चरवाहा।
जहाँ आजकल लहलाती धान की फसल दिखाई देती है, वहाँ कुछ समय पहले एक भयानक जंगल था। हाँ जंगल के किनारे एक पगडंडी जरूर थी जहाँ से हिम्मती लोग निकलते थे। इस जंगल में अनेकों जंगली फल मिलते थे जिन्हें खाने के लिए पढ़े लिखे लोगों के मुह में पानी आ जाता था, यहाँ कैथा, इमली, जामुन, आम, महुआ के पेड़ थे लेकिन झरबेरी यहां का मुख्य फल था। वैसे जंगल में अनेकों फूल खिलते थे लेकिन टेसू के फूल जंगल की शोभा बढ़ाते थे। रेहुआ (ऊसर ज़मीन की पपड़ी जमी रेत जिसे ग़रीब लोग कपड़े धोने के लिए इस्तेमाल करते थे) और छोही, गेरुआ (इससे अमीर और गरीब दोनों ही घर की पुताई करते थे) निकलती थी।
जंगल भयानक होने के बावजूद आसपास के गाँव के लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता था। कटीली झाड़ियाँ रौब दिखाती थीं, जेठ की तपती दोपहरी में जंगल से सायं सायं की आवाज आती थी। यहाँ खतरनाक जानवर तो नहीं लेकिन आजकल जिन्हें हम दुर्लभ जानवर कहते हैं वे सब कभी न कभी दिख ही जाते-स्याही, लोमड़ी, नीलगाय, खरगोश आहे बगाहे दिख ही जाते थे, वैसे नट और कंजड़ों ने खरगोश का शिकार करके उन्हें विलुप्त कर रहे थे, नीलगाय किसानों के लिए मुसीबत थीं लोमड़ी और स्याही कौतूहल पैदा करते थे, जंगल दुर्लभ सर्पों, से भरा पड़ा था। नेवला तो ऐसे दिख ही जाते थे। जैसे ही किसी को नेवला दिखता वो सांप और नेवले की लड़ाई देखे जाने की डींग हांक देता। हालांकि कहना मुश्किल था कि किसी ने उनकी लड़ाई देखी भी है। इलाके में ऐसे अनेकों जंगल थे, जहाँ से लोग निकलने के बाद अपने पर गर्व करते थे। लेकिन यह जंगल अपने में अलग था। इसे डंडियाँ कहते थे।
बात उन दिनों की है, जब लोग साझे में खेती करते थे। तब फ़सल से गेहूँ को निकलने के लिए जानवरों द्वारा एक विशेष मशीन द्वारा खींचा जाता था और गन्ने का रस बैलों को कोल्हू में जोतकर निकाला जाता था तथा सिंचाई के परंपरागत तरीके अपनाए जाते थे। उन दिनों गांवों में चाय की जगह सिखन्ना (एक प्रकार का पेय पदार्थ जिसे गुड़ के शरबत से बनाया जाता था और उसमें स्वादानुसार गाढ़े मठ्ठे या दही को मिलाया जाता था।) पीने का चलन था। खेती जीविकोपार्जन का उस समय सबसे अच्छा तरीक़ा था। तब ग़रीब लोग दिल्ली बम्बई नहीं जाते थे। हां, यदि बटाई खेती से बहुत ज्यादा मन ऊब गया तब ज्यादा से ज्यादा मेरठ चला गया। और मजदूरी और रिक्सा चलाने का कार्य करता था। उस समय मनोरंजन के लिये लोग नौटंकी, ड्रामा और नाच देखते थे। धोबिहा नाच, कहरहा नाच, और इसी तरह कितने ही नाच शादियों में आते थे, जिनमें चकल्स होती थी। बेनिबाज़ा भी शादियों की शान बढ़ाता जिसमें आदमी औरत बनकर नाचता था। तब लोग समय के सदुपयोग के लिए सिरबग्घू, लठ्ठबाजी आदि खेलते और सीखते थे। इस खेल में दो लोग खेलते बाकी लोग तसल्ली से उनको देखते। हालांकि ताश के खेल की शुरुआत भी हो चुकी थी लेकिन लोग इसे जुए का खेल मानते थे।
उन दिनों इस जंगल में चरवाही करना चरवाहे गर्व की बात समझते थे। तब पढ़ाई के साथ जानवरों को चराने, घास छीलने और खेत से चारा काटकर लाना कोई शर्म की बात नहीं थी। पढ़े लिखे, सम्पन्न लोगों के बच्चे तक जानवर चराया करते थे। गाय, भैंस दूध देती है इससे फर्क नहीं पड़ता था, तब जानवरों को जंगल ले जाना, तालाब में नहलाना, उसको चूमना, गोबर उठाना, आदि ओछे काम नहीं समझे जाते थे, हालांकि उस समय गौ रक्षकों की भीड़ नहीं थी। तब चरवाहा समझकर आप उसकी जाति का पता नहीं लगा सकते थे।
उस समय किसी गाँव में एक चरवाहा रहता था। अव्वल दर्जे का, इतना हुनरमंद कि अन्य घरों के लोग अपने बच्चों से कहते देखो उसको, सीखो उससे कभी भी भैंस चराने से मना नहीं करता। और होती भी क्यों न वह एक बार चिल्लाता, वापस आ, भैंस दौड़ी-दौड़ी वापस आ जाती। लोग कहते यह जानवरों पर जादू कर देता है। जानवर चराने के साथ ही साथ घास भी छीलने में उस्ताद। लोग बोलते आजकल घास नही है लेकिन ये जरा सी देर में पल्ली भर घास छील लाता। कई बार जानवर चराते चराते भी घास छील लेता और शाम को भैंस के ऊपर रख कर लाता तब रास्ते में प्रश्नों की बौछार लग जाती भाई कहाँ से हाथ मार लाए। वह मुस्करा देता, कहीं से नहीं चाचा, मेंढ पर भैंस चरा रहा था वहीं लगे हाथ छील ली। हां भाई एकदम हरी हरी घास है। लोग ईर्ष्या से मुँह बनाते और तारीफ भी कर देते।
घर से सुबह खा पीकर करीब 11 बजे निकलता, तब शरबत का जमाना था, वो भी मठ्ठा मिलाकर लोग इसे सिखन्ना कहते थे। क्या स्वाद होता। राब या गुड़ मिलाकर इसे बनाया जाता था। लोग कहते थे चरवाहा एक गगरा शर्बत पी जाता है। भगवान जाने इसमें क्या सही है क्या गलत। लोग तो यहाँ तक कहते थे कि इसका पेट अन्य व्यक्तियों की तुलना में काफी लंबा और गहरा है। चरवाहे को कभी किसी ने गुस्से में नहीं देखा, हमेशा मुस्कराहट बिखरी रहती थी। किसी से कोई लड़ाई नहीं। जिसने बोला उससे हँसकर बात कर ली। दोपहर के खाने के लिए वह 4 मोटी रोटी, एक साबुत प्याज और किलहा की खटाई साथ में रख लेता था। उन दिनों पानी लेकर चलने का चलन नहीं था, तब इंसान और जानवर एक ही घाट का पानी पीते थे। तालाब लबालब भरे रहते थे जिसमें नर गुजरिया, कमल सिंघाड़े आदि की बेल भी रहती थी। तब अबके जैसा जमाना नहीं था कि तालाब में पानी ही नहीं। खेतों में भी कुंवें होते थे, पत्ते तोड़कर एक दोना बनाया और जंगल में लगी बेल बांधकर पानी खींच लिया अंजुली बांधकर पानी पी लिया, पानी में इतना ज्वाद कि बिसलरी की बोतल शर्म से दम तोड़ दे।
जब ज्यादा चरवाहे एक साथ हो जाते शर्त लगाकर सिरबग्घू का खेल खेलते, लेकिन शर्त बदकर, कोई जुआ नहीं बस खेल में जीतने की होड़ होती। चरवाहा खेल में इतना उस्ताद कि लोग उससे पहले ही हार मान लेते। कई बार दोपहर में लोग बाली भूनते, चने, मटर का होरा भूनते घर से लहसुन और हरी धनिया का नमक लाते। पत्ते जमा करते और भूनकर खाते, किसान कभी भी खाने के लिए मना नहीं करते थे। बस नुकसान नहीं होना चाहिए। चरवाहा इस काम में इतना उस्ताद कि मजाल कोई जान पाए कि किस खेत से बाली काटकर लाया है या चने कहाँ से तोड़कर लाया है। तब चना चबेना का दौर था। लोग पूरा पूरा दिन इसी से काट देते।
अब जंगल के कटने से चरवाहे विलुप्त हो रहे हैं, लोगों ने जानवर पालना बंद कर दिया है, जो पाल भी रहे हैं वे घर में बांधकर रखते हैं चारा पट्ठा करते हैं,तालाब सूख गए हैं, उन दिनों लोग कमाने शहर कम ही जाते थे। सुना है अब चरवाहा भी यहीं कहीं नोएडा में किसी फैक्ट्री में काम कर रहा है, कुछ दिन पहले मुलाकात हुई थी, बातों बातों में जिक्र हुआ। यादें ताजा हो गईं, काफी भावुक होते होते रह गया। नाम लिखकर व्यक्तिगत जानकारी को सार्वजनिक करना ठीक नहीं समझा, इसलिए उसे चरवाहा ही लिखा है।
आज ये सब लिखकर स्वयं भी भावुक हो गया हूँ। आप अपने अनुभव भी साझा करें। लिखने से मन हल्का हो जाता है।