Wednesday, April 17, 2019

बचपन की एक याद।


आज से कोई बीस पच्चीस साल पहले की बात है तब दहेज में साइकिल, घड़ी और रेडियो का लेन देन का चलन था। बेटी को विदा करते समय लोग आटा को डेलवा में बाँधकर देते थे, आजकी तरह नहीं बोरी में। साथ ही साथ रंगीन पेटरिया (इसे खजूर की पत्ती और कुश से बनाया जाता था)। तब लड़कियां, महिलाएं कारीगर होती थीं। उन्हें बेजोड़ कला का ज्ञान था। वे ऐसी ऐसी डिजाइन बनाती आजकल के कम्प्यूटर पर बनी डिज़ाइन फेल हो जाए। हाथ से बने बेना (पंखा) का जवाब नहीं होता था। नरई (गेहूं की पौध) को विभिन्न रंगों में रंग कर ऊन से बीनती, आह क्या खूबसूरत कारीगरी होती मन मुग्ध हो जाता। तब बरात में महिलाएं ऐसे ऐसे गीत गातीं कि बराती वाह वाह कह उठते और उन्हें निछावर में पैसे देते।

कलेवा के समय चारपाई पर बैठने वालों से ज्यादा इर्दगिर्द लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। एक से बढ़कर एक अनमोल गिफ्ट मिलते, भले ही उनकी कीमत कम हो लेकिन लोग देखकर ही खुश हो जाते, गोल सीसा, चौकोर सीसा, कंघा, बेना, रंगीन डलैय्या, चुटीला, फीता, दीवाल घड़ी, बतासा के साथ मुनक्के, गर्री गोला, छोहरे। भांति भांति के उरमाल (रूमाल) ऐसे ही अनगिनित तोफे जिन्हें देखकर बराती अंदाजा लगाते कि किसकी शादी मैं ज्यादा अच्छी कलेवा हुई। तब पैसे का उतना चलन नहीं था। लिखने वाला हर सामान कॉपी में लिखता। तब कलेवा पर तोफे लिखना हंसी मजाक नहीं था।

बारात के कुछ दिनों बाद जब लड़का विदाई कराने जाता दो तीन लोग और जाते। जो जानबूझकर पांव में रंग लगवाकर आते। सोने का बहाना करते ताकि कोई उनके पैरों में रंग लगा दे और रंग लगने के बाद कहते भाई ये ठीक बात नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिए था। और बिटिया के घर के लिए पूड़ी पकवान बांधकर दिए जाते, ताकि घर जाते ही उसे खाना न बनाना पड़े। इसके अलावा पड़ोसियों में उसे वितरित किया जाता। उसे बैना कहा जाता था।

5 से 6 साइकिलें आ रही हैं किसी साइकिल पर डेलवा, किसी पर सूप कोई रेडियो लटकाए है। रेडियो जोर जोर से बज रहा है, तेज धूप में पसीने से तर बतर होकर लोग चले जा रहे हैं। लड़के की साइकिल पर लड़की पीछे केरियल पर मुँह ढके बैठी है। जब तक गाँव का आखिरी घर रहा वो रोती रही, फिर किसी ने बोला अब चुप हो जाओ। न चुप होने पर लड़के ने धमकाया अब कितना रोवोगी। लड़की डरी सहमी बैठी रही, साड़ी चमकदार, ऊपर से शाल, गर्मी में भी पैरों में चप्पल के साथ मोजे। लोग दूर से अंदाजा लगा लेते ये कौन सी जाति के लोग जा रहे हैं। सबका अपना अपना रिवाज था। लाल चप्पल, लाल मोजा, अपने आप जातिगत कहानी बयां कर देता था।

ऐसी ही एक बारात में जब मैं कोई 10 बारह साल का रहा हूँगा विदाई करा के मैं पिताजी की साइकिल पर आ रहा था, अचानक भयानक आंधी तूफान आ गया, साइकिल आगे की बजाय पीछे जा रही, लड़की के घर से अभी कोई 2 किलोमीटर ही चले थे, कोई बोलता वापस चल लें। कोई बोलता वापस जाना अपशगुन होता है। जितने मुँह उतनी बातें, कोई कहता कुछ दूर चलने पर हमारी रिश्तेदारी है वहाँ रुक जाएंगे। लेकिन तिल तिल चलना मुश्किल, सब पैदल चलने लगे, मैं साइकिल पर बैठा रहा पिताजी पैदल ही चल रहे थे। लड़की भी पैदल चल रही थी, अचानक वह रोने लगी। सबसे छोटा मैं ही था मुझसे वह लाज न करती इसलिए पिताजी ने कहा तुम जाकर उसके साथ चलो थोड़ी दूर। जैसे ही मैंने उससे कहा चुप हो जाओ वह और जोर जोर रोने लगी। मैं भी रोने लगा। मुझे रोता देखकर सब हँसने लगे और वह लड़की भी मुस्करा दी। बस यादें हैं। आज भी जब  मेरी मामी मुझे देखती हैं वही किस्सा छेड़ देती हैं।

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