Saturday, September 14, 2019

संस्मरण: घुसपैठिए


बात उन दिनों के बाद की है जब मैं नक़लची नाम के फ़ेमस कॉलेज में पढ़ा करता था। वहां मेरा मन बिल्कुल न लगता। हालाँकि तब वहाँ पढ़ाई अच्छी ही होती थी। सभी प्रोफेसर नवयुवक थे, एक प्रोफेसर साहब हरदोई से रोज आते जाते थे, लेकिन गाँव से 12 किलोमीटर साइकिल चलाकर जाना पड़ता था और मैं एक पैर से कमजोर होने के कारण थक जाता था। अम्मा कहती थीं कि ये इतना दुबला पतला कि आँधी आ जाए उड़ जाए। ख़ैर, जैसे तैसे एक साल कटा, फिर मैंने रैगुलर कॉलेज जाना बंद कर दिया, कभी कभी ही जाता था। वहाँ अटेंडेंस का कोई चक्कर था ही नहीं, फ़ीस भरो और परिक्षा दो, यही परिपाटी थी। फिर एक साल बाद गाँव में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं (डबल मर्डर) कि मैं हरदोई के नजदीक रहने आ गया, अपनी मौसी के घर। यहाँ मन्ना पुरवा में एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता था और जब स्कूल खत्म होता तब लखनऊ चुंगी के पास, आईटीआई के सामने एक कामर्शियल कॉलेज में हिंदी टाइपिंग और शॉर्टहैंड सीखने के लिए जाता था। फिर शाम को वहाँ से आने के बाद कुछ बच्चों को फ्री और जो पैसे दे सकते थे उन्हें ट्यूशन पढ़ाता था।

अब असल मुद्दे पर आता हूँ। हरदोई में ही मेरे गाँव की एक बहन अपने रिश्तेदार के यहाँ रहकर पढ़ाई करती थीं, वे बहुत भले घर की भली लड़की थीं। वे हरदोई के सीएसएन कॉलेज में पढ़ती थीं। उन्होंने मुझे आते-जाते देखा होगा। एक दिन अचानक मुझे रोककर बड़ी झिझक के साथ कहा भैया क्या तुमने पढ़ाई छोड़ दी है। मैंने उन्हें अपनी सब हक़ीक़त कह सुनाई। वे बोलीं यदि तुम्हारे पास समय हो तो यहाँ कॉलेज में पढ़ने आ जाया करो। तब वहाँ ड्रेस नहीं लगती थी। ड्रेस होती तो शायद मैं मना कर देता। मुझे उनका सुझाव अच्छा लगा। हालाँकि मैं स्कूल में पढ़ाता था इसलिए ऐसा सम्भव न था फिर भी मैंने अपने स्कूल से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर क्लास जॉइन करने की सोची। सामाजिक विज्ञान मेरा प्रिय विषय था। इसलिए विशेष रूप से मैंने वह लेक्चर जॉइन करने का प्लान बनाया। क्लास में मैं अजनवी था, इसलिए चुपचाप सिर झुकाए, विंडो वाली सीट पकड़ लेता। ताकि किसी की नज़र न पड़े। एक दो दिन तो ठीकठाक रहे। फिर सोमवार के दिन उन प्रोफेसर साहब ने मुझसे कहा, "तुम तो यहाँ के छात्र नहीं हो, खड़े हो जाओ"। मैं डर गया, और साफ साफ हक़ीक़त कह सुनाई।

उस प्रोफेसर ने मुझे सभी छात्रों के सामने बुलाया और "घुसपैठिए हो, घुसपैठिए हो" कहकर इतनी बेइज्जती की कि मेरी आत्मा तार तार हो गई, डर से कांपने लगा, घिघ्घी बंध गई। बाहर आकर खूब रोया। और रोने के बाद जब आत्मा तृप्त हो गई नानक गंज झाला गाँव की रास्ता पकड़ी। उस दिन से मुझे घुसपैठिए शब्द से नफ़रत हो गई। हम अपने देश में घुसपैठिए साबित हो गए थे। गाँव की बहन से दुबारा मुलाकात करने की हिम्मत ही न हुई क्योंकि वे भी क्लास में मौजूद थीं। आज उस बात को बीस साल हो गए लेकिन उस देशप्रेमी प्रोफेसर का चेहरा आज भी याद है।उन बहन की सलामती की दुआ के साथ ऐसे प्रोफेसरों को सद्बुद्धि की कामना करता हूँ। प्रभु उन्हें दीर्घायु प्रदान करें।

Thursday, September 12, 2019

प्यार की कली।

कुछ दिन से मन अनमना मेरा,
यादें  रह,  रह  कर  आती  हैं।
लगता  प्रियजन  को  भूले हो,
चुपके  चुपके  कह  जाती हैं।।
          फिर रोने का  दिल करता है,
          सिसकियाँ बीच आ जाती हैं।
          थपकी  देतीं  कंधों  पर  वे -
          साहस  और  धैर्य  बँधाती हैं।

तब खोल अटैची अपनी मैं
कुछ  पत्र  पुराने  पढ़ता हूँ।
जब  आंखें गीली हो जातीं,
शब्दों  को  ऐसे  गढ़ता हूँ।।
          एक  पत्र  पुराना  हाथ  लगा,
          एक  मित्र  हमारा  लिखता है-
          " इन  दिनों  प्रेम  में  हूँ  प्यारे,
           सब अच्छा-अच्छा दिखता है।"

इसलिए  प्रेम  से  बात  सुनों -
कुछ प्यार मोहब्बत करिए तुम,
पीड़ादायक  जीवन  में अपने-
कुछ  रंग  सुनहरे  भरिए  तुम।
          "हे  दोस्त,  सखा,  मेरे  प्यारे !
           करुणा रस में क्यों लिखते हो?
           लिखिए  अपने  अंदाज़  वही,
           क्यों तुम उदास से दिखते हो?"

उन दिनों उदासी  दूजी थी,
जो बहुत दिनों तक घेरे थी।
तब जीने की  उम्मीद न थी,
तब  कौड़ी पास न मेरे थी।।
          अब उसकी बातें सच लगतीं,
          रिश्तों से खुशियाँ  मिलती हैं,
          है प्यार की कली बड़ी कोमल,
          हर मौसम में वह खिलती है।

Tuesday, September 10, 2019

बगुला

सफ़ेद रंग मेरा प्रिय रंग है। कफ़न जैसा सफ़ेद, हूबहू, भारतीय रेल के तीसरे और दूसरे दर्जे के यात्रियों को दी जाने वाली बेडसीट जैसा। ऐसे ही रंग एक पक्षी का भी है जिसे बगुला कहते हैं, सुर्ख़ सफ़ेद! कबूतर कुछ भी नहीं है इसके आगे भाई साहब! यकीन मानिए! असल में असली शांतिदूत बगुला होता यदि वह मांसाहारी न होता! (ये नियम जरूर शाकाहारियों ने बनाया होगा)

बचपन में सफ़ेद बगुले देखकर इतना कौतूहल होता था, कि कई बार अपने बटाई खेत के पास तालाब किनारे घंटो बैठकर उनको निहारता रहता था। वे शिकार में इतने ध्यानमग्न होते कि, उन्हें पता ही नहीं चलता कि, कोई उन्हें देख रहा है। कौआ के बाद बगुला ही ऐसा पक्षी है जिसे प्राचीन काल की भाषा संस्कृत में किसी उपाधि (बकोध्यानं) से नवाजा गया है।

सभी प्राणियों की तरह इनका भी पानी ही प्रिय पेय पदार्थ है, हालांकि, मांसाहारी होने के कारण इन पर कुछ संदेह ज़रूर होता है, कि वे शराब के भी शौकीन होंगे। क्योंकि, ऐसा कहा जाता है कि, शराबी मांसाहारी नहीं भी हो सकते हैं, लेकिन मांसाहारी शराबी अवश्य हो सकते हैं (आम भारतीयों की राय अनुसार) ख़ैर छोड़िए, यह अभी भी शोध का विषय है।

बगुलों में एकता का अनूठा संगम दिखता है, ये प्रकृति प्रेमी, निश्छल प्रेमी और मेहनती होते हैं। और सम्मोहक तो बिल्कुल वैसे ही जैसे सफ़ेद कुर्ते पायजामें में नेता जी।😊

Popular Posts

Modern ideology

I can confidently say that religion has never been an issue in our village. Over the past 10 years, however, there have been a few changes...