Wednesday, November 26, 2008

रोजी-रोटी के लिए पलायन से बढ़ रही है शहरी गरीबी

गरीबी की पहचान को लेकर व्यापक बहस चल रही है। सरकार ने यह साबित करने की कोशिश की है कि गरीबी कम हुई है। इसके लिए आंकड़े तक सरकार द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे हैं। लेकिन इसके विपरीत स्वयंसेवी संस्थाओं की माने तो गरीबी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ी है। हालांकि पहले गरीबी केवल गावों में ही देखी जाती थी लेकिन अब गरीबी शहरों में ज्यादा है। इन स्वयंसेवी संस्थाओं की बातों पर गौर करें तो गांव के गरीबों की तुलना में शहरी गरीबी की हालत ज्यादा ही दयनीय है। ऐसा माना जाता है कि गरीबी तुलनात्मक आधार पर आंकी जाती है। जहां अमेरिका में दैनिक पारिवारिक आय 20 डालर या 800 रूप्ये प्रतिदिन हो तो वह गरीब माना जाता है। हमारे देश में महानगरों में फ्रिज और टीवी एवं पंखे के साथ झुग्गी में रहने वाले परिवार को गरीब माना जाता है। वहीं गावां में बिना फ्रिज, टीवी और कूलर के पक्के मकान में रहने वाला परिवार समृद्ध परिवार की श्रेणी में गिना जाता है। कुछ भी हो भुखमरी और गरीबी से त्रस्त लगभग 80 हजार लोग हर महीने काम के अभाव में पेट की आग बुझाने के लिये महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं। शहरी गरीब परिवारों की काफी संख्या सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों जैसे अनुसूचित जाति ओर अन्य पिछड़ी जातियों में से है।

इस बढ़ती शहरी गरीबी पर गौर करें तो देखेंगे कि अब पहले की तुलना में शहरों की तरफ गरीबों का पलायन ज्यादा बढ़ा है। जहां पहले गावों में छोटे-छोटे उद्योग जो उनके लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते थे, कम हो रहे हैं। गांधी जी के चरखों का प्रचलन कम हो रहा है। ये चरखे जहां पहले उन्हें पैसे के अलावा ओढ़ने और पहनने के लिए कपड़े भी उपलबध कराते थे अब लगभग बंद ही हो गये हैं। सनई के बान जिनसे चारपाई बुनी जाती थी, अब लगभग समाप्त ही हो गये हैं। सिलाई का काम करने वाले ज्यादातर लोग मुस्लिम समुदाय के होते थे, उनकी सिलाई मशीने बंद हो गयी हैं। इन सिलाई मशीनों की जगह पर अब सिले-सिलाये कपड़ों ने ले लिया है। इसलिए उनका पलायन भी शहरों की ओर बढ़ रहा है।


बिहार में आयी इस बार की बाढ़ जिसे वहां के गरीब लोग दैवी आपदा मानते हैं, के कारण उनके घरों के चुल्हें ठंडे कर दिये। ऐसे लोग बाध्य होकर पेट की ज्वाला बुझाने के लिए भूख से तड़पते परिवारीजनों को लेकर महानगरों को कूच कर रहे हैं।


गरीबों का शहरों की ओर पलायन का यही एक मुख्य कारण है। ऐसा नहीं है। सरकारी आंकड़ों पर ध्यान दें तो पायेंगे कि अब पहले की तुलना में गावों में शिक्षा का स्तर सुधरा है। वहां के युवा शिक्षित होकर काम के तलाश में शहरों की तरफ रूख करते हैं।


इस बढ़ते पलायन को बढ़ावा देने में हमारा मीडिया और टीवी जगत का भी बहुत बड़ा योगदान है। उसने फिल्मी दुनिया की चकाचौध कुछ इस तरह से दिखाई है कि गांव का युवावर्ग जींस और टी’ार्ट पहनने के चक्कर में गावों से शहरों की तरफ खिचें चले आ रहे हैं।


जलवायु परिवर्तन भी गरीबी को बढ़ाने में अपना काम कर रही है। इसका सीधा असर खेती पर देखा जा रहा है। जिन इलाकों में पहले बारिस होती थी वहां सूखा पड़ रहा है और जहां सूखा था वहां बारिस हो रही है जिसके कारण खेती की फसल बेकार हो रही है। इस तरह खेती की दयनीय स्थिति को देखकर गांव के ज्यादातर लोग शहरों में पलायन कर रहे हैं।

जो भी हो यह तो स्पष्ट है कि इस पलायन ने शहरों में गरीबी के आंकड़ों को गावों की तुलना में बढ़ाया है। जिससे शहरों में रोजगार की कमी हो रही है। इस बढ़ती शहरी गरीबी को कम करने के लिए सरकार समय-समय पर संगोष्ठियां, सेमिनार आयोजित करता रहता है। आज विश्व के ज्यादातर महत्वपूर्ण निर्णय, खासकर, के आर्थिक नीतियों से सम्बन्धित, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, पूँजीपतियों - औद्योगिक घरानों के दबाव में या उनके पक्ष में लिए जा रहे हैं। और ये संस्थान गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए विकासशील देशों पर अपने दबाव डालते हैं। वर्तमान सरकार ने ग्रामीण गरीब अकुशल मजदूरों के लिए करीब एक वर्ष पहले राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बनाया। सरकारी योजनाओं की तरह राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में अनियमितताएँ व भ्रष्टाचार नहीं होगा आखिर इसकी क्या गारंटी है। दूसरी बात यह कि क्या 100 दिन के रोजगार से गावों से पलायन करने वालों की कमी होगी? ऐसी योजनाएं क्या गावों के गरीबों को पलायन रोकने में सहायक साबित होंगी अभी से कहना ठीक नहीं होगा।

1 comment:

Anonymous said...

जायें तो जायें ्कहाँ..

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