Saturday, April 21, 2018

अभिलाषा है इस जगती की सब पीर हरूं,


गीतकार - सत्याधार 'सत्या'
इस तरह जगाती रही उम्र- भर अगर मुझे ,
सम्भव है सारा जीवन सोता रह जाऊँ ।
मैं मीलों पैदल चला धूप में मगर कभी ,
मेरे बैरी मन में छाया की आस नहीं ।
पहले वाली लाचारी मन में बनी रही ,
दिल ने ख़ुशियों का लेकिन किया प्रयास नहीं ।
इस पर भी मेरा हाथ अगर तुमने छोड़ा ,
तो शायद सारा जीवन रोता रह जाऊँ ।
तृष्णाओं का अथाह सागर बहुचर्चित है ,
यह हो ही सकता नहीं मनुज में प्यास न हो ।
उसके जीते रहने का भला प्रयोजन क्या ?
जिसके जीवन में शेष कोई उल्लास न हो ।
अभिलाषा है इस जगती की सब पीर हरूं,
पर ये न हो कि बस ख़ुद को ढोता रह जाऊँ।
तुम मेरी प्रेरणा हो तुम बिन इक गीत नहीं
लिख सका, हमेशा ख़ुद को ही दोषी पाया।
इस जीवन का आशय ही खोना पाना है ,
आखिर में मैने अपने मन को समझाया ।
महसूस करूँ हर मानव के दिल की पीड़ा ,
ऐसा न हो कि बस नफ़रत बोता रह जाऊँ ।

गीत - सत्याधार 'सत्या'

Friday, April 20, 2018

ज़िंदगी

1. अचानक
जिंदगी धीरे धीरे चलती है,
रोग धीरे धीरे फैलता है।
वक्त तेजी से गुजरता है,
मौत अचानक आती है!
जैसे तुम एक दिन मेरी
जिंदगी में आयीं थी
ठीक वैसे ही एक दिन आएगी मौत!

2. समझौता
अब बैलगाड़ी नहीं चलती,
इसलिये वो मुहावरा
'हम दोनों बैलगाड़ी के पहिये हैं'
का औचित्य ही नहीं रहा।
अब साथ होने का मतलब है
एक दूसरे की जरूरतों की
गाड़ी को खींचना!

3. नफ़ा नुकसान
पारी की शुरुआत में
नफ़ा नुक़सान का आंकलन
करने से अच्छा है,
आखिर में देखना कि,
किसको नफ़ा हुआ किसको
नुकसान।
उसके नुकसान में भी
नफ़ा छुपा होता है।

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