Friday, August 2, 2019

लहचारी

इसे लहचारी (प्रश्नोत्तरी गीत) कहते हैं, हमारे यहाँ शादी बारात में खाना बनाते समय पुरुष और स्त्रियाँ मिलकर इसे गाते थे। अब यह विधा धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर है। कुछ लोग इसे अश्लीलता कहेंगें पर ऐसा है नहीं। भाव देखें। पहले एक व्यक्ति गाता है फिर पीछे पीछे और भी लोग धुन में धुन देते हैं।

कहनइ उपजइं चंदन बिरवा?
कहनइ उपजइं धान?
कहनइ उपजइं गोरी जोबनवा?
भइया कहनइ उपजइं रस पान?
राम जी सोनेहार को चले! (इस अंतिम लाइन को काफी देर तक लय ताल में गाया जाता है)

बनमा उपजई चंदन बिरवा,
खेतिया उपजई धान।
छतिया उपजै गोरी जोबनवा,
भइया भिठिया में उपजे हैं देखो पान।।
राम जी सोनेहार को चले!

काहेभि सींचइं चंदन बिरवा?
काहेभि सींचइं धान?
कहिबे सींचइं गोरी जोबनवा?
अउ कइसे कइसे सींचइं तनि पान?
राम जी सोनेहार को चले!

बरखा सींचइ चंदन बिरवा,
नदिया नाले ते धान।
प्यार मोहब्बत गोरी जोबनवा,
भइया बउछारन ते जिंदा पान।।
राम जी सोनेहार को चले!

कइसे काटइं चंदन बिरवा?
कहिते काटइं धान?
कइसे प्यार करैं गोरी से,
कइसे कइसे काटैं तनि पान?
राम जी सोनेहार को चले!

आरी से काटें चंदन बिरवा,
धारी ते काटैं धान।
मन का मेल मिलन गोरी का,
तनि हउले हउले तोरउ तुम पान।।
राम जी सोनेहार को चले!

Wednesday, July 31, 2019

बम्बा पर वाली मस्जिद।


बात उन दिनों की है तब हमारे गाँव में कांवड़ नहीं निकलती थी। और मंदिर भी कम ही थे। तब बम्बा पर एक छोटी सी मस्जिद थी जहाँ ईद की नमाज पढ़ी जाती थी। कभी कभी लोग जुमे की नमाज़ भी पढ़ने जाते थे। कोई भोंपू नहीं शांति पूर्वक। लोग मजाक मजाक में कहते देखो कैसी उठक बैठक लगा रहे हैं। अटवा और कुरसठ गाँव के लोग वहां नमाज अता करते थे।

ईद के समय तो कसम से बड़ी रौनक होती थी वहाँ। अम्मा कहती थीं देखो आज इनका त्यौहार है। जब हमारे घर के सामने से छोटे छोटे बच्चे रंग बिरंगी गोल टोपी लगकर निकलते थे तब रौनक देखते ही बनती थी। एक बार मेरा छोटा भाई टोपी की जिद कर बैठा, उधर से दिलदार चाचा जा रहे थे उन्होंने एक टोपी उसके सिर पर रखकर हाथ पकड़कर बम्बा पर ले जाने लगे। वो उनका हाथ छुड़ाकर भाग गया लेकिन टोपी दे नहीं रहा था। बड़ी मुश्किल से उन्हें उनकी टोपी मिली। दद्दा ने मारते मारते छोड़ा तब जाकर भाई ने टोपी दी थी।

बकरीद में जब लोग बकरा काटने ले जाते तब अम्मा दरवाजा बंद कर देती और दरवाजे की झिर्री से बकरे को देखकर कहती बेचारा। उन दिनों कल्लू कहार बाबा का एक बकरा बहुत शरारती था। अम्मा कुछ भी अनाज बाहर सुखातीं वह मुंह मारकर चला ही जाता। बड़ा कोसती, 'तुझे कसाई ले जाए, मुआ कहीं का' फिर बकरीद के अगले दिन जब वह नहीं दिखा उन्हें बड़ा खराब लगा। कढ़ाई कर रहीं थी और बार बार बोलती जाती बेचारा। दद्दा ने उन्हें डाँट दिया पहले तो उसे रोज कोसती थीं अब देखो कितनी याद आ रही है। सिलाई का अड्डा रखकर रोने लगीं। एक बार श्रीपाल चच्चा के साथ मैं भी बम्बा पर चला गया। हिन्दू लोग भी वहीं से मीट कटवाकर लाते थे। तब कुम्हारों के परिवार में केवल 2 या 3 घर ही थे जो मीट खाते थे। बाकी परिवार उन्हें हेय दृष्टि से देखता था। वह वो जमाना था जब शाकाहारी का प्रचार नहीं किया जाता था अब की तरह नहीं और अब परिवार में लगभग हर कोई नॉनवेज खाता है केवल कुछ एक छोड़कर अम्मा भी उसमें शामिल हैं।

साल के बारहों महीने बम्बा में पानी भरा रहता था। हम लोग वहां नहाने जाते थे, कपड़े निकालकर कूद जाते। खूब मस्ती करते। हमारे लिए वह संगम से कम न था। फिर मस्जिद के चक्कर लगाते और देखते वहाँ कोई भी भगवान की फ़ोटो नहीं है बड़ी निराशा हाथ लगती। फिर हम मस्जिद का पीछे वाला कूबड़ देखने जाते शायद वहां कुछ दिख जाए और तब कभी कभार कोई बड़ा बूढ़ा देख लेता जमकर खबर लेता। कोई बाउंड्री नहीं कोई रोक टोक नहीं। जबूतरे पर बैठकर मस्ती करते घर तब जाते जब अम्मा और दद्दा या तो खेतों की ओर चले जाते या वे सो रहे होते। बम्बा नहाया है ऐसा पता चलने पर पिटाई होती। एक दो धौल यही पिटाई थी उससे ही कितना डर था। अब सोचता हूँ इतने से क्यों डरता था।

आज तबियत कुछ ख़राब है इसलिए घर पर लेटा हूँ ऑफिस जाना था लेकिन हालत ऐसी है जुखाम के मारे बुरा हाल है नींद आ नहीं रही और अचानक बम्बा और वह मस्जिद ऐसे ही अनायास याद आ गए। लिखकर मन हल्का हो गया है।

Monday, July 29, 2019

न्याय की उम्मीद।

आज सुबह दिव्य निपटान के समय उन्नाव जिले की घटना का चलचित्र चलने लगा। यह जिला हमारा पड़ोसी जिला है इसलिए न तो मैं पक्ष में लिखूँगा और न ही विपक्ष में, क्योंकि मेरे माँ बाप वहीं रहते हैं और परिवारदार आदमी भी हूँ। किसी की कोई बुराई नहीं लेना चाहता, क्योंकि विधायक जी के जितने पक्ष में लोग हैं उससे ज़्यादा विपक्ष में। ये बनी खेल रही पार्टियां भी उनके समर्थन में रही हैं, सपा, बसपा, कांग्रेस हर पार्टी में उन्होंने विधायकी के मजे लिए हैं इसलिए जब राजनीतिक दल उनकी आलोचना करते हैं तब हंसी आती है।

मीडिया में काम करने वाले वहाँ के छुटभैये पत्रकार उनकी छवि को चमकाने में कसर नहीं छोड़ते थे। अब उनका विरोध कर रहे हैं। लोग दबे मुंह बोल रहे हैं जो पत्रकार उनके विरोध में हैं वह सब बाहरी हैं। उन्नाव का पत्रकार उनके बारे में लिखकर देख ले, लिखने से पहले दस बार सोचेगा।

चलो एक बार को मान लेते हैं ये दुर्घटना ही थी। तो क्या यदि पूर्व की घटनाएं नहीं होतीं तो इस प्रकार की घटना होती। उन्नाव के कुछ लोगों से बात हुई लोग बोलते हैं लड़की के परिवार ने उनकी छवि खराब की है नहीं तो बहुत भोले भाले व्यक्ति रहे हैं। गरीबों के मसीहा। बहन बेटियों की शादी का खर्च उठाने वाले। अपन पत्रकार तो हैं नहीं जो इन लफड़ों में पड़ें और खोजबीन करें। अब सोचता हूँ पत्रकारिता कितना कठिन काम है यदि ईमानदारी से की जाए, ठीक वैसे ही जैसे पुलिस की नौकरी।

अब न्यायालय का कार्य कठिन हो गया है। सीबीआई तो ख़ैर। इन पर टिप्पड़ी करके उनका जवाबदेय बनने से डरता हूँ। हाँ न्याय निष्पक्ष होना चाहिए यदि विधायक दोषी हैं तो उन्हें सजा मिले और यदि विधायक की छवि को खराब किया गया तो उन्हें भी न्याय के कठघरे में खड़ा होना ही पड़ेगा। न्याय को भावनाओं से ऊपर उठकर देखना पड़ेगा। न्यायाधीश को डर के आगे घुटने टेकने से अच्छा है त्यागपत्र दे देना चाहिए। या फिर उन्हें ऐसी ख़तरनाक पद पर जाने से खुद को पहले ही रोकना चाहिए। सरकारी नौकरी का मोह छोड़कर प्राइवेट जॉब या कोई बिजनेस कर लेना चाहिए। आजकल सरकारें बहुत से बिजनेस सजेस्ट कर रही हैं। डर के लिए हम प्राइवेट वाले ठीक हैं जिन्हें रोज ही डर रहता है नौकरी रहेगी या चली जाएगी।

बिना कमोड वाली सीट पर बैठकर इतना ही सोचा जा सकता है। और ऐसा ही लिख सकता था। न्याय की उम्मीद है, उम्मीद पर दुनियां कायम है।

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