Friday, October 17, 2008

शब्दों का महत्व

लोकत्रांतिक देशो में 'च' शब्द का बहुत महत्व है ! मतलब चुनाव ! भारतीय सभ्यता और संस्कृति में आदिकाल से ही 'च' शब्द को बहुत मायने मिले हैं! प्रख्यात हिन्दी कहानी कर एवं उपन्यासकार प्रेमचंद की कहानियौं में च शब्द के कारन ही दलित और अदिवासियौं पर कम कराने वाली संसथायों सा सामने जवाबदेय बनाया जा रहा है !

हिन्दी साहित्य में यह एक अकेला शब्द है जिससे दो समानार्थी और विपरीत शब्दों सा जन्म हुआ है जैसे एक तो चतुर और दूसरा चूतिया। यह वाही 'च' है जिससे चौराहा बना है और इसी चौराहे के कारन पुलिस और पब्लिक के बीच नोकझोक चलती है पुलिश कहती है पब्लिक यातायात नियमो का पालन नही कराती और पब्लिक कहती है पुलिस घूश लेती है! यदि ये 'च' चौराहा नही होता तो ये सारा झंझट ही नही होता!

इसी शब्द से कितनी ही जेलों का निर्माण हुआ है ! मेरा मतलब यह है की यदि 'च' से चोर नही होता तो जेलों की क्या जरूरत पड़ती! और तो और ऑफिस में कम कराने वाले लोगो को जो बोस से ज्यादा नजदीक होते हैं उन्हें इसी 'च' से कारन ही चापलूस और और चमचा कहा जाता है ! अभी हाल ही में इसी 'च' से ही तो किसान नेता महेंद्र सिंह को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा !

चुल्लू भर पानी में डूब मरना भी तो इसी 'च' से बना है ! बाजार में आज इतनी महंगाई नही होती यदि इसी 'च' से चांदी नही बनी होती ! इसी 'च' से आज बाबा लोगो की चांदी हो रही है! मतलब यदि इसे 'च' से यदि चिंता और चिता शब्द नही बना होता तो क्या उनसे प्रवचन कोई सुनने जाता !

यह वाही 'च' है जिसके कारन ज्यादा खट्टा मीठा खाने वाले को चटूहरा कहा जाता हैं! चुगुल खोर भी इसे से बना है ! अच्छे भले आदमी की इसी 'च' से कारन चमगादर तक कह दिया जाता है !

चलो अब इसे 'च' शब्द की अच्छयीओं पर एक नजर डालते हैं ! यह शब्द है जिससे चरखे की निर्माण और और जो भारत को आजाद कराने में आगे आया ! इसी चरखे ने गांधी जी को प्रसिद्दि दिलाई ! इसी 'च' से जवाहर लाल नेहरू को चाचा नेहरू कहा जाता है ! इसे 'च' से चम्मच शब्द बना है ! यदि ये 'च' नही होता तो दाल और सब्जी कैसे परोसी जाती ! रिश्ते में आने वाले प्रमुख शब्द चाचा और चाची की इसी से उत्पत्ति हुई है ! यदि से 'च' नही होता तो क्या गिनती के चार शब्द होते ! सदियों से चले आ रहे गुरु चेलो का सम्बन्ध भी तो इसे 'च' से है !

इसे 'च' से कारन चरण बना यदि चरण नही होते तो क्या आज भारतीय सभ्यता में चरण छूने का रिवाज होता ! तब शायद पाश्चात्य देशो की तरह चूमा चाटी चलती ! गरीबों का चना चबेना भी तो इसी से बना है !

हिन्दुओं का संवत भी तो इसी 'च' के कारन है यदि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य नही होते तो क्या ये हो पता ! कर्वाचोथ में महिलाएं ही 'च' से चाँद को देखकर ही तो पूजा करती हैं !

कितने ही हिन्दी फिल्मो के गाने इसी 'च' से फेमस हो गए जैसे - चोली के पीछे क्या है । ... चुनरी चुनरी - -- और बुजुर्गो के लिए आज भी वो चौधरी का चाँद हो .... अपनी जवानी याद दिलाता है ! इसी 'च' से बने गाने चंदा मामा दूर के ... से माताएं अपने बच्चो को सुलाती रही हैं.

हिन्दी में बहुत साड़ी कहावतों और मुहावरों का इसी 'च' से बहुत नाम है देखिये ---चोर चोर मौसेरे भाई .. चोरी और सीनाजोरी , , चिकनी चुपरी बातें.. चोली दामन का साथ ....चाट मंगनी पट ब्याह ... चमडी जाए पर दमडी न जाए.. चित भी मेरी पट भी मेरी ... चार दिन की चांदी फिर अंधेरे रात ... चोर से घर में मोर .. आदि आदि ... अब यदी इस 'च' पर लिखने लगो तो तुलसी दास की चौपाई भी तो इसी से बनी है !

मै बात बस इसलिए लिख रहा हूँ की भाई या तो 'च' से इस पर चुप्पी साध लो या इसी पढ़कर चतुर बन जाओ! नही तो ज्यादातर समाज और देश के सामने तुम चूतिया तो हो ही !

सखी वे मुझसे कहकर जाते....... (करवा चौथ)

सखी वे मुझसे कहकर जाते.......
अपनी बात हमें बतलाते
तो क्या उनको नही पिलाती

मदिरा की तुम बात करो मत
और भी चीजे हैं पीने की
इससे नही भरा दिल सबका
कोई है क्या जो ये न माने
बात बात पर कसमे खाना
जीने मरने की वो बातें
भूखे कट जाती हैं रातें
फिर भी उनको याद दिलाती
बिना बर्फ के नही पिलाती

सखी वे मुझसे कहकर जाते.......
अपनी बात हमें बतलाते
तो क्या उनको नही पिलाती


करवा चौथ तो मै हर दिन रहती
बिन खाए उपाय मै करती
किसी तरह से पैसा आए
प्रीतम पीकर खुश हो जायें
उनसे कुछ मै नही छुपाती
बात थी बस एक करवा चौथ की
अगले दिन मै याद दिलाती
सखी वे मुझसे कहकर जाते
तो क्या उनको नही पिलाती


सखी वे मुझसे कहकर जाते.......
अपनी बात हमें बतलातेतो
क्या उनको नही पिलाती

Thursday, October 16, 2008

हम शर्मिंदा हैं कि---

अभी हाल ही मैं मैंने एक फिल्म देखी, आतंकवाद के लिहाज से यह फिल्म काफी चर्चित है। शायद आप समझ गये होंगे फिल्म का नाम है -a wednesday. फिल्म में दिखाया गया है एक आदमी की जिंदगी आतंकवाद और दहशतगर्दी से परेशान है।

फिल्म काफी अच्छी है। इस फिल्म पर एक बात मैने से गौर की वह यह कि वह आदमी जब डायलॉग बोलता कि कोई मादर... हमारे घर में घुस कर हमें मारे और हम चुपचाप तमाशा देखते रहें। यह एक बहु-चचिर्त गाली है जो गांव-कस्बों से लेकर शहरों तक आम है। मैं बात कर रहा हूं कि कोई मादर.... ही क्यों क्या कोई गांडू नहीं कहा जा सकता था। लेकिन नहीं क्योंकि फिल्म पर तब वह डायलॉग शायद उतना नहीं अच्छा लगता। यह मेरी नहीं यह आम राय है।

आज महिला सशक्तिकरण का दौर हैं महिलाएं अपने अधिकारों और हक के लिए लड़ाई लड़ रही है। हजारों की संख्या में महिला शसक्तिकरण पर स्वयं सेवी संस्थाएं काम कर रही हैं। संसद में महिला आरक्षण बिल पर बहस चल नही है। लेकिन क्या ये गाली-गलौच की भाषा, जो पुराने समय से महिलाओं पर बनी है, रोक लग पायेगी कहना कठिन है। महिलाएं सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से हमेशा से ही पिछड़ी रही हैं! यह सब तो तभी रूक सकता है जब तक महिलाएं शैक्षिक दृष्टि से एक उचित समान-स्तर प्राप्त नहीं कर लेतीं। इतना ही नहीं समाज के सभी वर्गों की सामाजिक सोच जब तक नहीं बदलती तब तक यह कह पाना कि इन गालियों पर रोक लग पायेगी सम्भव नहीं है।
हम तो बस यहीं कहेगें कि हम शर्मिंदा हैं।

Wednesday, October 15, 2008

मानसिक विकलांगता।

विकलांगता अभिषाप है या वरदान यह बात मेरे समझ से परे है। परन्तु यह कहना सही होगा उनके बारे में ‘‘हम भी इंसान हैं तुम्हारी तरह, न कुछ खास और न असाधारण। चलो इस सब को कुछ देर के लिए अलग रखे और देखें आखिर विकलांगता है क्या?


शरीर के किसी अंग में यदि कोई विकृति आ जाती है, आम बोलचाल की भाषा में उसे विकलांगता कहते हैं। जैसे चलने में परेशानी , दिखाई न देना, सुनाई न देना और बोलने में असमर्थता। लेकिन कुछ विकलांगत ऐसी है तो किसी को दिखाई नहीं देती, मतलब यह कि वह आंतरिक होती है। उसे समझना भी थोड़ा कठिन है। इसे कहते हैं मानसिक विकलांगता।


आजकल मानसिक विकलांगता काफी बढ़ रही है। शारीरिक विकलांगता को वैज्ञानिक तरीकों से ठीक किया जा रहा है या कहें उसे काफी हद तक छिपाया जा रहा है। सफलता भी मिली है इसमें। लेकिन मानसिक विकलांगा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। आज प्रति हजार नवजात शिशुओं में 1।5 से 3.5 तक बच्चे इससे पीड़ित हैं। गर्भावस्था में तनावपूर्ण जीवन इसका प्रमुख कारण है।


दूसरा प्रमुख कारण है गरीबी। गरीबी और विकलांगता का संबंध उसी तरह का जिस तरह अमीरी और गरीबी का। यहां तक बात तो ठीक थी लेकिन अब इसने अमीर वर्ग तक अपने हाथ फैलाने शुरू कर दिये हैं। jankar बताते हैं इसका कारण भौतिकवादी सोच है। भूमण्डलीकरण के दौर में हर इंसान सुख-समृद्धि चाहता है। और यह सुख-समृद्धि है-सामाजिक ऐशो -आराम के संसाधन, सामाजिक प्रतिष्ठा रौब-रूतबा। जाहिर सी बात है इतना सब कुछ पाने के लिए इंसान को जद्दोजहद तो करनी पड़ेगी। जिससे इंसान को अपनी क्षमता से अधिक काम करना पड़ रहा है। इतना ही उसे देर तक और दबाव में भी काम करना पड़ रहा है। शायद अब इसे और भी गंभीरता से लिया जा रहा है। बात यह है कि धनी वर्ग इस बीमारी को सबसे घातक बता रहा है। गरीब का क्या उसे तो समझौते करने की आदत जो बन गयी है। वह तो बस यही सोच कर तसल्ली कर लेता है हम तो गरीब हैं। बस।


जो भी हो इसे रोकने के तरीको पर अब गौर किया जाने लगा है। अस्पतालों में अब मनो चिकित्स की niyuktiaayan बढ़ाई जा रही हैं। सरकारी और अर्ध-सरकारी कम्पनियां बाकायदा अपने यहां मनोचिकित्स (सलाहकार) नियुक्त कर रही हैं। कारपोरेट जगत इससे कहीं बढ़कर आगे काम कर रहा है। वहां तो बाकायदा जिम, स्वीमिंग पुल, खेल और विभिन्न मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराये जा रहे हैं। और हो भी क्यों न, ज्यादातर बीमारियां भी तो यही दे रहे हैं। यह तो वही बात हुई तुम्हीं ने दर्द दिया तुम्हीं दवा दोगे। जैसा कि सर्व विदित है कि स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस में काफी सक्रिय होकर काम कर रही हैं।


हमें तो बस यही उम्मीद है यह समस्या धीरे-धीरे बढ़ने की बजाय जल्दी से जल्दी समाप्त हो जाये।

गरीबी की परिभाषा जो मुझे ठीक लगी।

‘गरीबी की रेखा एक ऐसी रेखा है जो गरीब के ऊपर से और अमीर के नीचे से गुजरती है।’ यह परिभाषा सैद्धांतिक भले न हो, व्यावहारिक और जमीनी तो जरूर है। गरीबी की रेखा के जरिये राज्य ऐसे लोगों को पहचानने की औपचारिकता पूरी करता है जो अभाव में जी रहे हैं। जिन्हें रोज खाना नहीं मिलता। जिनके पास रोजगार नहीं है। छप्पर या तो नहीं है या सिर्फ नाम भर का है। कपड़ों के नाम पर वे कुछ चिथड़ों में लिपटे रहते हैं। इन्हें विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा माना जाने लगा है। विडम्बना यह कि विकास का एक अहम् मापदण्ड भी यही है कि इन लोगों को गरीबी के दायरे से बाहर निकाला जाए। इसी दुविधा में संसाधन लगातार झोंके जा रहे हैं। पिछले दो दशकों में इन गरीबों को गरीबी की रेखा से ऊपर लाने के लिए 45 हजार करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं। पर अध्ययन बताते हैं कि निर्धारित लक्ष्य का केवल 18 से 20 प्रतिशत हिस्सा ही हासिल किया जा सका है।

Tuesday, October 14, 2008

कौन जाने कल को इसी बहाने लिखने भी लगूं!

आज मैं फिर से लिखने बैठ गया। अभी लिखना शुरू ही किया था कि अचानक एक बात याद आ गयी। मैंने उसे उस बात को कहीं पर पढ़ा था। ठीक से याद नहीं कहां लेकिन यह जरूर कह सकता हूं कि शायद वह रसियन किताब थी।

लिखा कुछ इस तरह था-
इस जीवन में मरना तो कुछ कठिन नहीं,
किन्तु बनाना इस जीवन को इससे कठिन नहीं।

मैंने इसे इसे ऐसे कहा-
नया नहीं कुछ इस जीवन में मरना
पर जीना भी इससे नया नहीं।

यह मैं इसलिए नहीं लिखना चाह रहा था कि इसमें मरना लिखा है। पर बाद में सोचा कि जो सही है उसे लिखा तो जा ही सकता है। बात यह है कि सत्य को लिखे बिना रहा नहीं जाता। हां यह बात अलग है कि सत्य बोलना उतना आसान नहीं। लेकिन क्या लिखना कठिन है। इसमें लोगों की राय होगी नहीं। शायद नहीं।

जैसे कि मैंने ऊपर लिखा कि मैं लिखने बैठ गया। इससे तो ऐसा लगता है कई सालों से लिख रहा हूँ। लेकिन ऐसा नहीं, मैंने अभी-अभी लिखना शुरू किया है। मैंने अभी-अभी एक किताब की समीक्षा पढ़ी थी उसमें लिखा था कि लिखने के लिए दाढ़ी बढ़ाना जरूरी है सो आजकल मैं भी बढ़ाने लगा। सोचा शायद इससे मेरे लेखन में कुछ बदलाव आये। फिर सोचा यह तो लेखक लोग बढ़ाते हैं और मैं कोई लेखक तो हूँ नहीं।

खैर जब लिखना शुरू कर ही दिया है तो अब रूकना कैसा? जो मन में आयेगा लिखूंगा। ऐसा मैने इसलिए लिखा कि कोई मेहनताने के लिए तो लिख नहीं रहा मतलब किसी अखबार या मीडिया के लिए। तो जो अखबार वाले चाहेंगे वो लिखूंगा अरे मैं तो अपने लिखने की भूख को शांत करने के लिए लिख रहा हूं। तो लिखूंगा। कहा भी गया है कि भूख मिटाने के लिए आदमी क्या-क्या नहीं करता, ठीक है। जीं हां इसमें कोई तर्क नहीं दे सकता। अब यह बात अलग है कि कुछ लोग तर्क औरह कुतर्क में माहिर होते हैं। उन्हें तो बस मसाला कहं या मामला कहंे, चाहिए और वो आ जाते हैं तर्क करने।

लिख मैं इसलिए भी रहा हूं कि कौन जाने कल शायद इसी बहाने लिख लगूं।

ललित साहित्य

देवी - देवताओं सम्बन्धी कल्पनाओ को धार्मिक साहित्य कहा जाता है मगर वास्तव में यह ललित साहित्य ही है = गोर्की

नासमझ कहीं का!

बचपन से एक कहावत सुनता चला आ रहा हूँ-‘‘पढ़िगै पूत कुम्हार के सोलह दूनी आठ’’। यह कहना गलत होगा कि कहावत में दम नहीं। कहावतें ऐसी नहीं बन गयीं। ऐसा सयाने लोग कहते हैं। जरूर ही कहावत में कोई न कोई गुप्त भेद छुपा होता है। सच्चाई छिपी होती है। कहने वाले यह भी कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं कि सभी कहावतों का मतलब निकलता ही हो। एक महायश ने कहा किसी भी काम में दो तर्क दिये जाते हैं- कोई भी काम मतलब को होता है और दूसरा उसी काम को बेमतलब का कहता है।

जाहिर है कि जो मैं यह लिख रहा हूँ कुछ लोगों के लिए बेमतलब की भी हो सकती है लेकिन मेरे लिए तो कम से कम मतलब की ही है। शायद उन लोगों को यह सुनकर भी अच्छा नहीं लगा होगा कि क्या बेमतलब की बात लिख रहा है। कहावत है-‘‘थूक और चाट’’। मतलब यह है कि गलत काम दुबारा नहीं होगा। यदि ऐसा नहीं किया तो खैर नहीं। इससे यह मतलब नहीं निकालना चाहिए कि गलती करने वाला इससे दुबारा गलती नहीं करेगा।

खैर इस बेमतलब और मतलब की बात पर बात करना तो वाकई बेमतलब है। इसका अंदाजा मुझे भी है। बात चल रही है मुहावरों की। तो जो ऊपर लिखा पहला मुहावरा है उसके बारे में मैने कुछ लोगों से विचार जाने, जिनमें कुछ लोग जाने माने हैं मतलब विद्वान लोग और कुछ अनजाने मतलब साधारण लोग बोलचाल की भाषा में कहें तो आम आदमी के विचार।

‘‘यह जरूर ही कुछ अनपढ़ लोगांे पर कहा गया होगा। जिसने भी यह कहा होगा वह अवश्य ही विद्वान होगा। नहीं, ऐसी बात नहीं, मेरा मतलब है कि जरूर विरोधी जाति का व्यक्ति रहा होगा जो उस अनपढ़ आदमी से जलता होगा। ऐसा भी हो सकता है कि वह ऐसा कहके उस व्यक्ति की भूल को सुधारना चाहता हो’’। यह कहने वाले थे स्वयं एक विद्वान, जो शायद या पक्की तौर पर प्रोफेसर थे। हां वही थे।

दूसरे व्यक्ति का नजरिया कुछ ऐसा था-‘‘शायद हिसाब-किताब में कुछ गड़बड़ी हो गयी होगी इसलिए बनिये ने यह कहा होगा। लेकिन इस लिए नहीं कि ‘वह व्यक्ति’ वास्तव में नासमझ था। बात यह थी बनिया ही उसे बेवकूफ बना रहा था।’’ यह धारणा आम आदमी की थी।

मेरी जागरूकता पता नहीं क्यों इस कहावत में इतनी ज्यादा बढ़ गयी। इसलिए मैं जाति से कुम्हार हूँ। लेकिन पेशे से नहीं। क्या यह भी बताना जरूरी था? जी हां इसलिए कि जाति और पेशे अलग-अलग दो बातें नहीं। नहीं, दो बातें ही हैं। कम से कम समाजशास्त्र की तो परिभाषा में तो यही आता

लोग कहते हैं कि कहावतें विद्वान मनुष्यों ने बनायी। जैसे ‘‘चोली दामन का साथ। सयाने लोग कहते हैं कि इसकी मतलब है बहुत गहरा रिश्ता। पर महोदय जब इसकी को कहेंगे कि चोली के पीछे क्या है। तब। समझो बात बिगड़ गयी। विद्वान लोग कहेंगे कि यह कहावत हो ही नहीं सकती। यह तो फूहड़ फिल्मी गाना है। जी हां। समझाओ जरा इसे यह कहावत कैसे बन गयी। अरे भाई इसमें भी तो चोली शब्द है। दूसरे ने तर्क दिया। क्या यह सुनकर गाली-गलौच और मार-पीट की नौबत नहीं आ सकती।

मैं भी क्या बेमतलब की बात लिखने लगा। मुझे तो बस यही समझना है कि उस उपरोक्त कहावत का मूल अर्थ क्या है। शायद यह मेरे लिए मतलब की बात है। यदि आपमें किसी को बेमतलब की बात लगी हो तो भी पढ़ना जरुर क्यूंकि यह जरुरी नहीं है कि यह आपके लिए भी बेमतल कि बात होगी!

Monday, October 13, 2008

आदमी और हथियार ही कानूनों की ताकत और सम्बल है।

आदमी और हथियार ही कानूनों की ताकत और सम्बल है।

सपना

जब मार्सेज ने सपना देख कि उसने डायनोसियस का गला काट दिया है तब उसे मृत्युदंड दिया गया। दलील यह दी गयी कि यदि उसने दिन में ऐसा नहीं सोचा होता हो तो रात में यह सपना कदापि नहीं देखता।

मौत से बचाने की बजाय जीने दो।

उसे मौत से बचाने की बजाय जीने दो। जीवन संास लेना हीं बल्कि कर्म है। अपनी इंद्रियों का अपने दिमाग का, अपनी क्षमताओं का और अपने अस्तित्व का को चेतन बनाये रखने वाले प्रत्येक भाग का इस्तेमाल करना है। जीवन का अर्थ उसकी लम्बाई में नहीं, जीने के बेहतर ढंग में अधिक है। एक आदमी सौ साल जीने की बाद कब्र में जा सकता है। लेकिन उसका जीवन निरर्थक भी हो सकता है। अच्छा होता वह जवानी में मर गया होता।

हिचकिचाना एक तरह से अपराध ही है-भगतसिंह

हिचकिचाना एक तरह से अपराध ही है-भगतसिंह

महान इसलिए महान हैं कि हम घुटनों पर हैं, आओ उठ खड़े हों

महान इसलिए महान हैं कि हम घुटनों पर हैं, आओ उठ खड़े हों

तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दु’मन नहीं है,

तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दु’मन नहीं है,अफसोस? मेरे दोस्त, इस शेखी में दम नहीं।जो शामिल होता है फर्ज की लड़ाई मे,जिस बहादुर लड़ते ही हैं, उसके दु’मन होते ही हैंअगर नहीं है तुम्हारे, तो वह काम ही तुच्छ हैं, जो तुमने किया है,तुमने किसी गद्दार के कूल्हे पर वार नहीं किया है।
तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है,अफसोस? मेरे दोस्त, इस शेखी में दम नहीं।जो शामिल होता है फर्ज की लड़ाई मे,जिस बहादुर लड़ते ही हैं, उसके दुश्मन होते ही हैंअगर नहीं है तुम्हारे, तो वह काम ही तुच्छ हैं, जो तुमने किया है,तुमने किसी गद्दार के कूल्हे पर वार नहीं किया है।

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