मुझ जैसे नौसिखिया लिक्खाड़ और घर पर पाइरेटेट डीवीडी लाकर फिल्म देखने के बावजूद मेरी मजाल तो देखिये कि फिल्म की समीक्षा लिखने लगा। लिख इसलिए रहा कि कबीर दास जी ने लिखा है-जिन ढूंढ़ा तिन पाइयां सो मैने भी सोचा कि जिन देखा जो लिख दिया वाली बात पर लिख दिया।
अब जब लिखने ही लगा तो फिल्म का नाम भी लिखे देता हूं-‘रब ने बना दी जोड़ी’। ‘वाह क्या बात है, क्या अच्छी फिल्म है’लोगों से ऐसी तारीफ सुनकर श्रीमती जी भला क्या बिना देखे रह सकती हैं। सवाल ही नहीं उठता। उसी तरह जैसे कि ‘सास भी कभी बहू थी’ वाले धारावाहिक की तरह जब पड़ोसन देखती हैं तो मैं क्यों नहीं देख सकती, भले ही मुझे अच्छा लगे या ना लगे। इसी से तो खाली समय में चर्चा करने मौका मिलेगा। तय किया कि 1 तारीख को फिल्म जरूर देखेंगे नया साल भी इसी बहाने मना लेंगे। लेकिन ऐन टाइम पर ऑफिस ने टांग अड़ा दी, सो क्षमा याचना करके भारतीय अदालतों की तरह अगली तारीख मुकरर्र करनी पड़ी। बात आयी और गयी। लेकिन एक मित्र, जो मेरी तरह डीवीडी से फिल्म देखने के शौकीन हैं, ने एक मुझे भी थमा दी।
फिल्म में दिखाया गया है कि आधुनिकता के बावजूद कैसे आज भी भारतीय पत्नियों को अपने पति में रब यानी भगवान दिखाई देता है। बिजली बाबू सुरिन्दर साहनी (शाहरूख खान) ने तानी (नयी नायिका होने की वजह से नाम याद नहीं) से परिस्थितिवश शादी की है। नायक नायिका को पत्नी की तरह प्यार करता है लेकिन नायिका उसे स्वीकार नहीं करती जिसके लिए नायक एक मार्डन युवक बनकर नायिका का दिल जीतने के लिए उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। बस यही कहानी है। फिल्म में नायक का आम आदमी वाला रोल मार्डन युवक से ज्यादा सशक्त नजर आता है। वहीं इस फिल्म में भारतीय सिनेमा में महिला पात्र जहां मात्र बदन दिखाऊ सीन के लिए जानी जाती है से निकलकर बाहर आयी है। कहा जाय तो तानी का अभिनय भी जबरदस्त है। इस फिल्म में अश्लील और उत्तेजक सीन अन्य फिल्लों की तरह न के बराबर हैं इसलिए इसे पारिवारिक फिल्म मान कर चलिये। फिल्म में मुझे कुछ सीन पर शक है जैसे शाहरूख का मार्डन युवक वाला रोल। क्या मूछें और बालों के लुक को बदलने के बाद आदमी छिप सकता है? दूसरों के लिए आसन न सही लेकिन साथ रहने वाले के लिए पहचानना मुश्किल काम नहीं है। इसे नायिका फिल्म के अंत में पहचान पाती है। दूसरी बात यह कि अब डांस सीखने के लिए अब बहू-बेटियों को गैर मर्दों के साथ जोड़े बनाकर सीखना पड़ेगा। बात कुछ अटपटी लगी।
अंत में कहा जाय तो बाकी फिल्मों से यह फिल्म थोड़ी अच्छी है। फिल्म में शुरू से आखिरी तक नई पीढ़ी में परंपरा और आधुनिकता के बीच द्वंद चलता रहता है। सूमो से मुकाबला और शाहरूख का मतलब से ज्यादा भावुक होना अखरा है। विनय पाठक जो नाई की भूमिका में हैं और नायक के दोस्त हैं, ने फिल्म में कहीं-कहीं शाहरूख के अभिनय को पछाड़ा है। मैंने इसे श्री स्टार दिये हैं।