मैं कुम्हार जाति से हूँ, उत्तर प्रदेश में यह जाति ओबीसी में आती है। आज की पीढ़ी में हमारे परिवार में पढ़े लिखों की अच्छी खासी फौज है। सरकारी नौकरी से लेकर प्राइवेट नौकरी और बिज़नेस में भी लोग हैं। हालांकि हमारी जाति के लोगों के पास कोई ख़ास खेती नहीं है लेकिन वो खेती किसानी में भी माहिर हैं। हम बटाई खेती करने वाले लोग भी हैं। और कुछ आज भी अपना पैतृक कार्य यानी मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य करते हैं। हालांकि अब यह कला विलुप्ति की कगार पर है। लेकिन अब हमारी गिनती खाते पीते परिवारों में होने लगी है।
लेकिन इससे पहले हमारी आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां भिन्न थीं। पहले हम ओबीसी में होने के बावजूद अछूत थे। ऐसा नहीं बड़ी जातियों की नज़र में ही हम अछूत थे बल्कि अन्य बड़ी पिछड़ी जातियों के लोग हमारे घरों का खाना पानी नहीं खाते पीते थे। क्योंकि तब हम आर्थिक रूप से पिछड़े थे। हम पर अंग्रेजों की तरह हमारे गांव के उच्च जातियों ने शासन किया। हमसे जोर जबरदस्ती हाल जुतवाया, खेतों में बंधुवा मजदूर की तरह काम करवाया गया। हमारे बाप दादाओं ने अपमान झेले और शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेली। हमारी एकता को तोड़ने के लिए पैतृक जमीन पर भाइयों भाइयों को आपस में बड़ी जातियों ने लड़वाया ताकि हमारा आर्थिक विकास न हो और वो हमारे ऊपर शोषण कर सकें।
हम आज भी शोषित और पिछड़े होते यदि हमारे परिवार में कुछ लोगों ने विषम परिस्थितियों में पढ़ाई करके अध्यापन में नहीं आते। उन्होंने अपने बच्चों के साथ ही साथ परिवार के अन्य बच्चों को भी पढ़ाया। जिसकी वजह से हमने पढ़ना लिखना सीखा और आगे के रास्ते हमारे लिए खुल गए। पढ़ाई लिखाई से ही इंसान के विचार बदलते हैं, बाबा साहेब ने कहा था, शिक्षा शेरनी का दूध है जो पीता है दहाड़ता है, वाकई में सच साबित हुआ।
लेकिन अब हमें उन शोषण करने वालों से कोई गिला शिकवा नहीं। सब समय का खेल था। हम भाईचारा में जीने का विश्वास रखते हैं। हमने उनके पूर्वजों को माफ कर दिया और अब हम उनके साथ बैठते उठते हैं और कप में चाय पीते हैं। पहले हमें चाय पीने के बाद बर्तन धोने के लिए कहा जाता था। ऐसा स्वयमं मैंने भी किया है। हमें यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि हमारी जाति ने भी अन्य निचली जातियों के साथ खानेपीने में भेदभाव किया। ऐसा नहीं अब जातिगत दूरी पूरी तरह से मिट गई है लेकिन अब जातिगत अपमान नहीं झेलना पड़ता। अब जातिगत अपमान उन्हें ही झेलना पड़ता जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं।
यह सच है कि छुआछूत अभी पूरी तरह मिटा नहीं। हाँ इसे मिटाया जा सकता था लेकिन चिंगारी ने फिर से हवा पकड़ ली है और वही आग फिर से जलने को तैयार की जा रही है। जातिगत द्वेष की भावना को आरक्षण रूपी पेट्रोल से नहलाया जा रहा है ताकि पढ़े लिखे नवयुवकों में द्वेष भावना को जन्म दिया जा सके। जबकि आरक्षण की असली समस्या पर किसी को कुछ सुझाई नहीं दे रहा। सबको अपना अपना वोट बैंक दिख रहा है और पढ़े लिझे युवक आंख मूदकर उनके बहकावे में जा रहे हैं। जातिगत भेदभाव को समान शिक्षा के माध्यम से दूर किया जा सकता है। यानी समान मुफ्त शिक्षा सभी के लिए।