इस समय जो परिस्थिति है
हमारे देश की जो स्थिति है
वही हमारे पड़ोसी मुल्क की है
फिर भी उसके दिमाग की बत्ती गुल है
हम परेशान हैं कि हर बार की तरह इस बार भी,
हमारे देश को ही क्यूँ चुना?
वो भी हैरान हैं कि हर बार की तरह इस बार भी,
हमारे देश का ही नाम क्यूँ चुना?
वो कहते हैं कि हमारे देश को बदनाम क्यूँ करते हो?
हम कहते हैं कि हमारे देश में ही क्यूँ तुम यह काम करते हो?
वो कहते हैं कि हमें पता नही कि दहशतगर्द कंहा रहते,
हम कहते हैं कि एक बार आने दो हमें,
हम पता कर लेंगे कि वो कंहा - कंहा नही रहते!
आतंक, दहशतगर्दी वो सिर्फ़ जेहाद के लिए करते हैं
हम बार बार उनसे प्रार्थना करते हैं
क्या खुदा इसी से खुश होगा?
तुम्हे इसके बदले दुआ में क्या - क्या देगा?
अब इससे पहले खुदा उन्हें कुछ दे
हम प्रार्थना के बदले उन्हें मौत देंगे
'शिशु' इस देश की बात नही करते
पुरे विश्व में दहशतगर्दों को सख्त सज़ा देंगे
Saturday, November 29, 2008
दफ़न न होते आज़ादी पर मरने वाले
दफ़न न होते आज़ादी पर मरने वाले,
पैदा करते हैं मुक्ति बीज,
फिर और बीज पैदा करने को,
जिसे ले जाती हवा दूर,
और फिर बोती है,
और जिसे पोषित करते हैं
वर्षा, जल और हिम!
देहमुक्त जो हुआ,
आत्मा उसे न कर सके विछ्न्न,
अस्त्र - शस्त्र अत्याचारों के,
बल्कि हो अजेय रमती धरती पर,
मर्मर करती बतियाती चौकस करती !!
(यह कविता भगत सिंह की आत्मकथा में संगृहीत है )
पैदा करते हैं मुक्ति बीज,
फिर और बीज पैदा करने को,
जिसे ले जाती हवा दूर,
और फिर बोती है,
और जिसे पोषित करते हैं
वर्षा, जल और हिम!
देहमुक्त जो हुआ,
आत्मा उसे न कर सके विछ्न्न,
अस्त्र - शस्त्र अत्याचारों के,
बल्कि हो अजेय रमती धरती पर,
मर्मर करती बतियाती चौकस करती !!
(यह कविता भगत सिंह की आत्मकथा में संगृहीत है )
Friday, November 28, 2008
पप्पू नही कहाऊंगा
मौसम सर्द है
सर में कुछ कुछ दर्द है
फिर भी वोट डालने जाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा
कमीशन ने समझाया है,
मेरे दिमाग में आया है
हर बना मै पप्पू
इस बार नही बन जाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा
सुबह बिना कुछ खाए
और बिना ही नहाये
मोर्निंग वाल्क न जाऊंगा
बूथ की दौड़ लगाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा
कोई जीते कोई हारे
फर्क नही कुछ भी पड़ता
लेकिन ये सच है भाई
हर दम यही ख्याल रहता
ख़त्म इलेक्शन जैसे होगा
हलुआ पुरी खाऊँगा
पर पप्पू नही कहाऊंगा
सर में कुछ कुछ दर्द है
फिर भी वोट डालने जाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा
कमीशन ने समझाया है,
मेरे दिमाग में आया है
हर बना मै पप्पू
इस बार नही बन जाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा
सुबह बिना कुछ खाए
और बिना ही नहाये
मोर्निंग वाल्क न जाऊंगा
बूथ की दौड़ लगाऊंगा
पप्पू नही कहाऊंगा
कोई जीते कोई हारे
फर्क नही कुछ भी पड़ता
लेकिन ये सच है भाई
हर दम यही ख्याल रहता
ख़त्म इलेक्शन जैसे होगा
हलुआ पुरी खाऊँगा
पर पप्पू नही कहाऊंगा
Thursday, November 27, 2008
पापी मैं नहीं, पापी मेरा पेट है
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-
विवाह काले रति संप्रयोगे प्राणाताये सर्वधनापहारे।
विप्रभ्य चार्थे ह्यन्नुतम वदते पक्षी वृतान्यत्नूर।।
अर्थात विवाह के बाद रतिक्रीडा, प्राणवियोग (आत्महत्या) और सर्व स्वापहरण (खुद का धन चुराने) के समय तथा ब्राहम्ण के निमित्त (नियमित) मिथ्या प्रयोग करने से पाप नहीं लगता।
कहा जाता है कि इस दुनिया संसार कोई भी दूध का धुला नहीं है। हर मनुष्य पापी है। फिर चाहे वह राजा हो या रंक। हां पाप करने के तरीके हर किसी के अपने-अपने हैं। और इन किये गये पापों के परिणाम भी अलग अलग तरह के हैं। हर कोई पाप किसी न किसी प्रयोजन के लिए ही करता है। धनीवर्ग पाप करता है पूंजी जमा करने के लिए, नाम के लिए, शोहरत के लिए और ऐशो-आराम के लिए। बाबा लोग पाप के भागीदार बनते हैं पुण्य कमाने के लिए। नेता पाप करते हैं कुर्सी पाने के लिए और राजनेता पाप करते हैं इतिहास दोहराने के लिए। इसी तरह आतंकवादी पाप करते हैं भगवान को खुश करने के लिए अर्थात जेहाद के लिए। हां, आम आदमी का पाप केवल पापी पेट को पालने के लिए होता है। कहने का तात्पर्य यह कि इस पाप की दुनिया में हर कोई पापी है आम आदमी से लेकर खास आदमी तक। भ्रष्टाचार, सूदखोरी, जमाखोरी, चोरी-चकारी, क्या है? पाप है और क्या? लेकिन फिर भी लोग किये जा रहे हैं।
पिता, माता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, कन्या, भार्या, स्वामी, कुटुम्ब के लिए मनुष्य सदियों से पाप करता आ रहा है। किसलिए इसी पापी पेट के लिए। इसी पापी पेट की खातिर आर्य लोग चार श्रेणियों में विभक्त हुए - ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वै’य और शूद्र। यहां शूद्र सबसे निचनी श्रेणी के पापी हैं। इसलिए तब से अब तक सबसे ज्यादा पाप के भागीदार यही लोग हैं। ऐसा शास्त्रों में लिखा है। कहा तो यहां तक जाता है कि पहले के समय यदि मनुष्य समुद्र यात्रा करे तो वह पाप का भागीदार माना जाता था, तो क्या मनुष्य ने समुद्र के रास्ते से यात्रा नही की। की है, किसलिए इसी पापी पेट के लिए।
गीता में जब अर्जुन अपनों के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए तैयार नहीं होते तो श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश दिया। हे पार्थ धर्म की रक्षा करने के लिए अपने सगे-संबंधियों का वध करोगे तो तुम्हें पाप नहीं लगेगा। यहां पर अर्जुन का उस समय धर्म क्या था? यही कि अपने भाइयों और सगे-संबंधियों का पेट पालन और कोई दूसरा धर्म तो हमें दिखाई नहीं देता। तो क्या श्रीकृष्ण ने पाप की शिक्षा अर्जुन को नहीं दी, ऐसा कहने से हम विर्धमी कहलाये जायेंगे और पाप की श्रेणी में आ जायेंगे। इसलिए मैं ऐसा पाप नहीं करना चाहता।
जो भी हो मनुष्य जीवन चिरकाल से ही पाप की गठरी से परिपूर्ण है। फिर आप भी हमसे पूछेंगे कि ‘तू क्या पापी नहीं है, इसका मतलब तू भी पापी है।’ जनाब उस समय तो मैं यही कहूंगा कि पापी मैं नहीं पापी मेरा पेट है।
Wednesday, November 26, 2008
तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है!
तुम कहते हो, तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं है,
अफसोस?
मेरे दोस्त,
इस शेखी में दम नहीं है
जो शामिल होता है फर्ज की लड़ाई मे,
जिस बहादुर लड़ते ही हैं,
उसके दुश्मन होते ही हैं
अगर नहीं है तुम्हारे,
तो वह काम ही तुच्छ हैं,
जो तुमने किया है,
तुमने किसी गद्दार के कूल्हे पर वार नहीं किया है।
- भगत सिंह (ये कविता भगत सिंह एक जीवनी से ली गई है)
अफसोस?
मेरे दोस्त,
इस शेखी में दम नहीं है
जो शामिल होता है फर्ज की लड़ाई मे,
जिस बहादुर लड़ते ही हैं,
उसके दुश्मन होते ही हैं
अगर नहीं है तुम्हारे,
तो वह काम ही तुच्छ हैं,
जो तुमने किया है,
तुमने किसी गद्दार के कूल्हे पर वार नहीं किया है।
- भगत सिंह (ये कविता भगत सिंह एक जीवनी से ली गई है)
रोजी-रोटी के लिए पलायन से बढ़ रही है शहरी गरीबी
गरीबी की पहचान को लेकर व्यापक बहस चल रही है। सरकार ने यह साबित करने की कोशिश की है कि गरीबी कम हुई है। इसके लिए आंकड़े तक सरकार द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे हैं। लेकिन इसके विपरीत स्वयंसेवी संस्थाओं की माने तो गरीबी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ी है। हालांकि पहले गरीबी केवल गावों में ही देखी जाती थी लेकिन अब गरीबी शहरों में ज्यादा है। इन स्वयंसेवी संस्थाओं की बातों पर गौर करें तो गांव के गरीबों की तुलना में शहरी गरीबी की हालत ज्यादा ही दयनीय है। ऐसा माना जाता है कि गरीबी तुलनात्मक आधार पर आंकी जाती है। जहां अमेरिका में दैनिक पारिवारिक आय 20 डालर या 800 रूप्ये प्रतिदिन हो तो वह गरीब माना जाता है। हमारे देश में महानगरों में फ्रिज और टीवी एवं पंखे के साथ झुग्गी में रहने वाले परिवार को गरीब माना जाता है। वहीं गावां में बिना फ्रिज, टीवी और कूलर के पक्के मकान में रहने वाला परिवार समृद्ध परिवार की श्रेणी में गिना जाता है। कुछ भी हो भुखमरी और गरीबी से त्रस्त लगभग 80 हजार लोग हर महीने काम के अभाव में पेट की आग बुझाने के लिये महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। शहरी गरीब परिवारों की काफी संख्या सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों जैसे अनुसूचित जाति ओर अन्य पिछड़ी जातियों में से है।
इस बढ़ती शहरी गरीबी पर गौर करें तो देखेंगे कि अब पहले की तुलना में शहरों की तरफ गरीबों का पलायन ज्यादा बढ़ा है। जहां पहले गावों में छोटे-छोटे उद्योग जो उनके लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते थे, कम हो रहे हैं। गांधी जी के चरखों का प्रचलन कम हो रहा है। ये चरखे जहां पहले उन्हें पैसे के अलावा ओढ़ने और पहनने के लिए कपड़े भी उपलबध कराते थे अब लगभग बंद ही हो गये हैं। सनई के बान जिनसे चारपाई बुनी जाती थी, अब लगभग समाप्त ही हो गये हैं। सिलाई का काम करने वाले ज्यादातर लोग मुस्लिम समुदाय के होते थे, उनकी सिलाई मशीने बंद हो गयी हैं। इन सिलाई मशीनों की जगह पर अब सिले-सिलाये कपड़ों ने ले लिया है। इसलिए उनका पलायन भी शहरों की ओर बढ़ रहा है।
बिहार में आयी इस बार की बाढ़ जिसे वहां के गरीब लोग दैवी आपदा मानते हैं, के कारण उनके घरों के चुल्हें ठंडे कर दिये। ऐसे लोग बाध्य होकर पेट की ज्वाला बुझाने के लिए भूख से तड़पते परिवारीजनों को लेकर महानगरों को कूच कर रहे हैं।
गरीबों का शहरों की ओर पलायन का यही एक मुख्य कारण है। ऐसा नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर ध्यान दें तो पायेंगे कि अब पहले की तुलना में गावों में शिक्षा का स्तर सुधरा है। वहां के युवा शिक्षित होकर काम के तलाश में शहरों की तरफ रूख करते हैं।
इस बढ़ते पलायन को बढ़ावा देने में हमारा मीडिया और टीवी जगत का भी बहुत बड़ा योगदान है। उसने फिल्मी दुनिया की चकाचौध कुछ इस तरह से दिखाई है कि गांव का युवावर्ग जींस और टी’ार्ट पहनने के चक्कर में गावों से शहरों की तरफ खिचें चले आ रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन भी गरीबी को बढ़ाने में अपना काम कर रही है। इसका सीधा असर खेती पर देखा जा रहा है। जिन इलाकों में पहले बारिस होती थी वहां सूखा पड़ रहा है और जहां सूखा था वहां बारिस हो रही है जिसके कारण खेती की फसल बेकार हो रही है। इस तरह खेती की दयनीय स्थिति को देखकर गांव के ज्यादातर लोग शहरों में पलायन कर रहे हैं।
जो भी हो यह तो स्पष्ट है कि इस पलायन ने शहरों में गरीबी के आंकड़ों को गावों की तुलना में बढ़ाया है। जिससे शहरों में रोजगार की कमी हो रही है। इस बढ़ती शहरी गरीबी को कम करने के लिए सरकार समय-समय पर संगोष्ठियां, सेमिनार आयोजित करता रहता है। आज विश्व के ज्यादातर महत्वपूर्ण निर्णय, खासकर, के आर्थिक नीतियों से सम्बन्धित, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, पूँजीपतियों - औद्योगिक घरानों के दबाव में या उनके पक्ष में लिए जा रहे हैं। और ये संस्थान गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए विकासशील देशों पर अपने दबाव डालते हैं। वर्तमान सरकार ने ग्रामीण गरीब अकुशल मजदूरों के लिए करीब एक वर्ष पहले राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाया। सरकारी योजनाओं की तरह राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में अनियमितताएँ व भ्रष्टाचार नहीं होगा आखिर इसकी क्या गारंटी है। दूसरी बात यह कि क्या 100 दिन के रोजगार से गावों से पलायन करने वालों की कमी होगी? ऐसी योजनाएं क्या गावों के गरीबों को पलायन रोकने में सहायक साबित होंगी अभी से कहना ठीक नहीं होगा।
Sunday, November 23, 2008
इसीलिये देलही में सिक्को की कमी है.... !
आजकल मार्केट में सिक्को की कमी देखी जा रही है। हर कोई इन सिक्को को लेकर परेशान है. देलही की बसों का तो और भी बुरा हाल है. वंहा पर बस कंडेक्टर और यात्रियों के बीच कहा सुनी से लेकर मारपीट तक की नौबत आ जाती है. मार्केट में इन सिक्को के कारण उपभोक्ताओं को सामान एक - दो रूपये का ज्यादा खरीदना पड़ रहा है.
इन सिक्को की कमी का कारण आम आदमी के समझ से परे है। वो तो पहले ही रुपये की कमी से परेशान हैं. एक तो तन्खवाह नही मिल रही दूसरी तरह चीजो के दाम इतने बढ़ गए हैं की तंगहाली की नौबत आ गई है. एक तो महगाई और ऊपर से चुनाव सोने पर सुहागा है. उसपर से इन सिक्कों की कमी. और कारणों को समझाना थोड़ा कठिन है लेकिन सिक्को की कमी की बात अब समझ में आ रही है.
दरअसल चुनावी समर को भुनाने के लिए जब से नेताओं में खुद को सिक्कों में तौलवाने की होड़ लगी है तब से देलही में सिक्के जैसे गायब ही हो गए हैं। सिक्के तौलने वालों की जैसे लाटरी लग गई है। नेताओं को तौलने के लिए न केवल अब किराए पर तराजू मिल रहे हैंए बल्कि हजारों का कारोबार शुरू हो चुका है। इन दिनों में एक आध लोग तो दुकानदारों को सिक्कों की सप्लाई का काम करते हैं रोजाना दो से चार नेताओं द्वारा तराजू बुक कराया जा रहा है। नेताजी भी किराए के तराजू व सिक्कों में खुद को तौलवा कर इतराते नहीं थकते।
जो भी हो इतना तय है की चुनाव आते ही आम जनता की मुश्किलें बढ़ जाती हैं. कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं. की देलही में मिठाई के दुकानों में लड्डुओं की भारी कमी है. क्यूंकि कुछ नेता तो अपने को लड्डुओं से भी तुला रहे हैं. मिठाई बेंचने वाले खुश हैं लेकिन खाने वाले नाखुश. सीधी सी बात यह है इन के चक्कर में हम जैसे लोग जो बसों में सफर करते हैं परेशान हैं वो परेशान वो लोग भी हैं जो लड्डू खाने के शौकीन हैं. नही तो नेताओं और दूकानदारों के दोनों हाथों में लड्डू तो हैं ही.
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