Friday, September 18, 2009

अभी-अभी मैंने यह जाना, मैं हूँ क्यूँ इतना बेढंगा.

अभी-अभी मैंने यह जाना, मैं हूँ क्यूँ इतना बेढंगा,
अभी समझ में मेरे आया पहले मैं था क्यूँ चंगा।

उससे पहले मैं था नेक, ऐसा सभी बोलते हैं,
अभी सभी वो दोस्त हमारे मेरा भेद खोलते हैं।

इससे पहले मैंने भी तो सबको भ्रम में था डाला,
उससे पहले उनका भी तो मुझसे पड़ा नही पाला।

अभी, कभी कुछ लोग मुझे फिर पहले सा ना देते भाव,
मैं भी तो उनसब लोगो से ना लेता मिलने में चाव।

पर ये बातें ठीक न होती इससे बढ़ जाती कटुता,
इसीलिये 'शिशु' शिशु से कहते ख़ुद का मान भी है घटता।

जबसे शेर-सियार संग-संग पूजा करने हैं जाते

जबसे कोयल ने कौवे को अपना भाई मान लिया,
तबसे उसकी भी बोली को सबने कर्कश मान लिया।

जबसे उल्लू और चमगादड़ दोस्त-दोस्त कहलाये,
तबसे उल्लू और चमगादड़ फूटी आंख नही भाये।

जबसे शेर-सियार संग-संग पूजा करने हैं जाते,
तबसे हिरन-मेमना दोनों उस रस्ते से ना आते।

जबसे एस.सी-एस. टी. दोनों दलित कहाए हैं,
तबसे ही एस.सी-एस. टी. हर दल को भाये हैं।

जबसे गधे और घोड़े में फर्क नही समझा जाता,
तबसे खच्चर सोच रहे क्यूँ उनसे काम लिया जाता।

जबसे 'शिशु' ने मान लिया मेरे अन्दर कमजोरी है,
तबसे 'शिशु' ने उसे भागने की कोशिश की पूरी है।

Thursday, September 17, 2009

बंद-बंद लोग चिल्लाते बंद न मुझे पसंद, बंद से जी घबराता

बंद-बंद लोग चिल्लाते
बंद न मुझे पसंद,
बंद से जी घबराता
उठता प्रात रात ना सोता
जगता जब अधरात न भाता
बंद बंद ...............

छुट्टी-छुट्टी लोग कहे
ड्यूटी से डरते रहते
काम न पास धेले का फिर भी
बहुत काम है कहते सबको रहते
मैं भी ख़ुद चिल्लाता
बंद बंद ...............

घंटे आठ काम ना करते
हरदम इधर-उधर की करते
हाय! हाय! बोलते कहते
काम तले मेरा दम घुटता
१२ घंटे काम करे फिर
शनिवार खुद ही आ जाता
बंद बंद ...............

अब क्या होगा! अब क्या होगा!
सुनसुनकर दम घुटता
एक-एक पल क्या?
रात-बिरात न कटता
हटता पीछे
फिर आ डटता
रात को जाकर फिर आजाता
बंद बंद ...............

क्या तनख्वाह मिलेगी?
कब तक?
जब तक ऑफिस चलता!
नही-नही बात ख़ुद मैं ही
अपनी बदलता
काम नही कुछ काश पास
अपने हाथ स्वयं के हाथ मलता
कुछ इधर - उधर टहलता
पर मुझको न ये भाता
बंद बंद ...............

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