Sunday, October 8, 2017

नौटंकीबाज

नौटंकीबाज

मेरी बचपन की यादों में नौटंकी और ड्रामें की यादें बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। तो बात उन दिनों की है जब मैं कोई 5 या छठी में पढ़ता था। हमारा गांव सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए जाना जाता रहा है, कोई भी पारिवारिक या धार्मिक कार्यक्रम हुआ लोग फटाक से नौटंकी बाँध के आ जाते हैं। इसका प्रभाव कुछ यहां तक पड़ा कि गांव के लोगों भी बाद में नौटंकी का साजो-सामान रखना शुरू कर दिया।

खैर ये तो रही ये बात! अब सुनिये, मुझे नौटंकी देखने का इतना चस्का लगा कि गांव के आसपास की कोई नौटँकी बकाया नहीं रखी। होता यह था, जैसे ही नक्काड़ा कानों को सुनाई देता मन में बेचैनी शुरू हो जाती थी। वैसे ही जैसे कोई अनिंद्रा का बीमार, वो लाख सोने की कोशिश करे नींद नहीं आती। हमारा अपना एक गैंग था, जिसमें मेरा चचेरा भाई, मेरे मुहल्ले के कुछ बदमाश लौंडे तथा मेरे लंगोटिया यार भी शामिल थे। और हाँ! ये सब लौंडे वही थे, जिनके घरों में नौटंकी ड्रामा देखने पर कड़ा प्रतिबंध होता था। हम बैठने का सामान अपने घर से ले जाते और अक्सर सबसे आगे बैठते, जहाँ से नचनियों को परेशान किया जा सके, हम इशारों से उन्हें चिढ़ाते थे, उनका मज़ाक उड़ाते और उनकी नज़र में स्वयँ नौटंकीबाज हो जाते। नौटंकी के प्रबंधक हमारे पर विशेष ध्यान रखते। और बीच-बीच में चेतावनी देते कि यदि अगली बार कुछ हरक़त की तो हमें भगा दिया जाएगा, हालाँकि ये चेतावनी रात भर चलती रहती।

ऐसा नहीं था कि हम नौटंकी का मनोरंजन खेल या ड्रामा देख कर करते बल्कि, हमारा मनोरंजन तो नौटंकी देखने वाले दूसरे व्यक्ति और छोटे बड़े लौंडे होते, जिनके पीछे से टिप्प मारना, उनके कान में लकड़ी घुसेड़ना तथा मुंह बनाकर उनका मज़ाक उड़ाना से हमारा मुख्य मनोरंजन होता। जोकड़ और नचनिये  का फूहड़ वार्तालाप हमारा मनोरंजन का मुख्य भाग होता।

इन नौटंकियों द्वारा मैंने कितने ही दोस्त बनाएं, जो आज भी हमारी यादों में हैं हालांकि उनसे अब मिलना मुश्किल है। मैंने बाद के वर्षों में नौटंकी को मनोरंजन से ज्यादा उसकी कहानी पर ग़ौर करना शुरू किया। और बाकायदा चौगोलों को याद करना भी शुरू कर दिया। आज भी न जाने कितने ही ज़बानी याद हैं, देखिये क्या ख़ूबसूरत चौगोला:-
"मोर मुकुट मांथे तिलक, भृकुटि अधिक विशाल
कानन में कुंडल बसे, देखो गल बैजंती माल,
गल बैजंती माल, हाँथ में लिए लकुटिया आला
ता ता थैया करत निरत संग गोपि ग्वालिनी ग्वाला।
मेरे ब्रज के रखवारे, हमारो करउ गुजारे
राखो लाज द्वारिकादीश, श्रीपति नंद दुलारे।।"

मुझे याद है पहली बार मैंने नौटँकी तकिया गांव में देखी थी, शायद मैं कोई 7 या आठ साल का रहा होऊंगा और आख़िरी बार मैंने कोई पाँच साल पहले देखी थी। आज मैं नौटंकी को फिर उन दोस्तों के साथ देखने का सपना देखता हूँ, पता नहीं ये सपना कब पूरा होगा।

लाइक और कमेंट


अन्ने बन्ने में इतनी ज़्यादा गाढ़ी दोस्ती थी, कि कहने वाले कहते थे खाना एक के घर बनता था तो चूल्हे का धुवाँ दूसरे के घर उड़ता था। गांव के मसखरे मज़ाक में कहते थे कि वो दोनों एक से ही हगते हैं। बन्ने अपने नाम के पीछे खान लगाते थे। अन्ने केवल अन्ने ही लिखते थे आगे-पीछे और कुछ नहीं! इसलिए, उन्हें न तो हिन्दू, न मुस्लिम और न ईसाई कह सकते हैं। वैसे गांव में ईसाई कोई था ही नहीं। दोनों दोस्त किस धर्म से हैं औ उनकी जाति क्या है ये न तो बन्ने ने अन्ने से और न अन्ने ने बन्ने से कभी पूछा। अन्ने, बन्ने के बारे में केवल ये जनता था कि वो अलग धर्म से हैं। लेकिन कभी कभी अन्ने को उनके पड़ोसी और ग़ैर दोस्त याद दिला देते थे कि बन्ने का धरम क्या है। पंडिताइन दादी ने अन्ने को एक रोज़ शाम को बताया कि बन्ने का बाप राज मिस्त्री था और क़स्बा से भैंसे का मांस लाता था, जिसके झोले को एक बार टिल्लू (पंडिताइन का बड़ा बेटा, जो अब दिल्ली में रहता है) ने गलती से छू लिया था जिसके बाद पंडिन ने उसकी कैसी मरम्मत की थी। ये सुनकर अन्ने इतनी जोर हँसे कि पंडित बाबा को लठ्ठ उठाकर उन्हें भगाना पड़ा था।

अब तक व्हाट्स और फेसबुक का चलन गांव में नहीं आया था। बावजूद इसके गांव में छुआछूत का चलन कम हो गया था, हाँ खानपान में कुछ हद तक मनाही थी, लेकिन गांव के पंडितों के लौंडे चोरी छुपे कलिया और मछरी जरूर खाने लगे थे। अब खटिया पर सिरहाने या पैताने बैठो कोई ख़ास मनाई नहीं थी, बस कोई बुजुर्ग आ जाये तो ठाढे हो जाइये। इतने पर भी गांव में सब ठीक ठाक ही था।

दोनों गांव की रामलीला और नौटंकी में साथ-साथ बैठते, और नाचनिये को दिए गए ईनाम को 'अन्ने के ना बन्ने के, रूपये हैं ये धन्नो के' नाम से बुलवाते। दोनों ग़रीब थे, दोनों पेट पालन के लिए खेती करते थे हालाँकि दोनों को मजूरी करना ज्यादा अच्छा लगता था। अन्ने और बन्ने अब अधेड़ हो रहे थे।

अन्ने और बन्ने के लड़के भी अपने बाप की ही तरह गहरे दोस्त थे। दोनों दसवीं में दो बार फेल हुए थे अब दिल्ली में कमाने की सोच रहे थे। दोनों ने 'माल' में नौकरी की जहाँ एक राशन की दुकान और दूसरा मोबाइल की दुकान में काम करते हैं। दोनों साथ रहते हैं कुछ दिनों तक दोनों ने अलग अलग खाना बनाया, फिर होटल में खाया, पहले अन्ने का लड़का खाता फिर बन्ने का, उनके बाद दोनों साथ साथ खाने लगे इसके कुछ दिनों बाद दोनों ने कमरे पर ही बनाना शुरू कर दिया।

आगे की कहानी फेसबुक और व्हाट्स ऐप के आने के बाद शुरू होती है। लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीत चुकी थी, जिसे चुनावी रणनीतिकार ऐतिहासिक जीत कहते हैं। दोनों लड़कों के पास स्मार्ट मोबाईल है और वे व्हाट्स फेसबुक पर हैं। इन पर धार्मिक से लेकर अश्लील मेसेज आते हैं दोनों एक दूसरे ले लिए लाइक और कंमेंट करते हैं। अभी कुछ दिनों से अन्ने और बन्ने के लड़कों को राजनीतिक, धार्मिक, देह प्रेम, आदि आदि मेसेज आने शुरू हो गए हैं । जिनमे लिखा होता है अधर्मी और देश द्रोही देश से गद्दारी कर रहे हैं और कभी कभी बीफ़ वीफ़ आदि वाले मेसेज भी आते हैं। हालांकि दोनों नॉनवेज खाते हैं पर बीफ नहीं। पर उन्हें सही में यह भी पता नहीं कि बीफ़ का मीट क्या होता है। अन्ने के लड़के और बन्ने के लड़के में अब बहसें शुरू होने लगीं थीं।

कुछ दिनों तक दोनों के बीच बहसों का दौर चलता रहा। बाद में ये माहौल तनाव भरा हो गया। अब दोनों लड़के एक साथ रहते जरूर पर वो बात नहीं थी। खाना फिर से होटल का हो गया। दशहरा नजदीक आ रहा था। गांव की रामलीला दोनों को गाँव की तरफ खींच रही थी। दोनों ने बिना बात किये एक दूसरे को अवगत कराया कि वो गांव जा रहे हैं। आनंद विहार से बस पकड़नी है 4 बजे वाली। ये उन दोनों की आख़िरी बातचीत थी।

लौंडे अपने अपने घर गए और सबसे पहले व्हाट्सअप और फेसबुक के किस्से घर पर सुनाये। धर्म अधर्म और देश भक्ति, सेना, विदेश, राजनीति, दिल्ली, केजरीवाल, मोदी उनके चर्चा के मुख्य बिंदु थे। घर में किसी को कुछ समझ नहीं रहा था । अन्ने ने बन्ने से पूछा ये सब क्या है बच्चे पैसे की जगह ये क्या कमाकर लौटे हैं। हमने 50 साल गुज़ारे एक दूसरे से आजतक कभी भी नमाज़ और पूजा पर चर्चा नहीं की। वास्तव में न बन्ने ने नमाज़ पढ़ी न अन्ने कभी मंदिर गए। बन्ने ने ईद में बम्बा पार नमाज जरूर अता की जबकि कार्तिक नहान में दोनों गंगा घाट गए मेला देखा और नहान किया।

अब अन्ने और बन्ने अक्सर कम ही मिलते हैं। गांव में  अब लौंडे कांवर निकलने लगे हैं सुना है स्टेशन के पास वाली मस्जिद में भोंपू से अल्लाह अकबर का शोर भी होने लगा है। बन्ने मस्जिद में पांच वक्त की नमाज़ अता करते हैं और अन्ने मंदिर के लिए बन रहे चबूतरे पर दिहाड़ी कर रहे हैं। लोगों से सुना गया है मंदिर बनने के बाद अन्ने ही मंदिर के मुख्य कर्ता धर्ता होंगे।

लौंडे फिर से दिल्ली लौट आये हैं और अब दोनों अलग अलग रहते हैं। दोनों को एक दूसरे का पता नहीं पता।

सुनने में आया कि अन्ने बीमार हैं और बन्ने उन्हें देखने तक नहीं आये। बन्ने का भी कुछ यही हाल है। और इधर लौंडे लाइक और कमेंट पेले जा रहे हैं।

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