बसंत ऋतु का आगमन हो चुका था। इस बार होली फरवरी के आख़िरी सप्ताह में आकर चली गयी थी। पता नहीं क्यों लेकिन लोगों में इस बार होली का कोई ख़ास उत्साह था। हालांकि जंगल टेसू के फूलों से लदे थे और चरवाहे ख़ुश थे कि, इस बार बौंर काफ़ी आया है। जामुन के पेड़ों में नई कपोलें आ चुकी थीं और महुए के पेड़ों से फूल गिरने का इंतज़ार हो रहा था। किसान फ़सल को लेकर काफ़ी उत्साहित थे। वे गेहूं के खेत से कूंड़ में बोई गई सरसों निकाल रहे थे। 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा अपने चरम पर थी। इस समय गांव में चहल पहल का माहौल था। भले ही भारत के अधिकतर गांव दरिद्रता में रहे हों, बावजूद उसके गांवों में खुशियां शहरों की अपेक्षा हमेशा अधिक ही रही हैं। ऐसा ही एक गांव कुरसठ है। जहाँ से होकर ट्रेन गुज़रती जो अपने आप में एक गौरव है। कुरसठ गाँव का इस लोकतांत्रिक देश में कोई छोटा महत्व नहीं है। भले ही यहाँ कोई बड़ा अधिकारी और कोई बड़ा नेता न पैदा हुआ हो, लेकिन इसकी अपनी स्वयं की कहानी है। इसे न तो किसी ने उजाड़ा और न ही किसी ने बसाया। इस गांव की कहानी परियों की कहानी के समान है। यहाँ कई ऐसे लोग हुए जिन्होंने भूतों से दो दो हाथ किये और उसके साथ बैठकर चिलम पी। कहानी अब शुरू होती है।
तो जैसा कि नियमित था, रोज की तरह उस दिन भी ट्रेन को सीतापुर से बालामऊ होते कुरसठ के रास्ते कानपुर जाना था। ड्राइवर ने अपने सिर पर कपड़ा बांध रखा था और इंजन पर सवार होने से पहले उन्होंने हमेशा की तरह उसे सलाम किया। गार्ड साहब ने काला कोट पहन रखा था, तथा हरी और लाल झंडी को सहेज रहे थे। उनकी सीटी उनके गले की शोभा बढ़ा रही थी, जो उन दिनों गौरव की बात हुआ करती थी। इन दोनों की इस रूट पर यह आखिरी ड्यूटी थी। वे इस पूरे इलाके से ऐसे परिचित हो गए थे जैसे जिस भी गांव से ट्रेन गुजरती हो उसके निवासी हों। लोग भी उन्हें अपने बीच का मानते थे। उन दोनों को पता होता था कि किस व्यक्ति को जरूरी कार्य से जाना है और उसकी ट्रेन छूटने से उसे कितना कष्ट होगा, वे फौरन ब्रेक लागते और ट्रेन छूटे व्यक्ति को बिठाकर चल देते। इंजन एक बड़ी सीटी ...कु कू... कू लगता और ट्रेन फिर अपने रफ़्तार से चल पड़ती। धध्धे पैसा चल कलकत्ता... धध्धे पैसा चल कलकत्ता...बाबू जी की धेका..दो (ये कुछ दोहे थे जो बच्चे ट्रेन के गुज़रते ही सुर और लय ताल में ज़ोर लगाकर गाया करते थे)।
ट्रेन में बैठने वालों का ट्रेन के हर हिस्से से, इंजन ड्राइवर और यहां तक कि डिब्बे में लगी उस सीट से आत्मीय लगाव था। सफ़र करने वाले व्यक्ति डिब्बे की हर गतिविधि से परिचित होते थे। इतना प्रगाढ़ संबंध जैसे कि यह ट्रेन ही उनके लिए मोक्ष का एक मात्र साधन हो। और बात भी सही थी, उन दिनों क्या गरीब क्या अमीर सबके लिए एक यही तो एक मात्र साधन था।
उन दिनों ट्रेन अमीरी और ग़रीबी के भेद को नहीं समझती थी, उसे हर व्यक्ति से बराबर का लगाव था। उसके लिए तो हर व्यक्ति उसके लिए मेहमान था जिसे सुरक्षित उसके गंतव्य पर पहुंचाना उसका कर्तव्य था। इसमें बैठने के बाद कोई जातिगत भेदभाव नहीं। कोई चमार पासी नहीं कोई पंडित ठाकुर नहीं। हां कई बार लिहाज़ के हिसाब से पिछड़ी जाति के लोग अवस्थी, मिश्रा, और पंडितों को सीट दे देते थे। महिलाओं के लिए सम्मान के तौर पर लोग सीट सुपुर्द कर देते थे फिर चाहे महिला किसी के घर परिवार की हो, पर्दा प्रथा का यही एकमात्र अपना फायदा था।
भाप के इंजन की धक-धक गांव से विदा हो रही लड़कियों की धक धक को बढ़ा देता था। और सीटी की आवाज़ से शहर कमाने जा रहे व्यक्ति को आगाज़ करता यदि हो सके तो अभी भी समय है रुकना है तो कुछ दिन और रुको और यदि संभव हो तो यहीं कमाओ खाओ। बाहर पढ़ने वालों के लिए यह सीटी उनके कर्तव्य का बोध कराती थी कि मां बाप की गाढ़ी कमाई को पढ़ाई में ही खर्च करना, जरा सा ध्यान चूका तो समझो दुर्घटना हुई। उनदिनों इंजन की सीटी लोगों के लिए समय बताने वाला सूचक था। लोग घड़ी से अधिक इंजन पर भरोसा करते थे। यदि ट्रेन देर से आती तो लोग किसी अनहोनी का अंदाजा लगाते थे और उसकी सलामती की दुआ करते।
आज भाप का इंजन ख़ामोश था। ड्राइवर में वह जोश नहीं था, वह इंजन में हल्की सीटी लगाकर उसे याद दिलाता, देखिये, यही कुरसठ है जिसने हमें कितने ही बार दूध मठ्ठा और गन्ने का रस दिया। तुमको उतना ही सम्मान दिया जितना अपने पूर्वजों और देवताओं को देते हैं और तुम्हारी हर तीज़ और त्यौहार वैसी ही पूजा की जैसे कि बरम्बाबा की करते हैं, तुम्हारे साथ होली खेली। हां तुम भी तो उनके दुख और सुख में शरीक हुए। देख लो आज फिर कल से हमारा और तुम्हारा नाम गुमनामी में कहीं खो जाएगा। हम रेलवे के किसी रजिस्टर में तो दर्ज होगें लेकिन हमें कोई याद करने वाला नहीं होगा। इंजन ने एक धीमी सी पतली सीटी बजाई जैसे कि उसे इतना कष्ट हुआ हो जैसे विदाई के समय लड़की बाप से विदा होते हुए नहीं रोती लेकिन हलक से एक हल्की सी हिचकी देकर चुप हो जाती। उसे पता है कि उसके रोने से उसके पिता पर क्या बीतेगी? लेकिन आज इंजन को क्या पता कि उसकी विदाई का इस गांव में किसी को कुछ नहीं पता। यहाँ तो सभी अनजान थे, उन्हें पता होता तो वो इसके लिए घरों से निकलकर उसको निहारते और जैसे दुल्हन की विदाई के समय लोग तब तक देखते रहते जब तक कि वह आंखों से ओझल न हो जाये।
भाप के इंजन की विदाई की जानकारी केवल कुछ ही व्यक्तियों को थी। लोगों की नज़र में वह दिन वैसे ही आया जैसे कि अन्य दिनों में होता, सवारी करने वाले अनजान थे। लेकिन भाप का इंजन आज जुदा हो रहा था। उसे तो हमारी कहानी में आना था। भाप के इंजन आपको अवगत हो कि आप हमारे दिलों में आज भी जिंदा है, आपकी सांवली सलोनी सूरत वैसे ही मेरे दिल दिमाग में है जैसे कि हमारा गांव। देवदूत! हमारी अलविदा अब स्वीकार करें।