हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत बालकृष्ण भट्ट जी ने नीचपन की एक बहुत अच्छी परिभाषा दी है-‘‘नीचता वहीं बसती है जहां प्रत्यक्ष में ऊंचाई है।’’ बात सौ आने सही है। क्योंकि इसी नीचता से ही ऊंच-नीच शब्द की उत्पत्ति हुई है। गांवों में बाल विवाह के लिए एक दलील दी जाती थी कि लड़कियों के साथ कोई ऊँच-नीच न हो जाये इसलिए उनकी शादी जल्दी करना ठीक होगा। कहा जाता है कि नीचता के कारण आदमी मुंह दिखाने तक के लायक नहीं रह जाता।
एक सार्वभौमिक सत्य यह भी है कि जहां ऊंचाई है वहीं नीचाई है। अमीरी और गरीबी भी इसी के पर्याय हैं। मतलब अमीर ऊंचे हैं और गरीब नीचे हैं। इसलिए अमीर की नजर में गरीब नीच होते हैं। इसी प्रकार असभ्य के लिए भी नीच शब्द का प्रयोग किया जाता है। यानी सभ्य ऊंचे होते हैं और असभ्य नीचे।
आज समाज के चलन में अनुसार ऊँच-नीच का भेद ऐसा चल पड़ा है कि अब उसमें जौ मात्र भी अदल-बदल हो पाना सम्भव नहीं। कहा जाय तो नीच एक प्रकार से गाली बन गया है जैसे राज ठाकरे की नजर में बिहारी नीच हैं और महाराष्ट्रिय ऊंचे हैं। लेकिन बिहारियों और उत्तर भारतियों की नजर में राज ठाकरे नीचता का काम कर रहे हैं। इसलिए राज ठाकरे नीच हैं। खैर इसमें पड़कर समय गंवाना भी नीचता है जैसे कि आजकल इस विषय पर देश के नेता कर रहे हैं।
कहते हैं कि किसी भी गलत काम करने वाले को भी नीच कहा जाता है। होता यह है कि जिसने नीच कहा वह अपने को ऊंचा समझता है। कभी-कभी व्यक्ति नीचता की हद पार कर जाता है। तब उसे नीचपन कहते हैं। नीचपन किसी भी दूसरे योनि के प्रणियों के लिए नहीं वरन मनुष्य मात्र के लिए ही बना है। ऊंची दुकान फीके पकवान भी इसी से बना होगा।
रूपया ऊंच-नीच की भरपूर कसौटी है। जिसने भी रूपये को लात मारकर प्रतिष्ठा का आदर किया वह ऊंचा है और जो रूपये के पीछे पड़कर अपने परिवार, समाज और देश का अहित करता है वह नीच है। ऐसे ही धर्म के लिए भी बोला जाता है जो अपने धर्म का पालन करते हुए दूसरे धर्म के लोगों की भलाई करता है वह ऊंचा है और जो अपने धर्म के लाभ के लिए दूसरे धर्मों को हानि पहुंचाता है वह नीच है। ऐसा अभी हाल ही में उड़ीसा में देखने को मिला।
इसी नीचता पर गोस्वामी तुलसीदास ने कई सारी चौपाइयों का निमार्ण किया देखिये-‘‘नीच निचाई नहिं तजें जो पावे सतसंग’’ (इसका अर्थ है कि नीच मनुष्य अपनी नीचता से बाज नहीं आता चाहे कितनी ही अच्छी संगति में रहता हो)। एक जगह तुलसीदास ने यहां तक कहा कि ‘नवनि नीच के अति दुखदाई, जिमि अकुंस घनु उरग, बिलाई’’ इसका अर्थ यह है कि नीच यदि कभी आकर नम्रता प्रकट करे तो इससे बहुत डर की बात समझना चाहिए। फिर दुबारा एक जगह उन्होंने ऐसा भी कहा है कि ‘‘सठ सुधरइं सतसंगत पाई’’ (सठ यानी नीच क्योंकि मूर्ख व्यक्ति विद्वानों की नजर में नीच होते हैं) इस उपयरोक्त चौपाई का अर्थ है- नीच को नीचता त्यागने के लिए उच्च विचार वाले लोगों के साथ उठना-बैठना चाहिए।
बात सीधी सी एक है कि नीचता कैसी भी हो नीचता ही रहेगी। इसलिए हे मानुष नीचता को छोड़कर ऊंचे उठो। इसे मराठी में कहें तो कुछ ऐसा है-‘‘म्हसून हे माणसांनो नीच ला सोडून वर उठा।’’