Monday, May 4, 2020

तामून, 1953-1960 की दास्तान, भाग-2


...हाँ तो हुआ ये जब तामून आया गाँव के ज़्यादातर निवासी गांव छोड़कर बाग या हार बाहर (खेत खलिहानों) में झोपड़ी डालकर रहने लगे। लेकिन कुछ महारथी गाँव में ही डटे रहे। उनपर ईश्वर की कृपा कहें या बीमारियों से उनकी लड़ने की क्षमता (इम्युनिटी) बाल बांका तक न हुआ। और इन्हीं में से कुछ नास्तिक या कहें कि ईश्वर से वरदान प्राप्त लोग घरों में चोरी-चकारी करने लगे, यदि किसी घर में कुछ न मिला तो दरवाजे, खिडकियाँ ही उखाड़ लाते, और यदि किसान के घर में घुसते जहाँ दरवाजे, खिड़की न मिलते तो सेरावनि (खेत की जुताई करने के बाद मिट्टी को बराबर करने वाली मजबूत और सीधी सपाट लकड़ी), हल, जुंआ, गेरावनि (रस्सी) आदि आदि...ही उठा ले जाते।

एक बार गांव में सबसे अच्छी बनी चौपाल की दीवाल में बने खूबसूरत हाथियों को लाठियों से ही फोड़ डाला और अफवाह ये फैला दी कि, देखो आज रात में 12 बजे दो हाथी आपस में लड़ गए। फिर क्या हुआ-जो भोलेभाले लोग थे उन्होंने तो विश्वास भी कर लिया। लेकिन बाद में ऐसी कारस्तानी करने वालों का भंडाफोड़ हुआ। 

हैरानी की बात तो ये है कि, उन्हें न कोई पाप लगा, न ही कोई रोग या गंभीर बीमारी हुई और तो और उन्हें कोई बद्दुआ तक न लगी, बल्कि गाँव के लोगों की बातों पर विश्वास करें तो, ऐसे लोगों की मौत क्या शानदार तरीके से हुई! अच्छे-खासे, बैठे-बिठाए ही स्वर्गीय हो गए...

ऐसे ही कोरोना महामारी के बाद भी अच्छी और बुरी कहानियाँ निकलकर आएंगीं ही...

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