Saturday, November 2, 2019

लल्ला बनिया की दुकान।



लल्ला बनिया की दुकान हमारे समय का मॉल थी। दुकान क्या थी, इंच भर भी कहीं कोई जगह खाली न थी। हमेशा खचाखच भरी रहने वाली दुकान को देखकर आश्चर्य होता था कि, दुकानदार को इतना सब कैसे मालूम है कि, कौन सी जगह पर कौन सा सामन रखा है। जड़ी, बूटियाँ, लोन, तेल, हद्दी, खड़े पिसे मसाले, गर्री, छोहारे, मुनक्का, बताशा, हींग, साबुन-सोडा सब कुछ। कभी कभी कोई पूछ लेता चाचा सूजी है, वो कहते है, तब सूजी का मतलब सूजी ही था। इसके अलावा, चुटीला, सीसा कंघा के अलावा खाने पीने की सभी वस्तुवें, पिसान (आटा), चावल, दाल, से लेकर घर के उपयोग की सभी वस्तुएँ मिल जाती थीं उस छोटी सी दुकान में।

प्राइमरी स्कूल के दिनों में रमेश चंद्र पाठक चाचा की दुकान से पहले सभी स्टेशनरी, खड़िया, चॉक, दावात, पेंसिल, पेन, जामेट्री बॉक्स और वो कोरस की कॉपी, चौपतिया (अक्षर ज्ञान, मात्राएँ, गिनती और पहाड़े आदि की कुंजी) तथा इतिहास भूगोल की क़िताब आदि सब हम वहीं से तो खरीदते थे।  

क्या भीड़ रहती थी, छोटे बच्चे कम्पट खरीद रहे होते, किसान बीड़ी और तंबाकू, स्कूल जाने वाले बच्चे कॉपी किताब और घर गृहस्थी का सामान खरीदने वाले लोन तेल। अच्छा एक बात और दुकानदार सभी को एक नज़र से देखते, सबको संतुष्ट करते। कभी गुस्सा होते नहीं देखा। हम तो अनाज लेकर जाते थे, तब पैसे होते नहीं थे, अनाज तौलकर पूरा हिसाब करना आसान काम नहीं था, सभी हिसाब चुटकियों में कर देते, सामान के पैसे काटकर बाकी वापस कर देते थे। कई बार अम्मा बोलतीं जाओ ये सामान वापस करके दूसरा सामान ले आओ तब बहुत गुस्सा आता, आधे रास्ते से वापस आकर कह देता दुकानदार वापस नहीं कर रहा है, लेकिन अब लगता है वे जरूर बदल देते।

किराने की दुकान के बाजू में ही एक कपड़े की भी दुकान थी, जहाँ सुख और दुःख के सभी वस्त्र मिलते थे। इस दुकान में जहाँ छोटे बच्चों के कपड़े फ्रॉक, झबुला, सूट, महिलाओं के लिए साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट, पुरुषों के लिए नेकर, बनियान तथा कुर्ता पायजामा का कपड़ा और छात्रों के लिए स्कूली ड्रेस के लिए सफेद शर्ट और खाकी पैंट का कपड़ा भी वहीं मिलता था, वहीं दूसरी तरफ़, कफ़न और क्रियाकर्म आदि सब समान भी वहीं तो मिलता था। कोई मुंडन, जनेऊ संस्कार के लिए कपड़े खरीदता और तभी जिसके घर ग़मी (मौत) हो जाती वह कफ़न खरीदने आ जाता। जिस तरह के ग्राहक होते थे उसी तरह का हावभाव चेहरे पर लाकर सामान देना वाकई काफी तजुर्बे का काम था।

ये सब यादें और लोग ही मेरे लिये गाँव की धरोहर हैं।

दीपोत्सव की सेल

इस दीपोत्सव के अवसर पर-
यदि कहीं प्यार की सेल दिखे,
कुछ ऐसा मेला, मेल दिखे-
आशीष में भारी छूट दिखे,
सम्मान भी अगर अटूट दिखे,
आकर एक बार बता देना-
उस सेल में जाना चाहूँगा,
वो छूट उठाना चाहूँगा!!!

Wednesday, October 30, 2019

चालू और खसम्मार

चालू और खसम्मार।

अच्छा! जैसे कुछ लोग चोर होते हैं और कुछ लोग उचक्के, वैसे ही कुछ होशियार और कुछ चालाक होते हैं। इन चालाकों को हमारी मातृभाषा में चालू और अइया भी कहा जाता है। खड़ी बोली में चालू को धूर्त कहते हैं, उदाहरण के लिए लोमड़ी। और हाँ इसी तरह के कुछ और भी लोग होते हैं जिन्हें खसम्मार कहा जाता है, ये वे हैं, जो अपना काम दूसरों से करवा लेंगें लेकिन दूसरे व्यक्ति के काम के वक़्त तीन पाँच समझाएंगे या मुकर जाएंगें वो भी गँगा क़सम खाकर।

वैसे मैं गणित का छात्र नहीं रहा, लेकिन, सिद्ध करना मुझे बहुत पसंद है, इसलिए ऐसे चालू और खसम्मारों को इस कहानी द्वारा सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। जैसा कि, सर्वविदित है, हर गाँव में हर तरह के लोग होते हैं तो उसी तरह इस गाँव में भी कुछ चालू हैं, थे और रहेंगें लेकिन खसम्मार थे और हैं। रहेंगें को बाद में सिद्ध करेंगें, हो सकता है बाद में वे सुधर जाएँ। 

आसरे के पड़ोसी औतार अपने गाँव की स्टेशन से घर जाने के बदले सबसे पहले साइकिल मिस्त्री की दुकान पर गए। मिस्त्री का नाम एक बार को चंदन मिस्त्री मान लेते हैं। ये महाशय नई से नई साइकिल में कमी बताकर मिनटों में छर्रा और कटोरी बदल देते थे। ग्रीस लगाने के बदले वे चैन बदलने में भरोसा करते थे और साइकिल का धुरा बदलना उनके बाएं हाथ का काम था। औतार मेरठ से एक पुरानी साइकिल बोरे में भरकर या कहें कि पैक करके ले आये थे, इसलिए उसे कसवाने (फिर से बांधने के लिए) चंदन की दुकान पर ले गए। क़रीब दो घंटे की कड़ी मशक्क़त के बाद चंदन मिस्त्री ने जैसे ही साइकिल तैयार की औतार की खुशी का ठिकाना न रहा। 

फिर साइकिल पर बैठकर ही वे घर गए। कैरियर से थैला उतारकर अपनी माँ को दिया और लगे कहानी सुनाने कि, कैसे उन्होंने मुश्किलों से साइकिल ट्रेन में चढ़ाई, वहाँ कुली को पैसे देने के बाद कैसे रेलवे पुलिस को रिश्वत दी, फिर अपने जंक्शन स्टेशन में चाय और समोसे बेचने वाले को पैसे देकर नौचंदी ट्रेन से नीचे रखवाई, और बाद में उसी बदमाश ने वहाँ की रेलवे पुलिस को बता दिया, तब फिर उन्हें रेलवे पुलिस को भी पैसे खिलाने पड़े। और आखिर में अपनी स्टेशन से छनक्कू चाचा की बैलगाड़ी पर रखकर चंदन मिस्त्री की दुकान तक ले गए और तब जाकर वह फिर से साइकिल के रूप में अवतरित हुई है।" उनके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव को पढ़ा जा सकता था। चाय पीते पीते वे साइकिल को निहारते और मन ही मन मुस्कराते हुए पारले जी बिस्किट के साथ सियाराम की दुकान से लाई हुई नमकीन को चबाते हुए पड़ोसियों से बात करने में मशगूल हो गए।

माँ ने कहा 'थोड़ा आराम कर ले।' वे बोले 'थका कोई हूँ।' चाय पीने के बाद साइकिल स्टैंड से उतारकर, हगने के लिए गाँव के निकट वाले बम्बा पर तक ले गए। वहाँ से आने के बाद गाँव के सार्वजनिक कुंवें जिसे वहाँ के परधान अपनी बपौती बताते थे, पर ख़ूब मलमल कर स्नान किया। साबुन वे मेरठ से ही लेकर आए थे इसलिए दो तीन बार शरीर पर रगड़ा। रोएं रोएं खोल दिए, खूब झाग निकाला। जब तक वे बाल्टी भरकर घर पर पहुँचें, तब तक माँ ने उनकी पसंद का खाना, घी चुपड़ी रोटी और रसीले आलू की सब्जी उन्हें परोस दी। भूखे होने के बावजूद उनका मन खाने में लगता बार बार साइकिल को निहारते और खाना खाने के बाद अचानक बैग से चाय, एक टॉर्च, एक छोटी डाइनुमों से चार्ज होने वाली बैटरी, कुछ कैसेट्स, बिस्कुट के पैकेट, रिंच, पाना, पेंचकस (औज़ार) आदि निकाल निकाल कर माँ को देने लगे। माँ सोच में थी बेटा कमाकर आया है कुछ पैसे देगा लेकिन सबसे बाद में उन्होनें माँ को एक कैंची और 500 सौ रुपये पकड़ाते हुए कहा ये तुम्हारे लिए है। माँ तो माँ थी वो क्या बच्चे से हिसाब माँगती। फिर अचानक बैग से नए कपड़े पहनकर रिश्तेदारी जाने के लिए तैयार होने लगे।

माँ ने समझाया 'अभी दोपहर में कहाँ जा रहा है'। भद्दर दुपहरी है रुक जा, शाम को जाना, जहाँ भी जाना हो'। लेकिन वे भला मानने वाले थे!!! बोले 'तुम्हें दोपहर दिख रही है शाम होने वाली है। हालांकि थी दोपहर ही। 

वैसे भी वे माँ की बात कहाँ मानते थे, इसलिए साइकिल पर पिछले साल मेरठ से लाया हुआ स्टीरियो बांधा, और छोटी बैटरी जिसे इस बार मेरठ से लेकर आए थे, को बांधने लगे, छोटे बच्चे कौतूहलवश देखने के लिए जमा हो गए। माँ ने बच्चों को फटकार लगाते हुए कहा 'भागो सब, क्या यहाँ बौरे गाँव का ऊँट आया है जो इतना जमावड़ा लगाए हो'। उन्होंने आधार की कैसेट को रिवाइंड करके जैसे ही स्टीरियो में लागाई पहले तो रेडियो खरखराया, फिर कैसेट को निकालकर पटका और तब गाना बज उठा 'जिन घर कुल्टा हईं मेहरिया वहु घरु कइसे सुधरी'। 

करीब 15 दिनों बाद वे वापस आए। किसी को बताया नहीं, लेकिन उनकी माँ की मानें तो पहले वे सबसे पहले अपनी ससुराल गए, उसके बाद साले की ससुराल, फिर साली के घर, फिर मौसी के घर, फिर सबसे छोटी बुआ के घर और अंत में अपने बड़े भाई की ससुराल होते हुए मामा के घर नातेदारी खाकर वापस आए हैं। इस बीच माँ बहुत परेशान रहीं। और जैसे ही घर वापस आए माँ से कहा कि कल मैं मेरठ वापस जा रहा हूँ। कहानी की शुरुआत अब होती है।

इधर उधर जाने के कारण उनके पास रखे सभी पैसे खर्च हो गए और वापसी के लिए टिकट के पैसे न थे। माँ से माँगना उन्हें गँवारा न था इसलिए उन्होंने साइकिल बेंचने का मन बनाया, सो उन्होंने अपने पड़ोसी आसरे से कहा चच्चा साइकिल खरीदना तो बताना। ख़ूब भनाभन चलती है। पड़ोसी की नीयत तो पहले दिन से ही ख़राब थी। अब मन मांगी मुराद मिल गई। उनके पास पैसे न थे फिर भी मन मसोजकर कहा भैया तीन सौ रुपये रखे हैं बेंचना हो तो बताना। बड़ी देर सोच समझकर औतार ने हाँ कर दी। 

लेकिन आसरे के घर पैसे न थे। बड़ी देर सोच विचारकर वे अपने हितैषी दोस्त चैतू के घर उससे रूपये उधार लेने गए। दोस्त ने कहा पैसे तो हैं लेकिन तुम्हें पैसे की जरूरत क्यों पड़ी पहले ये बताओ? उन्होंने साइकिल लेने का पूरा प्लान समझा दिया। तब अचानक उनके दोस्त ने कुछ सोचते हुए कहा ठीक है यार शाम को ले जाना।

चैतू ने अपनी पत्नी को बताया कि उनका दोस्त पैसे माँग रहा है उसे साइकिल खरीदनी है। पत्नी ने कहा तुम्हारी मति मारी गई है क्या कितने सालों से मैं सोच रही थी कि हामरे घर भी साइकिल हो, कब तक जेठ जी से माँगते फिरोगे। बड़ा मुँह बनाते हैं। वे तुरंत ही औतार के घर गए और औतार की माँ से कहा भौजी सुना है आप साइकिल बेंच रही हैं। लेकिन इतनी सस्ती साइकिल क्यों बेंच रहे हैं। ये तो काफी महंगी लगती है। औतार ने कहा चच्चा कोई ग्राहक हो बताना। चैतू ने तुरंत बिना देरी लगाए कहा खरीदना तो मैं भी चाहता हूँ। पैसे भी हैं और अनजान बनते हुए कुर्ते में हाथ डालकर पैसे निकालते हुए कहा भतीजे ये हैं अगर इतने में सौदा पट रहा हो ठीक है नही तो कोई बात नहीं। उसमें कुल 520 रुपए थे, औतार को तो साइकिल बेंचनी ही थी। 

चैतू आनन फानन में साइकिल लेकर घर गए, उसे उल्टा गद्दी के सहारे टिकाया और खूब रगड़ रगड़ कर धोया। पहिए, रिम, सब चमकाए। फिर चंदन मिस्त्री की दुकान पर उसे ले गए। वे तो उसी इंतजार में रहते थे, कब कोई आ जाए और उसे काटने का मौका मिल जाए। सो सबसे पहले उन्होनें छर्रा कटोरी बदली, पैडल में कवर बदला। नई घंटी लगा दी। हैंडिल की चिक ठीक की और अंत में पहियों के बीच और रंगीन फूल बांधें तथा 15 दिन पहले वाले मुठ्ठे निकालकर नए रंगीन लगा दिए। साइकिल झमाझम लग रही थी। ऑयल और हवा के पैसे वे नहीं लेते थे। ऐसा उन्होनें दुकान के सामने लिख रखा था। इसलिए हिसाब में लिखकर उसे काट दिया। चमकती हुई साइकिल से चैतू ने चौराहे के चार चक्कर लगाए। लोगों को बताया कि ये साइकिल खरीदी है और चंदन मिस्त्री से सब पुराना सामान बदलवा दिया कुल 300 रुपए का खर्च आया है। घर में हर्षोउल्लास था।

शाम को जब आसरे आए तो चैतू के घर साइकिल खड़ी देखकर कहा अच्छा हुआ भैया जो आप साइकिल ले आए, लाओ पैसे मुझे दे दो उन्हें देकर आ जाता हूँ। चैतू ने कहा भैया साइकिल तो हमने खरीद ली। औतार की माँ आकर मुझसे कहने लगीं कि आप खरीदोगे नहीं इसलिए मैंने सोचा मैं ही खरीद लेता हूँ। आसरे को बहुत बुरा लगा। वे चुपचाप अपने घर चले गए। थोड़ी देर में औतार की माँ चैतू के घर आईं और कहा अब हमें साइकिल नहीं बेंचना। क्योंकि आसरे ने उनसे कहा वे साइकिल 600 में खरीदने को तैयार हैं। फिर क्या था ख़ूब झगड़ा हुआ। चैतू ने तो कह दिया ठीक है साइकिल आप ले जाओ लेकिन 1000 दे जाओ क्योंकि इसे बनवाने में मुझे 500 रुपए का खर्चा आया है। भगवान क़सम ख़ूब जमकर झगड़ा हुआ। मौज लेने वालों ने खूब मौज ली। वह दिन था और आज का दिन है चैतू और आसरे में बोलचाल न हुई है और न होगी। 

डिस्क्लेमर: इस कहानी के पात्र और घटनाएँ पूर्ण रूप से काल्पनिक हैं। 

Sunday, October 27, 2019

मिट्टी के कुछ दीपक ले लो दीवाली है बाबूजी

मेहनत तो करता हूँ फिर भी घर खाली है बाबूजी
मिट्टी  के  कुछ  दीपक  ले  लो दीवाली है बाबूजी

अब  तो  नाम ग़रीबी का भी लेने में डर लगता है
सरकारी  दस्तावेज़ों   में   खुशहाली   है  बाबूजी

लाखों  दीप  जलेंगे  ऐसा सुनने में जब से आया
अवधपुरी जाने की ज़िद पर घरवाली है बाबूजी

मिट्टी बेच रहा हूँ जिसमें कोई जाल फरेब  नहीं
सोना चांदी दूध  मिठाई सब जाली  है  बाबूजी

झटका एक लगे तो सबकुछ टूटे विखरे पलभर में
सबका जीवन चीनी मिट्टी की प्याली है बाबूजी

- ज्ञानप्रकाश आकुल

Popular Posts

Internship

After learning typing from Hardoi and completing my graduation, I went to Meerut with the enthusiasm that I would get a job easily in a priv...