Sunday, April 28, 2019

चुनावी तुकबंदी


ये जो मलाई काट रहा था,
रेवड़ियाँ अपनों में बाँट रहा था,
आपको सरेआम डाँट रहा था।
आज वो फ़िर खड़ा है,
जीतने पर अड़ा है,
जनता को छोटा
ख़ुद को कह रहा बड़ा है।

उसे दिखा दो,
सबक सिखा दो।
पिछली बार भी वो/
आपके वोट से जीता था,
नारियल की तरह खून पीता था।

अब ठहर!
सुबह, शाम, दोपहर!
वोट वही फ़िर डालेंगें,
कुर्सी के नीचे लालेंगें।
फिर तू दोने चाटेगा,
मालिक तुझको डाँटेगा,
और च्युंटियाँ कटेगा।😊
©शिशु नज़र नज़र का फ़ेर

भूले बिसरे लोग।

आजकल जहाँ पर यूनियन बैंक हैं वहीं पड़ोस में ही उनका निवास था। लंबा कद, गोरा रंग और चेहरे पर कुछ कुछ चेचक के दाग। उनकी कद काठी देखकर लगता था फ़ौज में उन्हें मेजर या पुलिस में कप्तान होना चाहिए था। यदि मेरी याद्दाश्त धोख़ा नहीं दे रही तो यह कहना ग़लत नहीं कि वे काफ़ी मिलनसार, हँसमुख और बातें करने में निपुण थे। यहाँ तक कि बच्चे भी उनसे बात कर लेते थे। काफ़ी ढीला ढाला कुर्ता और चौड़ी मोहरी का पायजामा उनका पहनावा था। उन्हें सफ़ेद और साफ़ कपड़े पहने ही देखा जाता था। रूपानी चप्पल का सबसे बड़ा नंबर उनको लगता था।

तब रविवार की बाज़ार उनके घर के सामने लगती थी, उनका घर बाजार के सामने था जहाँ एक ऊँचा टीला था। टीले पर उनके साथ पाँच से छः आदमी बैठकर गप्पें लड़ाते थे, उस समय उनके शरीर पर पायजामा के ऊपर कट वाली बंडी होती थी, जिससे उनका जनेऊ दिखता था और जो इस बात का सबूत था कि वो ब्राम्हण हैं। शायद वे घर में अकेले रहते थे, ठीक ठीक याद नहीं लेकिन वे अविवाहित थे। उनके बाहर निकलते ही एक दो लोग उनके साथ हो लेते।

तब गाँव में इतनी रौनक रहती थी कि हर जगह लोगों का हुजूम दिखता था, गर्मियों में ख़ासकर। छप्पर के नीचे लोग ताश खेलते हुए दिख जाते, शोर शराबा रहता, चिल्लम पों, मज़ाक, रमूज (हंसी उड़ाना), क्षणिक लड़ाई-झगड़े, चीखना चिल्लाना इस कदर रहता कि दोपहर में सोने वालों की नींद हराम हो जाती। बंगले (छप्पर) में सोने वाला बड़ा बुजुर्ग चिल्लाता, बाहर भागो हरामियों, वर्ना एक एक की ख़बर लूंगा। कुछ समय के लिए लोग चुप हो जाते और फिर से चिल्लाने की आवाज आने लगती। कुल मिलाकर उन दिनों गाँव में सर्दियों से ज़्यादा गर्मियों का इंतजार किया जाता था। कहानी के नायक को ताश खेलना काफी पसंद था। उनके घर के सामने नीम का बड़ा पुराना पेड़ था जहाँ एक बार मैं भी छेक्कड़ खेल में उनकी तरफ से खेला था।

उन दिनों गाँजे का नशा अपने शबाब पर था। युवक और जवानी की दहलीज़ पर कदम रख रहे बच्चे गाँजे के प्रति आकर्षित हो रहे थे, जबकि अधेड़ उसके जाल में पूरी तरह फंस चुके थे। अधेड़ होने के कारण वे भी गाँजे में पूरी तरह लीन थे। गंजेडियों की टोली में उनका नाम आदर से लिया जाता था। लोग चिलम का कश लगाते और खाँसते हुए कहते 'इस गाँजे में दम नहीं' "अलख बम लगे गाँजे की दम" 'बोल बम भोले, गांजे का होले" "जिसने न पिया गाँजा वो छक्के का भांजा"। तब शराब का उतना क्रेज नहीं था बावजूद इसके स्टेशन के रास्ते में देशी शराब का एक ठेका भी था। जो दूसरे गाँव के व्यक्ति चलाता था। इसके साथ ही आसपास के छोटे गांव में अवैध शराब निकाली जाती थी। गर्मियों में लोग ताड़ी का इंतजार करते। खजूर की ताड़ी मुफ़्त में पीने के लिए ख़जूर के पेड़ को घायल कर देते।

अखंड रामायण और भागवत की कथा में उन्हें मजीरा बजाने का बहुत शौख था। उन्हें ढोलक बजाना भी आता था और कीर्तन मंडली और रामलीला आदि में उन्हें अपने आप को प्रदर्शित करना अच्छा लगता था। उन्हें दौड़ा पड़ता था। एक बार जब हम प्राइमरी में पढ़ता था उन्हें अचानक दौड़ा पड़ा तब पांडेय मास्टर जी ने उन्हें उठाया था। आसपास के लोग दौड़कर आ गए। उनके बहुत से हिमायती लोग थे। शायद ही उनका किसी से झगड़ा हुआ था। उनके हाथ और पैरों में छः उंगलियां होने के कारण लोग उन्हें छंगा कहते थे जबकि उनका वास्तविक नाम गुमनामी में रहा।

आज बरबस उनका वही चमकता चेहरा सामने आ गया। यादों में ऐसे अनेकों अनगिनित लोग हैं जिनके बारे में लिखना आनंददायक है।

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