एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री ने कहा था "man is a social animal" (मनुष्य एक
सामाजिक प्राणी है।) जैसा कि विज्ञान भी बताता है कि इंसान मूलरूप से जानवर
ही है। उसके बाद आगे एक और समाजशास्त्री ने कहा कि ‘समाज समाजिक संबंधों
का जाल या ताना-बाना है’। मनुष्य के सामाजिक प्राणी बनने का एक लंम्बा
इतिहास रहा है। जैसा कि हमने इतिहास में पढ़ा कि आदिकाल में मानव का जीवन
कठिनाइयों का संघर्षों में बीता। अपना अस्तित्व बनाने रखने के लिए आदिमानव
ने कच्चा मांस खाना। इसके काफ़ी बाद उसने भुना मांस खाना सीखा और फिर
कालांतर में उसने पशुओं को पालना, खेती करना, व्यापार करना आदि आदि सीखा।
लेकिन वास्तविक संघंर्ष मनुष्य के जीवन में तब आया जब कुछ लोगों को लगा कि वे अब सभ्य हो गये हैं और बाकियों को भी सभ्य बनाया जाय। ये सभ्य और असभ्य की परिभाषा गढ़ने वाले लोग ही मानवजाति को विघटन और टकराव के लिए आगे ले जाने लगे। यही वो लोग थे जिन्होंने कुलीनता, संस्कृति, सभ्यता, धर्म, नैतिक, अनैतिक, जाति, सत्य, झूठ और दैवीय प्रभाव आदि आदि चीजों को जन्म दिया। इसके बाद धर्म के क्षेत्र में अति-वैयक्तिकरण बढ़ा और नतीजा यह हुआ कि धर्म व्यक्ति और समाज और राष्ट्र से अधिक महत्वूपर्ण हो गया। उन लोगों के लिए जिनमें धर्म की गहनता गहराई तक जम गयी, से ही नस्लीय चेतना का जन्म हुआ।
नस्लीय चेतना एवं धर्म और आस्था का अधिक प्रचार और प्रसार भारत में तब और अधिक बढ़ गया जब लुटेरे मुसलमान घुमंतुओं के आक्रमण हुए उसके बाद गोरों ने अपने फा़यदे के लिए उन्हें आपस में लड़ाना-भिड़ाना सिखाना शुरू किया। उसके बाद ही टकराव और तबाही के सिलसिले शुरू हुए।
अंग्रेज़ों की यह रणनीति इतनी का़रगर साबित हुई कि उन्होंने हर वर्ग और समुदाय के लोगों को उन्होंने आपस में लड़ाना-भिड़ाना शुरू कर दिया और इसके लिए उन्होंने धर्म रूपी हथियार को प्रयोग में लाया। फलस्वरूप व्यकि के खाने-पीने, रहने-सहने और पहनने और संस्कृति में वैमनस्य का रूप ले लिया!
मांस खाना या न खाना व्यक्ति की अपनी इच्छाओं और स्वाद पर न निर्भर होकर धार्मिक विचारधारा में बदल गया! यहाँ एक उदाहरण द्वारा देखेंगे कि कैसे व्यक्ति अपनी इच्छा को अपने अंतिम दिनों में जान पाता है - एक व्यक्ति जो आजन्म शाकाहारी रहे। लेकिन एक गंभीर बीमारी की वजह से डाॅक्टरों ने उन्हें मांस खाने की सलाह दी, इस पर वो बिदग गये, बोले मैं मर जाउं या जिन्दा रहूं लेकिन मांस नहीं खाउंगा। लेकिन पुत्रों के पिता के प्रति लगाव के कारण उन्हें बिना बताये मांस परोसा गया, उन्होंने चाव से खाया। फिर दो तीन दिनों बाद वही भोजन खाने की इच्छा व्यक्त की, इस पर कुछ झिझकते हुए उन्हें उनके पुत्रों ने हकीकत बतायी। इस पर पहले तो काफ़ी झिझके उसके बाद खुद पर खीझते हुए बोले अब पता चला कि लोग मांस क्यों खाते हैं, पूरी जिंदगी यूं ही घास-फूस (शाकाहारी भोजन) पर ही बीत गयी। (इस कहानी में हम देखते हैं कि व्यक्ति की खाने इच्छा उसके स्वाद न ले पाने की वज़ह से जागृत हुयी!)
अब हम देखेंगे कि कैसे प्रागऐतिहासिक काल से मनुष्य मांस खाता था (ज्यादातर लोग इसके पीछे दलील देते हैं कि ऐसा इसीलिये था कि संभव हो उस समय धर्म की उत्पत्ति न हुयी हो) धर्म के जानकार लोग मानते हैं कि किसी भी धर्म या शास्त्र में यह नहीं लिखा कि मनुष्य को मांस नहीं खाना चाहिए। हां यह ज़रूर लिखा मिल जायेगा कि जीवों पर दया करो। जब जीवों पर दया करों का वास्तविक अर्थ व्यक्ति किस रूप में लेता है यह हर व्यक्ति की अपनी-अपनी विचारधार पर निर्भर करता है। कैलिफ़ोर्निया के शेक्सपियर क्लब में फ़रवरी 2, 1900 को ‘बुद्धकालीन भारत’ विषय पर बोलते हुए स्वामी विवेकानंद ने बताया था, अगर मैं आपसे यह कहूंगा कि पुरानी परम्पराओं के अनुसार वह अच्छा हिन्दू नहीं था, जो गोमांस न खाता हो, तो आपको आश्चर्य होगा। कुछ विशेष अवसरों पर उसे एक बैल की बलि देनी पड़ती थी और उसे खाना पड़ता था। (विवेकानंद, ‘द कम्पलीट वक्रस् आॅफ़ स्वामी विवेकानंद’ खंड-2, पृष्ठ-536, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 1997)। इसके अलावा वैदिक भारत के आधिकारिक विद्वान सी. कुन्हन राजा प्राचीन भारत में गोमांस खाने के बारे में लिखते हुए बताते हैं कि, ब्राम्हणों सहित वैदिक आर्य मछली, गोश्त और यहां तक कि गोमांस भी खाते। लेकिन दुधारू गावों को नहीं मारा जाता था। एक गाय जिसका नाम (गोघना) था उसे अतिथि के सत्कार के लिए मारा जा सकता था। (सी कुन्हन राजा, ’वैदिक कल्चर’ सुनीति कुमार घोष तथा अन्य द्वारा संपादिल पुस्तक ‘द कल्चरल हेरिटेज आॅफ़ इण्डिया’, खण्ड-3, पृष्ठ-217, रामकृष्ण मिशन, कोलकाता, 1997, ‘मनु स्मृति’ के अध्याय 5 को भी देखें।)
यहाँ लोगों को इस लेख से यह नहीं समझना चाहिए कि मांस खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए। लेकिन समाज को अपनी समझ विकसित करते हुए यह ज़रूर समझना चाहिए कि किसी अफ़वाह में न पड़ें। और धर्म के नाम पर लड़-झगड़कर शर्मिंदा न हों और दूसरों को भी शर्मिंदा न करें।
लेकिन वास्तविक संघंर्ष मनुष्य के जीवन में तब आया जब कुछ लोगों को लगा कि वे अब सभ्य हो गये हैं और बाकियों को भी सभ्य बनाया जाय। ये सभ्य और असभ्य की परिभाषा गढ़ने वाले लोग ही मानवजाति को विघटन और टकराव के लिए आगे ले जाने लगे। यही वो लोग थे जिन्होंने कुलीनता, संस्कृति, सभ्यता, धर्म, नैतिक, अनैतिक, जाति, सत्य, झूठ और दैवीय प्रभाव आदि आदि चीजों को जन्म दिया। इसके बाद धर्म के क्षेत्र में अति-वैयक्तिकरण बढ़ा और नतीजा यह हुआ कि धर्म व्यक्ति और समाज और राष्ट्र से अधिक महत्वूपर्ण हो गया। उन लोगों के लिए जिनमें धर्म की गहनता गहराई तक जम गयी, से ही नस्लीय चेतना का जन्म हुआ।
नस्लीय चेतना एवं धर्म और आस्था का अधिक प्रचार और प्रसार भारत में तब और अधिक बढ़ गया जब लुटेरे मुसलमान घुमंतुओं के आक्रमण हुए उसके बाद गोरों ने अपने फा़यदे के लिए उन्हें आपस में लड़ाना-भिड़ाना सिखाना शुरू किया। उसके बाद ही टकराव और तबाही के सिलसिले शुरू हुए।
अंग्रेज़ों की यह रणनीति इतनी का़रगर साबित हुई कि उन्होंने हर वर्ग और समुदाय के लोगों को उन्होंने आपस में लड़ाना-भिड़ाना शुरू कर दिया और इसके लिए उन्होंने धर्म रूपी हथियार को प्रयोग में लाया। फलस्वरूप व्यकि के खाने-पीने, रहने-सहने और पहनने और संस्कृति में वैमनस्य का रूप ले लिया!
मांस खाना या न खाना व्यक्ति की अपनी इच्छाओं और स्वाद पर न निर्भर होकर धार्मिक विचारधारा में बदल गया! यहाँ एक उदाहरण द्वारा देखेंगे कि कैसे व्यक्ति अपनी इच्छा को अपने अंतिम दिनों में जान पाता है - एक व्यक्ति जो आजन्म शाकाहारी रहे। लेकिन एक गंभीर बीमारी की वजह से डाॅक्टरों ने उन्हें मांस खाने की सलाह दी, इस पर वो बिदग गये, बोले मैं मर जाउं या जिन्दा रहूं लेकिन मांस नहीं खाउंगा। लेकिन पुत्रों के पिता के प्रति लगाव के कारण उन्हें बिना बताये मांस परोसा गया, उन्होंने चाव से खाया। फिर दो तीन दिनों बाद वही भोजन खाने की इच्छा व्यक्त की, इस पर कुछ झिझकते हुए उन्हें उनके पुत्रों ने हकीकत बतायी। इस पर पहले तो काफ़ी झिझके उसके बाद खुद पर खीझते हुए बोले अब पता चला कि लोग मांस क्यों खाते हैं, पूरी जिंदगी यूं ही घास-फूस (शाकाहारी भोजन) पर ही बीत गयी। (इस कहानी में हम देखते हैं कि व्यक्ति की खाने इच्छा उसके स्वाद न ले पाने की वज़ह से जागृत हुयी!)
अब हम देखेंगे कि कैसे प्रागऐतिहासिक काल से मनुष्य मांस खाता था (ज्यादातर लोग इसके पीछे दलील देते हैं कि ऐसा इसीलिये था कि संभव हो उस समय धर्म की उत्पत्ति न हुयी हो) धर्म के जानकार लोग मानते हैं कि किसी भी धर्म या शास्त्र में यह नहीं लिखा कि मनुष्य को मांस नहीं खाना चाहिए। हां यह ज़रूर लिखा मिल जायेगा कि जीवों पर दया करो। जब जीवों पर दया करों का वास्तविक अर्थ व्यक्ति किस रूप में लेता है यह हर व्यक्ति की अपनी-अपनी विचारधार पर निर्भर करता है। कैलिफ़ोर्निया के शेक्सपियर क्लब में फ़रवरी 2, 1900 को ‘बुद्धकालीन भारत’ विषय पर बोलते हुए स्वामी विवेकानंद ने बताया था, अगर मैं आपसे यह कहूंगा कि पुरानी परम्पराओं के अनुसार वह अच्छा हिन्दू नहीं था, जो गोमांस न खाता हो, तो आपको आश्चर्य होगा। कुछ विशेष अवसरों पर उसे एक बैल की बलि देनी पड़ती थी और उसे खाना पड़ता था। (विवेकानंद, ‘द कम्पलीट वक्रस् आॅफ़ स्वामी विवेकानंद’ खंड-2, पृष्ठ-536, अद्वैत आश्रम, कोलकाता, 1997)। इसके अलावा वैदिक भारत के आधिकारिक विद्वान सी. कुन्हन राजा प्राचीन भारत में गोमांस खाने के बारे में लिखते हुए बताते हैं कि, ब्राम्हणों सहित वैदिक आर्य मछली, गोश्त और यहां तक कि गोमांस भी खाते। लेकिन दुधारू गावों को नहीं मारा जाता था। एक गाय जिसका नाम (गोघना) था उसे अतिथि के सत्कार के लिए मारा जा सकता था। (सी कुन्हन राजा, ’वैदिक कल्चर’ सुनीति कुमार घोष तथा अन्य द्वारा संपादिल पुस्तक ‘द कल्चरल हेरिटेज आॅफ़ इण्डिया’, खण्ड-3, पृष्ठ-217, रामकृष्ण मिशन, कोलकाता, 1997, ‘मनु स्मृति’ के अध्याय 5 को भी देखें।)
यहाँ लोगों को इस लेख से यह नहीं समझना चाहिए कि मांस खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए। लेकिन समाज को अपनी समझ विकसित करते हुए यह ज़रूर समझना चाहिए कि किसी अफ़वाह में न पड़ें। और धर्म के नाम पर लड़-झगड़कर शर्मिंदा न हों और दूसरों को भी शर्मिंदा न करें।