सावन लगने से एक दिन पहले वाली शाम बेहद खूबसूरत लग रही थी, बादल हल्के पीले और आसमान अपने रंग के अनुसार सुर्ख़ नीला था। अचानक पश्चिम से हल्की सी हवा ने बादलों के हाव भाव बदल दिए, पलक झपकते ही पीला रंग कब काले में बदल गया पता ही नहीं चला। हालांकि, उमस भरे मौसम में हवा की नमी से मौसम खुशगवार हो गया लेकिन बादलों का रूप देखकर खेतों में खरीफ़ की निराई कर रहे किसानों के माथे पर बल गिर गए। सभी ने अपने अपने खुरपे, दराती और घास के बंडलों को जल्दी जल्दी समेटना शुरू कर दिया। किसान मुसीबत का अंदाजा लगाने में कई बार हलबुली (जल्दबाजी) कर देते हैं। लेकिन उनके अंदाजे लगभग सही निकलते हैं। 'लगता है आज बारिश कम मुसीबत ज्यादा आने वाली है, किसी ने कहा। सब उस ओर भागे जहाँ इस मुसीबत से अपने साथ अपने जानवरों को भी बचाया जा सकता था।
तब वहाँ एक बरगद का पेड़ उस समय बारिश और धूप के बचाव का देवदूत था। गर्मी में गेंहूँ की कटाई करने के बाद इलाके की किसान वहाँ जमा होते और राशि (गेंहूँ की पौध) को बंडल जिसे बोलचाल की भाषा में बींडा कहा जाता है के लिए जूना वहीं बैठकर बनाए जाते थे। लोग ठठ्ठा मजाक करते और कहावतों और किदवंतियों को सुनते और सुनाते।
बरगद का पेड़ एक घने बाग में था, जहाँ महुआ, आम, शीशम के अलावा ऐसे अनगिनित पेड़ों का निवास था जिन्हें लोग नाम से नहीं जानते थे, हाँ, कुछ बुजुर्ग इसकी किदवंती थे जिन्हें हर प्रकार के पेड़ पौधों और खरपतवार तक का नाम रटा था। बाग के बीचों बीच एक छोटा तालाब था, जिसमें बरसात में नारगुज़रिया और उसके बाद सेरुआ (नारगुज़रिया की जड़ों में लगने वाला फल) निकलता थे। से बाग के उत्तर बड़े बड़े चक (खेत) थे और दक्षिण की तरफ चकरोट (एक प्रकार की कच्ची सड़क, जिसे इलाके के खेतों के आने-जाने के लिए जाना जाता था)।
बरगद इस बाग का बड़ा बुजुर्ग था। हालाँकि उसे देखकर कोई बूढ़ा नहीं कह सकता था लेकिन आसपास के गांव बुजुर्गों की याददाश्त के अनुसार सबसे उन्होंने होश संभाला है उसे वैसे ही देखा है। बरगद पर अनेकों घोसले थे, चिड़ियों की चहचहाहट संगीत समारोह जैसा आनंद देती थी।
बरगद पर किसी का साया है ऐसा लोग कहते थे, कोई कोई तो उस साये को देखने का दंभ भी कर चुका था। इस लिए बच्चे तो छोड़िए जवान आदमी भी अकेले जाने से डरता था। यदि बैलगाड़ी लेकर कोई अकेले जाता तो बैलों की लगाम कस देता और दौड़ाते हुए निकल जाता। लेकिन इतिहास गवाह था बरगद के पेड़ के नीचे अब तक किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था।
बरगद की जड़ो को लोग उसकी मूंछें कहते और बसंत के बाद उनमें नई नई लाल और सफेद रंग की नई मुलायम जड़ें जब निकलतीं तो बच्चे उन्हें तोड़कर खाते और अनोखे स्वाद का वर्णन करते। बरगद की डालें उसकी भुजाएं थीं जो किसी दैत्य की तरह फ़ैली थीं। ये भुजाएँ ही चरवाहों, किसानों और राहगीरों को छांव के साथ धूप और गर्मी से निजात दिलातीं। दोपहर ।इन किसान इसके नीचे बैठकर खाना खाते तो किसी फाइव स्टार रेस्टोरेंट से कम न लगता, कुछ लोग जब इसके नीचे भौंरियाँ डालते, आलू भूनते, होरा भूनते तब बरगद के ऊपर निकलता धुवाँ ऐसा लगता जैसे बरगद चिलम पी रहा है।
इस बरगद के पेड़ के नीचे अनुपचारिक शिक्षा की कक्षाएँ चलतीं थीं जहां से कढ़े (अनुभवी) लोग निकलते थे, ऐसी शिक्षाओं को किसी भी विश्वविद्यालय से नहीं सीखा जा सकता। किसानों की पाठशाला यहीं लगती थी, कब किस सीजन में कौन सी फसल।बोना है, निराई कब करनी है, कैसा पता चलेगा कि खेत जोतने वाला हुआ कि नहीं यही बैठकर किसानी करने वाली नई पौध यहीं से शिक्षा पाती थी। चरवाहों के चौगोले यहीं सुनाई देते थे जिन्हें लकड़ी के नक्कारे से कोई गवैया सुनाता तो बरगद हर्ष से खिल उठता।
अबकी जब गाँव गया तो बरगद का पेड़ देखने की बड़ी इच्छा हुई, लेकिन जानकर निराशा हुई कि वह बाग उजड़ गया है, तालाब सूख गया है और बरगद अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। चकरोट के किनारे खरपतवार समाप्त हो गई है , लोगों ने आधे चकरोट को अपने अपने खेत में जोत लिया है और ऐसा इसलिए हुआ कि लोगों ने अब पारम्परिक खेती किसानी छोड़कर मशीनों पर निर्भर जो हो गए हैं।
हे बरगद तुम्हें बारम्बार प्रणाम है।