Saturday, September 1, 2018

इसलिए' पतंग से पेंच आजकल वो लड़ाने लगे हैं।

अजीबोगरीब ख़्वाब आजकल मुझे आने लगे हैं।
और हकीकत में सुबहो-शाम मुझे डराने लगे हैं।।

जिन्होंने पढ़ा नहीं कभी 'सामाजिक विज्ञान' 'शिशु'
वो समाज को 'समाज की परिभाषा' सिखाने लगे हैं!

सरेआम कत्लेआम का इल्जाम था जिन पर कभी,
वो 'इंसानियत' को 'अहिंसा का पाठ' पढ़ाने लगे हैं!

राजनीतिक 'दाँव-पेंच' का शौक जबसे चढ़ा है उन्हें,
तभी' वे आजकल 'पतंग' से पेंच लड़ाने लगे हैं!

बहुत उड़ाते थे दूसरों की खिल्ली 'सोशल मीडिया' में,
अब अपने पर आई तब 'कायदे-कानून' बनाने लगे हैं।

Thursday, August 30, 2018

कबहूँ बैंक के बाबू देते दिलासा।

नरोत्तम दास की प्रसिद्ध कविता 'सुदामा चरित्र' की लयताल पर आधारित है-
सीस पगा न झगा तन में,
प्रभु जाने को आहि बसे केहि ग्रामा।

लाइन लगी कि लगी न लगी,
कि, नोट बदलने की है नहि आशा।
लोग लगे वो लगे कहने-
चहुँओर है छायी घोर निराशा।
नोटबंद से ग़रीब-किसान का'
घाटा हुआ है अच्छा-ख़ासा।
पुलिश बजाती थी लठ्ठ कि,
कबहूँ बैंक के बाबू देते दिलासा।
'मन की बात' रेडियो से कहकर,
'चौकीदार' ने सबको फाँसा।
मीठे-मीठे बोल बोल अब,
वित्त मंत्री जी देते हैं झांसा।
भक्त मंडली श्राप देति 'शिशु'
जैसे देते थे ऋषि दुरवासा।
काला धन है आया नहीं,
कुल बीत गए कितने चौमासा।

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