नौटंकीबाज
मेरी बचपन की यादों में नौटंकी और ड्रामें की यादें बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। तो बात उन दिनों की है जब मैं कोई 5 या छठी में पढ़ता था। हमारा गांव सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए जाना जाता रहा है, कोई भी पारिवारिक या धार्मिक कार्यक्रम हुआ लोग फटाक से नौटंकी बाँध के आ जाते हैं। इसका प्रभाव कुछ यहां तक पड़ा कि गांव के लोगों भी बाद में नौटंकी का साजो-सामान रखना शुरू कर दिया।
खैर ये तो रही ये बात! अब सुनिये, मुझे नौटंकी देखने का इतना चस्का लगा कि गांव के आसपास की कोई नौटँकी बकाया नहीं रखी। होता यह था, जैसे ही नक्काड़ा कानों को सुनाई देता मन में बेचैनी शुरू हो जाती थी। वैसे ही जैसे कोई अनिंद्रा का बीमार, वो लाख सोने की कोशिश करे नींद नहीं आती। हमारा अपना एक गैंग था, जिसमें मेरा चचेरा भाई, मेरे मुहल्ले के कुछ बदमाश लौंडे तथा मेरे लंगोटिया यार भी शामिल थे। और हाँ! ये सब लौंडे वही थे, जिनके घरों में नौटंकी ड्रामा देखने पर कड़ा प्रतिबंध होता था। हम बैठने का सामान अपने घर से ले जाते और अक्सर सबसे आगे बैठते, जहाँ से नचनियों को परेशान किया जा सके, हम इशारों से उन्हें चिढ़ाते थे, उनका मज़ाक उड़ाते और उनकी नज़र में स्वयँ नौटंकीबाज हो जाते। नौटंकी के प्रबंधक हमारे पर विशेष ध्यान रखते। और बीच-बीच में चेतावनी देते कि यदि अगली बार कुछ हरक़त की तो हमें भगा दिया जाएगा, हालाँकि ये चेतावनी रात भर चलती रहती।
ऐसा नहीं था कि हम नौटंकी का मनोरंजन खेल या ड्रामा देख कर करते बल्कि, हमारा मनोरंजन तो नौटंकी देखने वाले दूसरे व्यक्ति और छोटे बड़े लौंडे होते, जिनके पीछे से टिप्प मारना, उनके कान में लकड़ी घुसेड़ना तथा मुंह बनाकर उनका मज़ाक उड़ाना से हमारा मुख्य मनोरंजन होता। जोकड़ और नचनिये का फूहड़ वार्तालाप हमारा मनोरंजन का मुख्य भाग होता।
इन नौटंकियों द्वारा मैंने कितने ही दोस्त बनाएं, जो आज भी हमारी यादों में हैं हालांकि उनसे अब मिलना मुश्किल है। मैंने बाद के वर्षों में नौटंकी को मनोरंजन से ज्यादा उसकी कहानी पर ग़ौर करना शुरू किया। और बाकायदा चौगोलों को याद करना भी शुरू कर दिया। आज भी न जाने कितने ही ज़बानी याद हैं, देखिये क्या ख़ूबसूरत चौगोला:-
"मोर मुकुट मांथे तिलक, भृकुटि अधिक विशाल
कानन में कुंडल बसे, देखो गल बैजंती माल,
गल बैजंती माल, हाँथ में लिए लकुटिया आला
ता ता थैया करत निरत संग गोपि ग्वालिनी ग्वाला।
मेरे ब्रज के रखवारे, हमारो करउ गुजारे
राखो लाज द्वारिकादीश, श्रीपति नंद दुलारे।।"
मुझे याद है पहली बार मैंने नौटँकी तकिया गांव में देखी थी, शायद मैं कोई 7 या आठ साल का रहा होऊंगा और आख़िरी बार मैंने कोई पाँच साल पहले देखी थी। आज मैं नौटंकी को फिर उन दोस्तों के साथ देखने का सपना देखता हूँ, पता नहीं ये सपना कब पूरा होगा।