आज से क़रीब बीस साल पहले सन 2000 में ग्रेड्यूएशन के आखिरी साल परीक्षा देने से पहले ही मैं कमाने के उद्देश्य से मेरठ आ गया था। घर से किराए के लिए पैसे मिले थे। अनेकों महीनों अपने चचेरे भाई के घर रहा, उन बेचारों ने मुझे रहना और खाना दिया। फ़िर खुद्दारी के चलते उनका घर छोड़ दिया और निकल पड़ा अकेले चुनौतियों का सामना करने। टाइपिंग पहले ही सीख गया था, इसलिए टाइपिंग की जॉब खोजना शुरू किया लेकिन निराशा हाथ लगती। कोई कोई काम करवा लेता और पैसे न देता। सोतीगंज में एक चैम्बर में वकील का दफ़्तर था, वह बड़ा ही अय्याश था, चैम्बर बंद करके अनर्गल हरकतें करता और मैं उसके इंतजार में बाहर बैठा रहता। हालाँकि मैं वहां शाम के 6 बजे ही पहुंच जाता लेकिन वह डिक्टेशन देना 8 बजे के बाद शुरू करता जब उसकी असिस्टेंट चली जाती, इस तरह रात के 10 बज जाते। महीने का मेहनताना 300 रुपए था। सुबह पाँच बजे से ट्यूशन पढ़ता तब जाकर बड़ी मुश्किल से कमरे का 400 रुपए किराया और खाना खर्चा चल पाता।
...फिर जिंदगी में आए राहुल भैया, राजीव और संजीव भैया! उन्होंने बहुत कुछ किया मेरे लिए, मेरा एडमिशन कंप्यूटर सेंटर में करवाया, तथा कम्प्यूटर की पढ़ाई के दौरान ही राजू भैया ने मुझे चौधरी सर्विसेस में काम पर लगवा दिया। यह एक कॉमर्शियल सेंटर था, जहाँ, फोटोकॉपी, एसटीडी आईएसडी, इलेक्ट्रॉनिक टायपिंग, कंप्यूटर पर डिजाइनिंग होती थी। दुकान काफी छोटी थी लेकिन दुकानदार का दिल बहुत बड़ा। चौधरी साहब उसके मालिक थे, वे यूको बैंक से रिटायरमेंट जनरल मैनेजर थे। उनके पूर्वज हमारे जिले से ही थे और मेरठ के खतौली जिले में आकर बस गए थे। उनका गांव मल्लावां के क़रीब नहर के किनारे वाला गांव था ऐसा उन्हें याद था। चैधरी सरनेम लगाते लेकिन वे हैं कुर्मी।
पहले दिन ही उन्हें मैं पसंद आ गया। मेरा काम था फ़ोटोकॉपी करना, फोन करने वालों के नंबर नोट करना, फैक्स करना, फोन औऱ बिजली का बिल जमा करना... आदि आदि और तनख्वाह 600 रुपये तय हुई। हिंदी और अंग्रेजी दोनों में उन्हें जबरदस्त ज्ञान था। लोग उनसे लेटर लिखवाकर फिर टाइपिंग करवाते और फाइनल प्रिंट निकलवाने से पहले उनसे ही प्रूफ रिडिंग करवाते।
दुकान सुबह 10 बजे खुल जाती जबकि मेरी कंप्यूटर क्लासेज 7 से 11 तक चलती। और मैं 11.30 वहां पहुंच ही जाता तथा रात के 9 बजे तक वहीं रहता। जिस दिन कम्प्यूटर सेंटर की छुट्टी होती उस दिन मैं जल्दी ही दुकान पर पहुंच जाता तब चौधरी साहब दुकान की साफ सफाई करते हुए देखता। वे सफाई प्रिय थे और दुकान की सफ़ाई स्वयं ही करते। लेकिन उन्हें सफाई करते हुए देखना मुझे अच्छा न लगता और मैं उनका हाथ बटाता। वे मना करते लेकिन मैं जबर्दस्ती झाड़ू छीन लेता और सफाई करता तब तक वे डस्टिंग करते। फिर 10.30 बजे तक वहां काम करने वाले सभी आ जाते। खूब काम रहता, लोगों की भीड़ रहती। लेकिन कोई भी वहां से निराश न लौटता। एक छोटी सी दुकान में हम 4 लोग काम करते, मैं फोटोकॉपी देखता, चौधरी साहब हिसाब देखते, कम्प्यूटर ऑपरेटर कंप्यूटर पर कार्य करता। एलेक्ट्रोनिक टायपिंग के लिए कभी कभी इनकी छोटी बेटी जो एमबीए की पढ़ाई कर रही थीं वे भी काम करतीं। किसी भी कस्टमर को बिना चाय पिलाए न भेजते। हमारे यहां से चाय वाले की खूब कमाई होती। दोपहर में प्रतिदिन हम सोतीगंज वाले राधे की चाट खाते। वह उन्हें जनता था और मुझे भी। जैसे ही मैं वहाँ जाता आर्डर तैयार कर देता। हमारी दुकान में जिस दिन ज़्यादा काम होता हम शाम को बेगमपुल से पकौड़ी लेकर आते।
जब दोपहर में कंप्यूटर ऑपरेटर खाना खाने घर जाता तब मुझे कम्प्यूटर पर काम करने के लिए प्रोत्साहित करते। बैठकर डिजाइनिंग करवाते। एक एक टूल का उन्हें ज्ञान था मैं जो भी बनाता उसकी प्रसंसा करते। कभी कभी डाँट भी देते। धीरे धीरे मैं कम्प्यूटर पर काम करना सीख गया। और जब कम्प्यूटर ऑपरेटर काम छोड़कर चला गया तब वो जिम्मेदारी मुझ पर आ गई।
मैंने वहाँ बहुत कुछ सीखा, उन्होंने मेरा बैंक में खाता खुलवाया। पैसे सेव करने के तरीके समझाए और सबसे इंसान बनने में मदद की। मैं वहां करीब 2 साल काम किया। जब डिप्लोमा खत्म हुआ तब मैं ही दुकान खोलने लगा, चाभी घर से लेकर आता, साफ़ सफाई करता। जनरेटर में डीजल आदि चेक करता। पेपर के स्टॉक का हिसाब लगाता। लेखा जोखा रखता। हिसाब किताब चेक करता। जनरेटर के लिए डीज़ल लाता। पेपर मार्किट से पेपर और स्टेशनरी लाता। अब मैं वहाँ का वर्कर न होकर उस दुकान का हिस्सा था। जब वे आराम करने के लिए घर चले जाते सारा काम मैं देखता। इतवार को छुट्टी रहती लेकिन घर के काम करने के बाद दोपहर से दुकान खोल देता उस दिन के वे एक्स्ट्रा पैसे देते। हिसाब किताब के बहुत पक्के। महीने के पहले ही तनख्वाह दे देते।
फिर जब मेरी जॉब दिल्ली में लगी वहाँ से जॉब छोड़ने का मन न करता। तीन चार दिन बिना बताए ही गुजर गए रोज सोचता आज शाम को बताऊँगा लेकिन हिम्मत न होती। आख़िर एक दिन शाम को जब मैंने बताया वे दुखी हो गए। कुछ देर के लिए हम शांत हो गए। मेरी आँखों में आँसू आ गए, उनकी आंखें भी गीली हो गईं। काफी देर बाद खुश होकर उन्होनें चाय का आर्डर दिया और मेरे लिए शुभकामनाएं दीं। मेरठ में मेरा आखिरी वेतन 2500 रुपए था। दो साल में इतनी तरक़्क़ी और कहीं न हुई।
काफ़ी दिनों बाद मैं परिवार के साथ मेरठ उनसे मिलने गया। नज़र कमज़ोर हो गई है। लेकिन मुझे देखकर बांहों में भर लिया हम लोग काफ़ी देर तक वहाँ रहे। चलते समय पत्नी और बच्चे को पैसे दिए। बड़ा अपनापन लगा। ख़ूब बातें की। आने का मन न कर रहा था। मेरे जीवन में उनके जैसे अनेकों नेकदिल और जिंदादिल इंसान आए हैं। भगवान चैधरी साहब को दीर्घायु दे...💐