Sunday, September 22, 2019

सुख्खा हलवाई।


कुरसठ में रामलीला की शुरुआत कब हुई अच्छे से याद नहीं, लेकिन इतना याद है जब अटवा में रामलीला होती थी तब कुरसठ में नहीं। अटवा की रामलीला का अलग मज़ा था। अब ज़्यादा याद नहीं, लेकिन हम लोग अपनी उम्र से बड़े लोगों के साथ देखने जाया करते थे। खंगड़वा से होते हुए, रमतैलिया के किनारे किनारे, बिंदा बाग से होकर, बम्बा किनारे किनारे तब जाकर रेलवे की पटरी आती थी, फिर सती मेला वाले बाग से जैसे ही सामियाना दिखता, भगवान कसम इतनी  खुशी मिलती जितनी आजतक मॉल में सिनेमा देखने तक में नहीं आई। वैसे हारमोनियम और ढोलक की आवाज तो गांव से ही सुनाई देती थी। मन में बड़ी उथल पुथल मची रहती कि कहीं मेरे पहुँचने से पहले न शुरू हो जाए। आजकल फ़िल्म शुरू होने से पहले जैसे तंबाकू पदार्थों के सेवन पर प्रचार आता है उससे लाख अच्छी तरह तब इसका प्रचार किया जाता था। थोड़ी देर हारमोनियम और ढोलक बजने के बाद कलाकार आकर सबसे पहले इस दोहा से शुरुआत करता था "श्री रामचंद्र जी के सम्मुख जितने भी भाई बैठे हैं, बीड़ी सिगरेट तंबाकू की पीने की सख़्त मनाई है"। इसके बाद मैं इधर उधर नज़र दौड़ाकर देखता कोई पी तो नहीं रहा।

कुरसठ की रामलीला की याद आते ही सुख्खा हलवाई की याद आ जाती है। रामलीला के लिए साजो सामान हमारे घर के सामने से होकर जैसे ही निकलता, मन में राम और सीता का पाठ अदा करने वाले पात्रों का चेहरा सामने घूमने लगता। शुरू होने से पहले ही एक चक्कर लगा कर आ जाता ये देखने कि, कौन कौन कलाकार आए हैं। तब रामसुत की कंपनी के पास रामलीला का ठेका था। तभी नज़र पड़ती, सुख्खा हकवाई पर। लाल बनियान पहने,मुँह में बड़ा सा पान ठोंके, हाथ में बेलचा लेकर गढ्ढा खोदते देखता, पसीने से तर बटर, नई उम्र का कद में छोटा और ख़ूब तगड़ा लड़का अपनी दुकान जमाने का प्रयास करता हुआ। लोग वहाँ खड़े होकर राय देते  (कुरसठ ऐसा गांव है जहाँ रायचन्द्रों की कमी नहीं, किसी दिन विस्तार से उन रायचंदों पर लिखूँगा), दुकान का मुंह किस तरफ रखना है ताकि रामलीला देखने के साथ थी साथ कैसे अधिक से अधिक ग्राहक आ सकें।

आज भी पता नहीं, उनका असली नाम क्या है? सुख्खा उनका उपनाम है या या असली भगवान जाने। हमें तो आजतक उनकी जाति का पता नहीं। जाति से ज़्यादा सुख्खा की जलेबी के बारे में उत्सुकता जो थी। क्या हुनर पाया, भाई देखते रह जाओगे- मजाल जलेबी मोटी पतली हो जाए, एक जैसी, एकदम कड़क, ज़बान पर रखते ही कर्र की आवाज आती थी। नया लड़का भगवान जाने कहाँ से सीखकर आ गया था। इससे पहले एक दो और हलवाई थे, लेकिन उनमें वो उत्सुकता नहीं जितनी सुख्खा में। काम में तल्लीन, जलेबी बनाते समय ध्यान काम पर और बातें तो जलेबी से भी ज्यादा लच्छेदार। जितने लोग जलेबी नहीं खरीदते उतने लोग वहां से खड़े होकर उनका काम देखते। बड़ा जिंदादिल इंसान।

आजकल वे अटवा कुरसठ स्टेशन से कुरसठ गाँव जाते समय, पानी की टंकी के पास दुकान चलाते हैं, जब भी जाना होता है, जलेबी ख़रीदकर खाता हूँ। आप भी जब कभी जाएँ उनकी जलेबी का स्वाद चखें। वैसे कुरसठ जब भी जाएं तो मुनकाई के समोसे का स्वाद लेना भी न भूलें। 

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