Tuesday, December 2, 2008

विकलांग व्यक्तियों के मानवाधिकार

इस समय दुनियाभर में तकरीबन 10 प्रतिशत आबादी किसी न किसी तरह की विकलांगता से ग्रस्त है। इनमें से ज्यादातर लोग विकासशील देशों में रहते हैं, कयोंकि गरीबी विकलांगता का पर्याय है। भारत की जनगणना 2001 के अनुसार खुद भारत में करीब 21,906,769 लोग विकलांगता से ग्रस्त हैं, जिसमें 12,605,635 पुरूष और 9,301,134 महिलाएं हैं। इन विकलांग व्यक्तियों की ज्यादातर संख्या निर्धनता और अभावों में व्यतीत होती है। जीवन यापन के मूलभूत सुविधाएं रोटी, कपड़ा और मकान तो दूर की बात है सामाजिक अधिकार तक इनके पास सीमित हैं।

मानवाधिकार व्यक्ति और सरकार के बीच बनने वाले संबंधों को परिभाषित करते हैं। ये अधिकार व्यक्तियों को मिलते हैं और वह अकेले या औरों के साथ मिलकर इन अधिकारों का प्रयोग कर सकते हैं। इन अधिकारों में सरकार को संबोधित किया जाता है।

विकलांग व्यक्तियों के मानवाधिकार
सर्व प्रथम 10 दिसम्बर 1948 को संयुक्तराष्ट्र संघ द्वारा पारित सर्वभौमिक मनवाधिकारों का पहला अंतराष्ट्रीय दस्तावेज है जिसमें विकलांग व्यक्तियों को दूसरे आम नागरिकों की तरह मानवीय समानता का अश्वासन दिया गया।
  • 1958 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के द्वारा पारित की गई भेदभाव (रोजगार एवं व्यवसाय निषेद) उद्घोषणा की धारा 5 में अपंग व्यक्तियों की आवश्यकताओं और चिंताओं को भी मान्यता दी गयी।
  • 20 दिसम्बर 1971 को संयुक्त राष्ट्र सभा ने अपंग प्रस्ताव संख्या 2865 के जरिये मानसिक रूप से अविकसित व्यक्तियों के अधिकारों पर अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र जारी किया। इसके अनुसार इन व्यक्तियों को भी आम नागरिक की तरह अधिकार मिलने चाहिए।
  • चार साल बाद 1975 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव संख्या 3447 के माध्यम से अपंग व्यक्तियों के अधिकारों का घोषण पत्र जारी किया। इस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ में विकलांग व्यक्तियों को निम्नलिखित अधिकार मिले-
  1. उनकी मानवीय प्रतिष्ठा के प्रति सम्मान का अधिकार
  2. दूसरे नागरिकों की तरह सभी नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों के उपभोग का अधिकार
  3. अधिकाधिक आत्मनिर्भर बनाने के लिए तैयार किए जाने वाले कार्यक्रमों का अधिकार
  4. आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षा
  5. अपने परिवार या धय माता-पिता के पास रहने का अधिकार और सभी सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी का अधिकार
  6. किसी भी तरह के शोषण या भेदभाव से सुरक्षा का अधिकार
  7. अपनी संपत्ति और शरीरिक सुरक्षा के लिए कानूनी सहायता का अधिकार
  • सन् 1983-92 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपंग व्यक्ति दशक घोषित किया था। इस कार्यक्रम से विकलांग व्यक्तियों को समाज में समानता और सहभागिता प्रदान करने में काफी मदद मिली।
  • इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1993-2002 को एशिया और प्रशांत क्षेत्र के देशों में अपंग व्यक्ति दशक घोषित किया। इस धारणा से यहां की सरकारों को अपंग व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करने में और मदद मिली। दिसंबर 1993 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपंग व्यक्तियों के लिए अवसरों की समानता के विषय में मानक नियम तैयार किए।
  • 7 फरवरी 1996 को स्वयं सहायता संगठनों और नेशनल फेडरेशन ऑफ दि ब्लाइंड के लंबे एवं ऐतिहासिक संघर्ष के बाद अपंग व्यक्तियों के अधिकारों पर एक समग्र भारतीय कानून पारित हुआ। यह कानून विकलांग व्यक्तियों के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपंगता के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकता है। इस कानून में महत्वपूर्ण अधिकार इस प्रकार हैं-
  1. 18 वर्ष की उम्र तक निशुल्क शिक्षा का अधिकार
  2. सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में 3 प्रतिशत आरक्षण के आधार पर रोजगार के क्षेत्र में प्राथमिकता का अधिकार
  3. जमीन और मकानों के आवंटन में प्राथमिकता का अधिकार
  4. जीवन, शिक्षा, प्रशिक्षण एवं रोजगार इत्यादि के किसी भी क्षेत्र में विकलांगता के आधार पर होने वाले भेदभाव के निषेद का अधिकार
  5. इमारतो, सड़को, यातायात सुविधाओ, तथा अन्य सार्वजनिक सेवाओं में पहुंच का अधिकार
  • इसके अतिरिक्त हमारे देश की अनूठी संघीय संरचना को ध्यान में रखते हुए इस केंद्रीय कानून को प्रातींय स्तर पर लागू करवा पाना एक चुनौती भरा काम है। इस चुनौती से निपटने के लिए इस कानून में निम्नलिखित क्रियान्वयन निकायों का भी प्रावधान किया गया है।
  1. केंद्रीय स्तर पर केंद्रीय समन्वय समिति और प्रांतीय स्तर पर राज्य समन्वय समतियों का गठन किया जाएगा इन समतियों से अपेक्षा की जाती है कि वह अपंग व्यक्तियों के लिए नीति नियोजन एवं निर्धारण तथा कार्यक्रम तैयार करने का काम करेंगी।
  2. केंद्रीय सतर पर मुख्य आयुक्त और राज्य स्तर पर राज्य आयुक्तों की नियुक्ति। इन आयुक्तों का इस कानून के तहत जीवन के विभिनन क्षेत्रों मे चलाये जाने वाली विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन और उस पर लगातार नजर रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इस कानून के किसी भी प्रावधान के उल्लंघन को अपंग व्यक्तियों के मानवाधिकारों का उल्ंघन माना जाएगा और उसे संज्ञेय अपराध की श्रेण में रखा गया है।
  3. विकलांगता से संबंधित विभिन्न विषयों से संबंधित मौजूदा सार्वजनिक कानूना में पक्षतापूर्ण प्राधानों क पहचान। इस कानून में ऐसे प्रावधान है कि जिससे अपंग व्यक्ति संविधान द्वारा मिले उन अधिकारों का उसी प्रकार प्रयोग कर सके जैसे गैर अपंग नागरिक करते हैं।

मैं स्वयं एक विकलांग व्यक्ति होने के नाते, इस निबंध को पढ़ने वालों से आहवान करता हूं कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे इन अधिकारों को विकलांग व्यक्तियों को दें और भेदभाव की जगह समानता, और बेदखली की जगह सहभागिता पर आधारित एक नई सामाजिक व्यवस्था की रचना के कार्यभार में आगे बढ़ायें।

Monday, December 1, 2008

विलुप्त होती ग्रामीण बोली-भाषा

ग्रामीण बोल-चाल की भाषा मीठी होती है। इस भाषा के शब्द सीधे, सरल, मधुर और साधारण होते है। पढ़े-लिखे से लेकर साधारण (कम पढ़े लिखे या अनपढ़) व्यक्ति भी इसकी भाषा को आसानी से समझ सकते हैं। मतलब कि इसकी भाषा को समझने में कोई परेशानी नहीं होती। शहर के लोग जब गांव आते हैं तो वह भी गांव की बोली-भाषा को समझने और बोलने का प्रयास करते हैं। उन्हें भी लगता है कि गांव की भाषा में कितना अपनापन है। गांव में हम अनजान व्यक्ति को भी बाबा, दादी, अम्मा, चाचा, भइया और दीदी या बहन कहते हैं जबकि शहरों में इन अनेक शब्दों के केवल दो शब्द रह गये हैं - सर और मैडम।

प्राकृतिक शब्दों को भी ग्रामीण भाषा में बोलते समय सजीव सा लगता है। देखिये - ‘‘पाला कानों को काट रहा है’’, ‘‘सूर्य मुस्करा रहा है’’, ‘‘बारिस आ गयी है’’, ‘‘फागुन चल रहा है’’ और मौसम में कैसी सनक है। जबकि इन्ही शब्दों को शहरी भाषा में कहते हैं- पाला पड़ रहा है। धूप तेज है, बरसात हो रही है, अपै्रल है, मौसम रंगीन है।

प्राचीन दादी, नानी की कहानियां ग्रामीण भाषा की ही देन हैं फिर चाहे वह डरावनी राक्षसी कहानियां हो, या खरगोश और कछुवा की दौड़, चंदा मामा, चूहा बिल्ली और शेर और खरगोश की कहानियां हों। ये सभी कहानियां ग्रामीण भाषा की देन हैं या कहें हमारी ग्रामीण भाषा की धरोहर हैं।

ज्यादातर शहरी लोग जो गांवो से आकर शहरों में बस गये हैं इस अपनेपन की भाषा को भूलते जा रहे हैं। कुछ लोगों से तो मैंने यहां तक सुना कि गांव की भाषा निरे अनपढ और नीच लोगों की बोलचाल की भाषा है। तो क्या भाईजान आप शहरों में पैदा हुए, क्या आपके बाप-दादा, या पूर्वज गांवों की उपज नहीं हैं? इस बात पर यह पढ़े-लिखे लोग बिगड़ जायेंगे। उस समय तो मेरे सामने यह ग्रामीण मुहाबरा ही है जो इन गांव से आये शहरी पर ठीक बैठेगा- भैंस के आगे बीन बजाये, भैंस खड़ी पगुराय’’।

अब हमारी यही ग्रामीण भाषा धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। गांव के पढ़े-लिखे युवक गांव की बोली बोलने में झिझकते हैं, उन्हें शर्म महसूस होती है। रोजी-रोटी ने उनकी अपनी भाषा को छुडाने का कारण बन गयी है। गांव के शहरी, शहरी भाषा के चक्कर में पड़ गये हैं। यही गांव के ज्यादातर लोग जब गांवों में जाते हैं तो रटे-रटाये अंग्रेजी शब्दों को बोलते नजर आते हैं। वे ‘तमीज’ में बात करते हैं। अब यदि यही ‘तमीज’ में बात करने वाले लोग गांव की भाषा-बोली बोलने से कतराये तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी यह प्राचीन भाषा गंदगी मिटाने वाले गिद्ध की तरफ गायब हो जायेगी। इसलिए जरूरत इस बात की है कि शहरों में रहें तो शहर की भाषा बोलें और जब गांव जायें तो गांव की भाषा में ही बात करें।

दूल्हा ट्राफिक में फंस गया

शादी का बुलावा आया
मैंने जाने का प्रोग्राम बनाया
साथ चलने के लिए एक दोस्त को फ़ोन घुमाया
ओके ओके, दोस्त का जवाब आया
वह भी एक के साथ एक दूसरा लाया
हम पहुँचे और यह हिसाब लगाया
यार, क्या बात है दूल्हा नज़र नही आया
बैंड वाला आया, ढोल वाला एक जगह बजा के वापस आया
मैंने कहा माज़रा क्या है?
दूल्हा कान्हा गया
पता लगाते लगाते लग गया
दूल्हा तो ट्राफिक में फंस गया
खैर दूल्हा ९ बजे आया
बैंड वाले ने बैंड और घोडी वाले ने घोडी सजाया
झटपट घोडी पर दूल्हे को बिठाया
नाचते नाचते १० बजे दुल्हन का घर आया
हमने फटाफट खाना खाया
सड़क पर आकर ऑटो ऑटो चिल्लाया
घर आकर दरवाजा खटखटाया
बीबी को सोते से जगाया
घड़ी पर नज़र गई तो १२ बजे बजते पाया
और बीबी का भी मुंह इधर उधर बनाते पाया

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