Wednesday, September 18, 2019

चम्पा के सरोवर

अध्यापक गयादीन अपने पड़ोसी गाँव में प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाते थे। तब कई गाँव मिलकर एक मजरा बनाते थे, जहाँ एक प्राथमिक और एक उच्च प्राथमिक विद्यालय हुआ करता था। कहने को तो वह गाँव था लेकिन लोग उसे पुरवा कहते थे। इस पुरवा में दक्षिण की तरफ़ दलितों के, उत्तर में ठाकुरों के, पूर्व की तरफ़ तालाब के किनारे किनारे कुछ एक घर कहारों के और गाँव के पच्छिम की तरफ़ एक दो घर कुम्हारों के थे। पुरवा के लिए मुख्य सड़क से निकली हुई एक पतली आड़ी तिरछी रेखा जैसी खड़ंजे की सड़क निकलती थी जो क़रीब 6 किलोमीटर चलकर फिर एक मुख्य सड़क से मिल जाती थी, जहाँ एक इंटर कॉलेज था। पुरवा से दिखाई देता था एक प्राचीन किला और किले पर बरगद का पुराना पेड़, जिस पर गिद्धों का आशियाना था, क्योंकि जानवरों की खाल निकालने का काम इसी किले के आसपास किया जाता था। इस पुरवे में दक्षिण टोले के लोग मरे जानवरों की खाल निकालने का कार्य करते थे। इस किले की अनेकों किदवंतियाँ थीं। पुरवा के लोग किले को ढीह कहते थे।

मास्टर साहब सफ़ेद रंग का पायजामा (चौड़ी मोहरी वाला) और ढीला सा कुर्ता पहनते थे, मौसम कोई भी हो उनके पहनावे में कोई अंतर न होता। सर्दी में ज्यादा से ज्यादा खादी की सदरी पहन ली। पक्का रंग और छोटा कद उनकी पहचान थी (हालांकि उनके पिता का कद 6 फ़ीट था), आंखों से कुछ कम दिखाई देता था बाबजूद उन्होंने चश्मा नहीं बनवाया था। शरीर में हद से ज़्यादा बाल थे, बड़ी बड़ी घुमावदार मूँछे, हाथ पैरों में सीधे सतर्क खड़े बाल, कान के किनारे किनारे एक सीधी सी रेखा ऐसा लगता चकरोट के किनारे खरपतवारों की लाइन हो। वे सुर्ती (तंबाकू) खाते थे, प्लास्टिक की डिबिया में एक तरफ तंबाकू और दूसरी तरफ़ ताज़ा चूना भरा रहता था। उनकी लड़की चम्पा प्रतिदिन उस डिबिया को तरोताज़ा करती थी। मास्टर के पाँच बच्चों में चम्पा तीसरे नंबर की लड़की थे, जिसके  बाद 2 लड़के और थे। वह लड़की बड़ी मुँहफट थी। अभी सोलहवें साल में कदम ही रखा था, लेकिन दिखने में लगता था बीस से कम न होगी, उसकी लंबाई 5.5 फ़ीट से ज़्यादा थी, लंबाई से ज़्यादा लंबी उसकी ज़बान थी। हालांकि लड़की सांवले रंग की थी लेकिन उसके नैननक्श के वजह से मोहल्ले की अन्य गोरी लड़कियों की माएँ चम्पा से जलतीं थीं। एक बार गाँव के उच्च जातियों के लड़कों ने उस पर कुछ फब्तियाँ कस दीं फ़िर क्या बातों-बातों से उनकी जो धुलाई की कि उनको छठी का दूध याद आ गया।

मास्टर गयादीन पाँच भाई और कुल छह बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता मैकूलाल लठ्ठबाज थे। जिनके पास 100 से ज़्यादा भेड़ें और इतनी ही मात्रा में बकरियां थीं। परिवार में अधिक बच्चे होने का फ़ायदा ये था चरवाहों की कमी न थी। मैकूलाल दबंग किस्म के व्यक्ति थे। अपने शरीर और लठ्ठ पर उन्हें विश्वास था इसलिए उस समय के अनुसार भी अन्य लोगों की तरह उन्होंने ठाकुरों के आगे न कभी हाथ फैलाया और न ही उनकी चाकरी की।

मास्टर साहब कैसे मास्टर बने इसकी कई कहानियाँ हैं, एक कहानी ये है कि, बचपन में गयादीन चरवाहे थे, तभी स्कूल के अध्यापक पंडित चंद्रिका की उन पर नज़र पड़ी। उनकी ख़ुद की भी एक भैंस थी। जिसे वे सुबह हाँकर स्कूल लाते और गयादीन उसे चराते। स्कूल में कोई बाउंड्रीवाल न थी, इसलिए गयादीन जानवरों को तालाब में हाँक कर स्कूल आ जाते और वहीं बैठकर लिखना पढ़ना सीखा। धीरे धीरे पढ़ाई में लगन देखकर पंडित जी ने उनका नाम स्कूल में लिख लिया और 8वीं तक पढ़ाई के बाद उनकी बहाली उसी स्कूल में हो गई। उस मजरे में पहला आरक्षण मास्टर गयादीन को मिला था, जैसा कि उनके स्कूल के अध्यापक हमेशा उनकी अनुपस्थिति में बच्चों से बताया करते थे। इस विषय में कहानियाँ और भी हैं, लेकिन इस पर ज़्यादातर लोगों ने मोहर लगा रखी थी।

अब चम्पा की कहानी पर आते हैं। चम्पा के रूप और गुण के अनुसार मास्टर गयादीन को अपनी बिरादरी में कोई लड़का न दिखाई देता था। गर्मी की छुट्टियों में उनका एक ही काम था चम्पा के लिए वर तलाशना। वे भरी दुपहरी में पैदल ही चलते थे, भरी दोपहर में चलना उन्हें पसंद था। वे चाहकर भी साइकिल नहीं ख़रीद रहे थे। कारण उनका स्कूल गाँव के आसपास था, दूसरा पैदल चलना उनको पसंद था। चरवाहे होने का एक फ़ायदा ये भी है। एक चरवाहा दिन में औसतन 5 से 6 किलोमीटर प्रतिदिन चलता है ऐसा वे स्कूल में बच्चों को बताते थे।

वर की तलाश में मास्टर साहब बड़े निराश हो रहे थे। चम्पा बड़ी समझदार थी, 12वीं तक स्कूल में पढ़ाई की थी। वह 6 किलोमीटर दूर स्कूल पढ़ने जाती। पढ़ने में सबसे अव्वल, वैसे तो सभी विषयों में वह अव्वल थी लेकिन संस्कृत में उसका जवाब ही नहीं, ऐसे ऐसे श्लोक याद थे अध्यापक भी अचंभित हो जाते। एक बार मोहल्ले में शादी के दौरान गलती से पंडित जी के मुँह से गलत शब्द आ गया, चम्पा ने वहीं टोक दिया था। इस बात के लिए पंडित दीनानाथ ने उसकी इतनी तारीफ़ की बात पूरे गाँव में फ़ैल गयी थी। लोग कहते थे, इसे ब्राम्हण के घर में पैदा होना चाहिए था।

उस गाँव के आसपास सैकड़ों एकड़ ऊसर ज़मीन थीं जिसके सुधार के लिए वन विभाग और ऊसर सुधार विभाग ने एक दिन वहाँ का दौरा किया था। स्कूल में मास्टर साहब से बातचीत से पता चला जिन लोगों की ज़मीन है उन्हें स्वयं भी जानकारी नहीं है, क्योंकि खेत में कुछ पैदा ही नहीं होता इसलिए लोग अपनी जमीनों को भूल गए हैं। चकबंदी विभाग ने कई बार कोशिश की लेकिन बात न बनी। शाम को वन विभाग के अधिकारियों ने वहीं अपनी राउटी (आशियाना) लगाया।

उन्हें नक्शों की नक़ल उतरने के लिए एक पढ़े लिखे व्यक्ति की तलाश थी। गाँव के लोगों ने चम्पा का नाम सुझाया। वनाधिकारी शैलेन्द्र सरोवर ने चम्पा को समझाया कि किस प्रकार उसे कार्य करना होगा। उसने हां में हाँ मिलाते हुए कार्य शुरू किया। जब शाम को अधिकारी वापस आए, तब चम्पा का कार्य देखकर अचंभित हो गए। अधिकारी क्या नक़्शा बनाते, इतनी साफ़ सुधरी लिखावट, पहले देखी न थी सबने। शैलेन्द्र सरोवर पहले से ही मोहित थे, वे उस जिले के निवासी न थे। पहली बार किसी को देखकर प्यार उमड़ा था। चम्पा की साफ़गोई देखकर उससे कहने से डरते। एक दिन बारिश होने के कारण उन्होंने ने मास्टर साहब से अपनी मन की बात कह सुनाई। मास्टर साहब ने कहा साहब आप तो जानते हैं हम लोग कौन से हैं, अपनी जाति से होते तो इससे अच्छा और क्या होता। शैलेन्द्र सरोवर ने कहा, मास्टर साहब आप चम्पा से पूछ लीजिए बाक़ी मुझ पर छोड़ दीजिए।

शाम को मास्टर साहब ने अकेले में चम्पा से पूछा बिटिया आपसे कुछ बात पूछनी है , बिना माँ की चम्पा ही उस घर में बड़ी थी। वह बाप को ख़ूब समझती थी बिना लाग लपेट के कहा बप्पा जो आप सोच रहे हो वह संभव न ही है। हमारा रिश्ता कोई स्वीकार नहीं कर पायेगा। मास्टर ने शैलेन्द्र सरोवर को बुलाकर कह दिया बेटा चम्पा की ना और हां ही हमारे लिए सब है। शैलेन्द्र सरोवर निराश हो गए। चम्पा को देखकर कहा कोई बात नहीं मास्टर साहेब। मैं सब समझता हूँ, और अगले दिन जिले की तरफ़ कूच कर गए। चम्पा से इस विषय में कभी न बात हुई और न चलते हुए कहा। लेकिन उनके चेहरे पर मायूशी साफ दिखाई देती थी। जब वे चले गए चम्पा उदास रहने लगी। लगन लग चुकी थी। बिछड़ने के बाद ही प्यार का पता चलता है। चम्पा ने मास्टर साहब से जिले को चलने को कहा। अगले दिन वे ज़िला कार्यालय पहुंचे पता चला शैलेन्द्र सिंह अपना तबादला करवाने के लिए प्रमुख अधिकारी को पत्र देने गए हैं। चम्पा उदास हो गई। काफ़ी देर इंतजार करने के बाद वे आए। चम्पा ने कहा साहेब आप चले आए, गांव में सब आपको याद करते हैं, इस बार शैलेन्द्र सरोवर से रहा न गया, बोले और आपके मेरी याद नहीं आई। चम्पा ने कहा यह संभव न है आपके घर वाले और हमारे घर वाले इसे स्वीकार न करेंगें। हमें गाँव छोड़ना पड़ेगा। शैलेन्द्र सरोवर ने कहा गाँव तो मुझे भी छोड़ना पड़ेगा चम्पा। उसी दिन कचहरी में दोनों की शादी हो गई।

मास्टर साहब ने यह बात गाँव में किसी से न बताई। फिर कुछ दिन बाद दोनों लड़कों के साथ चम्पा को शहर भेज दिया। शैलेन्द्र सरोवर के तबादले की अर्जी स्वीकार हो गई थी। शहर छोड़ते समय शैलेन्द्र सरोवर ने चम्पा का दाख़िला कॉलेज में करवा दिया। किसी को भी उनके विवाह के बारे में कोई ख़बर न थी। शैलेन्द्र सरोवर चाहते थे चम्पा पुलिस में बड़े पद पर नौकरी करे और उसी अनुसार एक दिन उसका चयन पुलिस में बड़े पद पर हो गया।

पुलिस की वर्दी में चम्पा शैलेन्द्र सरोवर के साथ जब पहली बार गाँव आई तब उसकी माँग में सिंदूर था। आजकल चम्पा का नाम पुलिस विभाग में बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है वह एक तेज तर्रार अधिकारी के रूप में जानी जाती है और शौलेंद्र सरोवर जिले के वन विभाग के सबसे बड़े अधिकारी हैं। चम्पा और शैलेन्द्र सरोवर किस जाति से हैं किसी ने न पूछा। पाठक शैलेन्द्र सरोवर की जाति से ज़्यादा उनके प्यार और पसंद को पसंद करेंगे, ऐसी कामना है।

Monday, September 16, 2019

...तो कोई बात बने।

जुबाँ-जुबाँ पर मोहब्बत की बात आए,
तो  कोई  बात  बने।
या ख़ुदा हर मज़हब  इसमें साथ आए,
तो  कोई  बात  बने।

चकाचौंध  आँखों  के  लिए अच्छी नहीं,
दिन जैसी रोशनी वाली कभी रात आए,
तो  कोई  बात  बने।

लड़ाई शौक़ है तो इस शौक़ को जिंदा रखें,
लड़ना बुराई से है दोस्तों! हमारे साथ आएं,
तो  कोई  बात  बने।

सफ़ेद  पोश  आस्तीनों  में  छिपे  बैठे  हैं,
सुकूँ मिले कमबख्त क़ानून के हाथ आएं,
तो  कोई  बात  बने।

ग़ैरों  के  तोड़ने  पर  आमादा  हैं  'शिशु',
ख़ुदा  करे  उनके भी  बत्तीसों दाँत आएं,
तो  कोई  बात  बने।😊

©शिशु #नज़र_नज़र_का_फ़ेर

Sunday, September 15, 2019

टुनटुनिया


शुरू करने से पहले ख़ुमार बाराबंकवी की एक शेर याद आती है:-
मौत आए तो दिन फिरें शायद,
ज़िन्दगी ने तो मार डाला है।

पिछली बार जब गाँव की स्टेशन पर बालामऊ जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था तब उन्हें देखा, गाल धंसे हुए, चेहरे पर हल्की हल्की छुर्रिया, आंखों के नीचे और गाल पर कई जगह काले काले धब्बे दिखाई दे रहे थे। उन्होंने पीले रंग की एक पुरानी टी-शर्ट और लुंगी बांध रखी थी। पिताजी को देखकर राम राम हुई, इससे पहले वे मुझे पहचानते मैंने तपाक से कहा राम राम चच्चा। वे मुस्करा दिए। बोले अरे भइया शिशुपाल बहुत दिनों बाद दिखाई दिए कहाँ रहते हैं। मैंने उन्हें अपना हाल चाल कह सुनाया। बड़े खुश हुए। आशीर्वाद दिया, दुवाएं दीं। मैं उनसे बात करने को उत्सुक था। उन्होनें जल्दी जल्दी सब अपना हाल कह सुनाया। बेटा और बहू दिल्ली में रहते हैं और दोनों नौकरी करते हैं। पोता उनके पास रहकर गांव में पढ़ाई करता है। एक एक बात कह सुनाई। बेटा बहू दोनों कमाते हैं लेकिन कभी एक पाई नहीं देते। लेकिन फिर भी वे ख़ुश थे कि चलो अपना गुजारा तो करते हैं। बड़ा भावुक कर देने वाला दृश्य था, कसम से बड़ा दुख हुआ। बड़ी माशूमियत थी उनकी बातों में और भी बहुत कुछ बताना चाह रहे थे, लेकिन ट्रेन के हॉर्न ने कहानी को विराम दे दिया। इसलिए उठकर चल दिए। जाते समय मैंने 100 रुपये पिताजी को और 100 चच्चा को देना चाहा, मना करते रहे, मैंने लाख समझाया, लेकिन नहीं मान रहे थे बड़ी मुश्किल से पिताजी के कहने पर लिए। अपने बेटे को विदा करते समय उनकी आंखों में आँसू थे। इधर पिताजी से विदाई के समय मैं मेरा भी यही हाल था।

जवानी में उनको देखा था, क्या शरीर था! गोरा रंग, लंबाई लगभग लगभग 5.5 फ़ीट, छरहरा शरीर। शौखिया पहलवानी करते थे, एक बार गुड़िया डालने गया था (बहन न होने के कारण गुड़िया डालने की जिम्मेदारी मेरी थी) तब उनकी कुश्ती देखी थी। एक बार मंसा बाग के पास दंगल में तो उन्होंने अच्छे अच्छों को चित कर दिया था। वे बहुत मेहनती थे, खुश मिज़ाज इतने कि बच्चों और बूढ़ों सभी से मज़ाक कर लिया करते थे। बचपन में मुझे टुनटुनिया (मेरी माँ ने करधनी में एक घुंघरू बांध दी थी जब मैं चलता था तो जोर जोर से बजती थी) कहकर बुलाते थे। ऐसे गबरू जवान कि मेजर या कर्नल की वर्दी पहन लें कोई पहचान न पाए कि ये तो वे चच्चा हैं या कोई और। उनकी जाति और नाम बताकर यहाँ सार्वजनिक करना अच्छा नहीं, पाठकों को इससे जागरूकता बनी रहती है। उन्होंने पूरी जिंदगी मज़दूरी, और दूसरों की हलवाही की। पिताजे ने बताया अच्छी ख़ुराख की वजह से उन्हें हलवाई करना या मजदूरी करना पसंद था जबकि वे एक अच्छे किसान हो सकते थे, लेकिन जिसके पास अपनी जमीन नहीं है उसके लिए मजदूरी ही बेहतर विकल्प है। ऐसा पिताजी का विचार है। मैंने मन ही मन सोचा कि मेरे बारे में भी यही बात लागू होती है।

ट्रेन पर चढ़ने के दौरान मैंने कह दिया चच्चा जवानी में आपको देखा था अब तो आप बहुत कमजोर दिखने लगे हैं, वे हल्की मुस्कराहट से बोले अब ज़िंदगी बची ही कितनी है भैया। ट्रेन ने हॉर्न दे दिया मैं और उनका बेटा एक ही डिब्बे में बैठे थे। वे मेरे पिताजी के पास खड़े थे मैं हम सभी एक दूसरे को जब तक देखते रहे जब तक दिखाई देते रहे। बाद में उनके बेटे से कोई बातचीत ही नहीं हुई, बेटा बहू आधी गांव की आधी शहरी भाषा में बात करने में मशगूल हो गए और मैं मिर्जागंज में बने सई नदी का इंतजार करने लगा।

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