Saturday, September 28, 2019

पिछली सरकार

धोखे  से  कुछ  बात  बन  गई, तब 'हुजूर' हक़दार।
और  ग़लत  हो  जाने  पर  तब ' पिछली  सरकार'।।
तब  पिछली  सरकार,  कौम  को  समझ  न आता।
प्रश्न   पूछिए   यदि   'वजीर'   से,   वह  धमकाता।।
कहें   'शिशु'  तुग़लकी   फ़रमानों  को  कैसे  रोंके?
'भाग्य विधाता' जब देते हों  ख़ुद ही ख़ुद को धोखे।।

शब्दार्थ
पिछली सरकार- नेहरूजी
भाग्य विधाता: जनता

Sunday, September 22, 2019

भगोले बाबा।


आज से करीब 30 साल पहले की बात है। स्वयं का खेत न होने के कारण पिताजी और हमारे बड़ेदादा (पिताजी के बड़े भाई) बटाई खेत करते थे। दोनों ने 40 साल एक साथ मिलकर बटाई खेत किया। तब हम एक में थे, केवल खाना अलग बनता था। खेत पर खाना अलग अलग घरों से जाता लेकिन खाने के समय दोनों घरों का खाना एक जगह कर दिया जाता था। आजकल की तरह नहीं कि भाइयों की शादी हुई नहीं और अलगाव हो गया।

तब पिताजी और बड़ेदादा दो लोगों के खेत बटाई जोतते थे, एक लम्बे बाबा-दुलारे बाबा का और दूसरा भगोले बाबा के बोर के पीछे वाला खेत। अब याद नहीं है वह भगोले बाबा का खेत था या किसी अन्य व्यक्ति का। बोर के पीछे एक गलगल (बड़े निम्बू) का पेड़ था और दूसरा मौसमी का। बोर के पास में साफ सुथरी जगह थी, छायादार और फलदार पेड़ थे। आम, जामुन, आँवला और महुआ। बोर के पास दो हौद थे एक ढंका रहता था जिसमें पीने का पानी रहता था और दूसरे हौद में अलग पानी, बोर में यदि पानी उतर जाता था तब उसे डालकर चालू किया जाता था। भगोले बाबा दिन भर खेत पर रहते, मौसमी देखकर बड़ा मन ललचाता, गलगल खाने के लिए नहीं बल्कि तोड़ने का मन करता। लेकिन जब भी मैं वहाँ होता वे मौजूद रहते। दिन में कभी नहीं सोते, हमेशा काम करते रहते। कभी सन कातते, कभी रस्सी बनाते। एक आध बार मुझसे भी बान (चारपाई को बुनने वाली रस्सी) पकड़कर ऐंठन लगवाई। बड़ी खीज होती। एक बार उनके न रहने पर चोरी से 2 बड़ी बड़ी मौसमी तोड़ ली, मौसमी तोड़ते समय पड़ोस में लगे गलगल के कांटें से गाल छिल गए, लेकिन मेरी मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न था, घर आने से पहले ही कोहलैय्या पर पहुंचकर आम की लकड़ी घुसेड़कर एक मौसमी को फोड़कर उसका रस चूसा।

बाबा पक्के रंग के हट्टे कट्टे बहुत लंबे इंसान थे। सफ़ेद धोती, और ढीला कुर्ता पहनते थे। मेरी यादाश्त के अनुसार वे गांजे के शौकीन थे, बोर के आसपास गांजे की उत्तम कोटि की पौध थीं, तम्बाकू को गांजे में मिलाकर चिलम भर कर कस लगाए जाते। बोर पर हमेशा 4 से 5 आदमी बने रहते। बोर पर एक कोठरी थी, जिसमें ताला लगा रहता था, मेरा बड़ा मन करता कि उसके अंदर क्या है, एक दिन वो गलती से खुला रह गया। बाबा गाँव गए थे किसी काम से, मैं कोठरी में घुस गया, वहाँ का नज़ारा देखकर बड़ी आंखे खुली की खुली रह गईं, वह दैत्याकार इंजन था, जिसके एक तरफ करीब 3 फ़ीट व्यास का एक पहिया था और पहिए पर पटा चढ़ा था। मैंने पटा पकड़कर घुमाना चाहा कि उसपर लगी ग्रीस मेरे हाथों में लग गई। मिट्टी में हाथों को ख़ूब घिसा लेकिन वो छूटने का नाम ही नहीं ले रही थी मार का डर सताने लगा। तभी न जाने क्या सूझा पीने वाले पानी के हौद में जाकर हाथ धोने लगा। ग्रीस पूरे पानी में तैरने लगी। अब और डर गया दुगुनी मार पड़ने के डर से पिताजी को बिना बताए घर की राह पकड़ी कि आगे से भगोले बाबा दिखाई दिए। काटो तो खून नहीं, उन्हें देखकर वैसे ही डर लगता था, पूछताछ करने लगे कहाँ जा रहा है अकेले, कसम से बुरा हाल था। हाथ देखकर बोले अरे ये कहाँ से लगा लिया। चल बोर पर, मैं डरा हुआ था मार पड़नी निश्चित थी। दोपहर का समय था आसपास के किसान आकर वहां खाना खाने वाले थे। पिताजी को आवाज देकर बुलाया। डाँट पड़ने लगी, तभी किसी ने हौद का पानी देख लिया अब तो मेरा रोना छूटने वाला था, पिताजी ने लकड़ी उठा ली मारने के लिए, लेकिन बाबा ने हाथ पकड़कर छुड़ाया, और बोले "तो क्या हो गया, बच्चे ने पानी खराब कर दिया, दुबारा बोरिंग चला देता हूँ,"। रामा दीदी के पिताजी को बोला जाओ इंजन चला दो। इंजन चलते ही सभी नहाने धोने लगे। हौद को दुबारा साफ सुथरा करके पानी भरा गया। उस दिन से भगोले बाबा के पास जाकर बैठने का मन करता। उनके प्रति बहुत सम्मान उमड़ने लगा, वे कभी कभी मुझे गलगल देते, एक बार 4 बड़ी बड़ी मौसमी दीं। उन्होंने बोर के पास गाजर बोई थी, बोले जब मन करे गाजर उखाड़ कर खा लिया करना। आज बाबा की बरबस याद आ गई।

इस कहानी से ये शिक्षा मिलती है कि पहले के समय लोग दूसरे के बच्चे को भी अपना बच्चा समझते थे और अब 'अपनो पूत पोतिंगड है, दोसरे का पूत धोतिंगड है।'

सुख्खा हलवाई।


कुरसठ में रामलीला की शुरुआत कब हुई अच्छे से याद नहीं, लेकिन इतना याद है जब अटवा में रामलीला होती थी तब कुरसठ में नहीं। अटवा की रामलीला का अलग मज़ा था। अब ज़्यादा याद नहीं, लेकिन हम लोग अपनी उम्र से बड़े लोगों के साथ देखने जाया करते थे। खंगड़वा से होते हुए, रमतैलिया के किनारे किनारे, बिंदा बाग से होकर, बम्बा किनारे किनारे तब जाकर रेलवे की पटरी आती थी, फिर सती मेला वाले बाग से जैसे ही सामियाना दिखता, भगवान कसम इतनी  खुशी मिलती जितनी आजतक मॉल में सिनेमा देखने तक में नहीं आई। वैसे हारमोनियम और ढोलक की आवाज तो गांव से ही सुनाई देती थी। मन में बड़ी उथल पुथल मची रहती कि कहीं मेरे पहुँचने से पहले न शुरू हो जाए। आजकल फ़िल्म शुरू होने से पहले जैसे तंबाकू पदार्थों के सेवन पर प्रचार आता है उससे लाख अच्छी तरह तब इसका प्रचार किया जाता था। थोड़ी देर हारमोनियम और ढोलक बजने के बाद कलाकार आकर सबसे पहले इस दोहा से शुरुआत करता था "श्री रामचंद्र जी के सम्मुख जितने भी भाई बैठे हैं, बीड़ी सिगरेट तंबाकू की पीने की सख़्त मनाई है"। इसके बाद मैं इधर उधर नज़र दौड़ाकर देखता कोई पी तो नहीं रहा।

कुरसठ की रामलीला की याद आते ही सुख्खा हलवाई की याद आ जाती है। रामलीला के लिए साजो सामान हमारे घर के सामने से होकर जैसे ही निकलता, मन में राम और सीता का पाठ अदा करने वाले पात्रों का चेहरा सामने घूमने लगता। शुरू होने से पहले ही एक चक्कर लगा कर आ जाता ये देखने कि, कौन कौन कलाकार आए हैं। तब रामसुत की कंपनी के पास रामलीला का ठेका था। तभी नज़र पड़ती, सुख्खा हकवाई पर। लाल बनियान पहने,मुँह में बड़ा सा पान ठोंके, हाथ में बेलचा लेकर गढ्ढा खोदते देखता, पसीने से तर बटर, नई उम्र का कद में छोटा और ख़ूब तगड़ा लड़का अपनी दुकान जमाने का प्रयास करता हुआ। लोग वहाँ खड़े होकर राय देते  (कुरसठ ऐसा गांव है जहाँ रायचन्द्रों की कमी नहीं, किसी दिन विस्तार से उन रायचंदों पर लिखूँगा), दुकान का मुंह किस तरफ रखना है ताकि रामलीला देखने के साथ थी साथ कैसे अधिक से अधिक ग्राहक आ सकें।

आज भी पता नहीं, उनका असली नाम क्या है? सुख्खा उनका उपनाम है या या असली भगवान जाने। हमें तो आजतक उनकी जाति का पता नहीं। जाति से ज़्यादा सुख्खा की जलेबी के बारे में उत्सुकता जो थी। क्या हुनर पाया, भाई देखते रह जाओगे- मजाल जलेबी मोटी पतली हो जाए, एक जैसी, एकदम कड़क, ज़बान पर रखते ही कर्र की आवाज आती थी। नया लड़का भगवान जाने कहाँ से सीखकर आ गया था। इससे पहले एक दो और हलवाई थे, लेकिन उनमें वो उत्सुकता नहीं जितनी सुख्खा में। काम में तल्लीन, जलेबी बनाते समय ध्यान काम पर और बातें तो जलेबी से भी ज्यादा लच्छेदार। जितने लोग जलेबी नहीं खरीदते उतने लोग वहां से खड़े होकर उनका काम देखते। बड़ा जिंदादिल इंसान।

आजकल वे अटवा कुरसठ स्टेशन से कुरसठ गाँव जाते समय, पानी की टंकी के पास दुकान चलाते हैं, जब भी जाना होता है, जलेबी ख़रीदकर खाता हूँ। आप भी जब कभी जाएँ उनकी जलेबी का स्वाद चखें। वैसे कुरसठ जब भी जाएं तो मुनकाई के समोसे का स्वाद लेना भी न भूलें। 

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