कि जगह अब
हाथी नही गणेश है ब्रम्हा विष्णु महेश है,

सौदा पटा तो भी टिकेट कटा नही पटा तो भी टिकेट कटा
हर रोज यही ख़बर है कि उसकी जगह कोई दूसरा प्रत्यासी डटा

घोषणा पत्र को चुनावी एजेंडा कहा जाता है
यही घर घर जाकर हर एक को थमाया जाता है

हरिजन के पैर कोई ब्राम्हण छु गया
राम राम कि जगह जय भीम कह गया

चलो इसी बहाने छुआ - छूत् मिट गया
अपराधी कलुआ इसी से खुश है उसे कोई दूत मिला गया

हमें क्या? हम तो जनता हैं
हमारे साथ सब कुछ यूँही चलता है

भगवान के लिए आप इन्हें ब्यूटीफुल न कहें....


इसमें किंचित संदेह नहीं कि पहले की तुलना में अब महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। पहले के समय में महिलाएं घर की चहारदीवारी से बाहर कदम नहीं रख सकती थीं। उन पर पहरा था। भारतीय कानून की धाराओं की तरह उन पर कई तरह की प्रथाएं लागू थीं। पर्दा प्रथा, सती प्रथा, दहेज प्रथा आदि इसी प्रकार की कई अन्य प्रथाएं इन महिलाओं के लिए ही बनी थीं। इतना ही नहीं उनके पहनावे भी अजीब थे। वे बिना पर्दे के पराये पुरूष के सामने नहीं लायी जाती थीं। पुरानी कहावत ‘औरतों का गहना लज्जा है’ उसी समय की है।

जैसा कि कहते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है तो अब इस बदलते हुए हालातों में महिलाओं के हालात भी बदले हैं। आज महिला सशक्तिकरण का दौर है। महिलाएं अब पहले की तुलना में काफी आगे आयी हैं। शिक्षा से लेकर नौकरी-पेशे तक उनकी पहुंच है। समाज के किसी भी समारोह में उनकी अगुवाई है। अब स्त्रियांे के आर्थिक रूप से पुरूषों पर निर्भर होने की स्थिति में पिछले कुछ दशकों में भी तेजी से कमी आई है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पहले रोजगार के हर क्षेत्र में पुरूषों का वर्चस्व था, पर अब ऐसा नहीं है।

जाहिर सी बात है इतने सारे बदलावों के चलते उनके पहनावे में भी पहले की तुलना में काफी बदलाव आया है। वही महिलाएं अब सुन्दर दिखने के लिए मंहगे से मंहगे संसाधन प्रयोग में ला रही हैं। ऐसे में अब सुन्दरता की परिभाषा भी बदली है। अंग्रेजी भाषा में सुन्दर को ब्यूटीफुल या स्मार्ट कहा जाता है। पहले के समय हम सुन्दर के लिए इसी ब्यूटीफुल शब्द का प्रयोग करते थे। लेकिन अब इसी ब्यूटीफुल को सेक्सी कहा जाता है।

सुन्दरता के बदलते हुए इस स्वरूप को आज की उभरती हुई नारी को अपनाने में कतई संकोच नहीं है। यह बात नहीं है कि पुरूष इससे पीछे हैं उन्हें भी सेक्सी कहलाये जाने में कोई ऐतराज नहीं लेकिन महिलाएं इस शब्द को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दे रही हैं। अब किसी सुन्दर महिला को ब्यूटीफुल कह देने भर से काम नहीं चलेगा। ब्यूटीफुल तो हर कोई है। कौन कहता है हम सुन्दर नहीं? लेकिन सेक्सी कोई ही कोई होता है।

अब इन सेक्सी दिखने वालों के लिए ब्यूटीफुल शब्द यदि भूले से ही इस्तेमाल हो जाए तो समझो तुम्हारी खैर नहीं। इसलिए भगवान के लिए आप इन्हें ब्यूटीफुल न कहकर सेक्सी ही कहें तो ही अच्छा रहेगा। इसी में हमारी और तुम्हारी भलाई है। बस यही मेरी आपसे विनती है।

Tuesday, November 4, 2008

गरीब की लुगाई पूरे गांव की भौजाई।

बात बिल्कुल ताजी है। ताजी इसलिए कि अखबार और मीडिया में यह खबर प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हो रही है। जी हां हम बात कर रहे हैं महाराष्ट्र में हाल की घटित घटनाओं की।

हाल ही में महाराष्ट्र के राज ठाकरे की उत्तर भारतीयों और बिहारियों पर की गयी टिप्पणियों पर गहमा-गहम बहस जारी है। चारों तरफ यही चर्चा है कि कल की मुख्य खबर क्या होगी। और हो भी क्यों न इस महीने की मुख्य खबरों में इसे तवज्जो जो दी गयी है। मुझे तो यहां तक यकीन है कि इस वर्ष के सप्ताहांत के अंतिम दिनों में इस घटना को भी अन्य प्रमुख राष्ट्रीय घटनाओं की तरह प्रमुखता दी जायेगी।

मुझे राज ठाकरे के बयान के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं हैं लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि उसके भड़काऊ भाषण और बयानबाजी से बिहारियों और उत्तर भारतीयों के गरीब वर्ग की जनता को बहुत कष्ट उठाने पड़े हैं। उन्हें आर्थिक नुकसान के साथ ही उनके जान-माल को भी काफी नुकसान पहुंचा है। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि इस लूट-खसोट में मनसे के कार्यकर्ताओं के अलावा महाराष्ट्र के उपद्रवी और लुटेरे वर्ग भी संम्मिलित रहे होंगे। उपद्रवी और लुटेरों को तो इसी का इंतजार रहता है। उनकी यही रोजी-रोटी है और यही धंधा।

जैसा कि विदित है कि इन सब घटनाओं से सबसे ज्यादा नुकसान गरीब और मेहनतकश जनता को हुआ है जो रोजी-रोटी की तलाश में अपना घर-बार और शहर छोड़कर दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। वे महाराष्ट्र के बड़े शहरों मुम्बई के अलावा पुना और नागपुर जैसे शहरों में काम-धंधे के लिए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि राज ठाकरे के बयान से सेलेब्रटी और अमीर वर्ग को नुकसान नहीं हुआ है, नुकसान उनका भी हुआ है लेकिन वह नुकसान केवल बयान-बाजी तक ही रहा। कहना ठीक होगा कि यह माफीनामे तक ही रहा। इसे क्रिया और प्रतिक्रिया की तरह ले सकते हैं।

देश के इन मेहनतकश और कमाऊ जनता पर अब देश के नेता और राजनेता दोनों ही रोटियां सेकने पर मशगूल हैं। उन्हें तो एक मुद्दा मिल गया जिसका उन्हें हर चुनाव में इंतजार रहता है। वो गठबंधन की इस राजनीति को भली भांति जान गये हैं। सबको पता है कि लोकसभा चुनाव सामने है सेंक लो जितनी रोटियां सेंकनी हैं फिर कंहा ऐसा मौका मिलेगा ! यही उनके बीच चल रहा है।

ये राजनेता एक दूसरे पर छींटाकशी कस रहे हैं। उत्तर भारत के एक प्रख्यात नेता ने तो यहां तक कह दिया कि वे अब ‘निर्दलीय अभियान समिति’ बनाकर पूरे सूबे का दौरा करेंगे और अपना तथा अपनी पार्टी के विधायकों और सांसदों का इस्तीफा दे देंगें। एक दूसरे नेता ने तो राज ठाकरे पर फतवा तक जारी कर दिया। अलग-अलग तरह के नेता अलग-अलग तरह के बयान भी दे रहे हैं। कोई कह रहा है कि वह महाराष्ट्रियों के खिलाफ नहीं है उन्हें तो सिर्फ राज ठाकरे को सबक सिखाना है।

महाराष्ट्र में भी एक अलग तरह की राजनीति शुरू हो गयी है। वहां के नेता भी बयानबाजी में पीछे नहीं हैं। कुल मिलाकर पूरे देश में आजकल मराठी-गैर मराठी, हिन्दी भाषी-गैर हिन्दी भाषी पर चर्चाओं का शोर है। इसका सीधा सा मतलब है वोट की राजनीति।

यह कहना अभी से ठीक नहीं होगा कि इस सस्ती और गंदी राजनीति से किसको कितना फायदा होगा मराठी नेताओं को या बिहारी या उत्तर भारतीय नेताओं को लेकिन इतना जरूर तय है कि इसके चक्कर में गरीब जनता जरूर पिस रही है और आगे भी यही होगा। बड़े बुर्जग सही ही कह गये हैं कि ‘गरीब की लुगाई, पूरे गांव की भौजाई’।

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