Wednesday, May 24, 2017

रस्म और रिवाज

रस्म एक टोटका है जबकि,
रिवाज में अंधविश्वास की बू आती है।
और धर्म इन दोनों की रक्षक,
वो इन्हें एक साथ आगे बढ़ाती है।।

रस्म और रिवाज़ का विरोध
कोई क्यों नहीं करता है?
क्योंकि व्यक्ति 'आस्था' और
'धर्म' से बहुत डरता है।।

ढोंगी-पाखण्डी इन रस्मों और
रिवाजों के रखवाले हैं।
आस्तिक इनके गुलाम और
'नास्तिक' प्रश्न करने वाले हैं।।

कुछ भी।

रात के सफ़र में आप अकेले नहीं हैं 'शिशु',
चाँद-तारे, हवाओं का कारवां भी साथ है।

उसके प्यार का नशा इस क़दर चढ़ा
'शिशु' अब पीने की नौबत नहीं आती।
इस कदर सँभला हूँ बिगड़कर कि,
मुझमें कोईं सोहबत नज़र नहीं आती।

सोहबत:- वह बात (विशेषतः बुरी बात) जो बुरी संगत के कारण सीखी गयी हो।

शहादत को यूँही कभी भुलाया न जाएगा,
गुनाहगार को कटघरे में लाया ही जाएगा।।
बक्से नहीं जाएंगे जो साँप आस्तीनों में हैं,
उनको पहले ही शूली पर चढ़ाया जाएगा।।

कितनी पी है ख़बर नहीं कुछ,
फिर से कुछ पी लेता हूँ।
रो-रो जीवन कब तक काटूँ,
अब हंस कर जी लेता हूँ।।

गाँव को क़स्बा बनाने पर अड़ा हूँ मैं।

मील का पत्थर, किनारे पर गड़ा हूँ मैं।
आप गुजरें इस सहारे पर खड़ा हूँ मैं।।

भीड़ है भारी लेकिन हैं बस्तियां सुनसान,
गाँव को क़स्बा बनाने पर अड़ा हूँ मैं।

प्यार में उसने मुझे क्या देवता बोला,
ख़ुद ही ख़ुद का बुत बनाने पर अड़ा हूँ मैं।

घर के लोगों में मची है लूट चारों ओर,
इन झमेलों में न जाने क्यों पड़ा हूँ मैं।

युद्ध को भड़का रहे हैं धर्म के रक्षक,
शांति के पैग़ाम के अंदर सड़ा हूँ मैं।।

गाँव का होकर गाँव की नहीं!

गाँव का होकर,  गाँव की नहीं,
किसी बिरवे की छाँव की नहीं,
धूल  और  नंगे  पाँव  की नहीं,
नदी,  तालाब,  नाव  की नहीं!
फ़िर किसकी बात लिखूँ 'शिशु'!!

बकरी,  भैंस,  गइया  की नहीं,
चरवाहे  भैया कन्हैया की नहीं,
स्वरचित  गीत  गवैया की नहीं,
छंद,  चौपाई,  सवैया की नहीं!
फ़िर किसकी बात लिखूँ 'शिशु'!!

मुसीबत  के  मारे इंसान की नहीं,
खेत, खलिहान, किसान की नहीं,
लोन, तेल, आटा-पिसान की नहीं,
अपनों के चोट के निशान की नहीं!
फ़िर किसकी बात लिखूँ 'शिशु'!!

छप्पर, बिस्तर , खाट  की  नहीं,
दरवाजे  पर टंगे, टाट  की  नहीं,
अपनों  से मिली डाँट  की  नहीं,
गाँव  के  मेला,  हाट  की  नहीं !
फ़िर किसकी बात लिखूँ 'शिशु'!!

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