पाला पड़ा गपोड़ों से।
डर लग रहा थपेड़ों से।।
अर्थव्यवस्था पटरी पर
आई चाय पकौड़ों से।
बच्चे बिलखें कलुआ के,
राहत बँटी करोड़ों से।
जीत गए फिर से खच्चर,
शर्त लगाकर घोड़ों से।
जो ठोकर के आदी हैं,
उनको क्या डर रोड़ों से।
रंग हमारा हरेरे की तरह है. तुमने समझा इसे अँधेरे की तरह है. करतूतें उनकी उजागर हो गई हैं, लिपट रहे जो लभेरे की तरह हैं. ज़िंदगी अस्त व्यस्त ...
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