उस दिन गाँव में तामून (चूहों के मरने के बाद एक बीमारी, इसमें मनुष्य के गले में गाँठ बन जाती थी) से ग्रसित होकर बैजनाथ (बैजू बाबा) के परिवार में कुल पाँच मौत एक ही दिन में हुईं थीं। जिसमें उनके पिता श्री देवीदीन, चाचा लालचंद और बंसी के अलावा उनके बड़े भाई तथा एक बुजुर्ग महिला की मौत हुई थी। पूरा गाँव सदमें में था। तब मातम और जश्न पूरा गांव मिलकर मनाता था। ये दास्तान तबकी है...
आज़ादी के बाद भारत में जश्न का माहौल था। खेतीबाड़ी अपने ढ़र्रे पर वापस आ रही थी। अंग्रेजी शासन के लगान से किसान उबरने लगे थे कि सन 1953 में आई इस त्रासदी से हज़ारों लोग मरने लगे। गांव के गांव उजड़ने लगे। हमारे गांव में भी लोगों ने अपनी अपनी झोपड़ी गांव से बाहर खेत या बाग़ में बनाई। गांव में सन्नाटा पसरा रहता था। तब पैसे वालों के घर भी कच्ची मिट्टी के होते थे। गाँव में लोग ताला कुलुप डालकर बाहर रहने लगे। वहीं किसान रहते और वहीं उनके जानवर।
कुम्हारों के आंवा (मिट्टी के बर्तन पकाने वाली भट्टी) और चाक गांव से बाहर पेड़ के नीचे स्थापित थे। लोगों में चूहों से इतना भय था कि उन्हें देखते ही बीमारी का भय हो जाता। यदि किसी के घर में कोई चूहा मृत अवस्था में मिल जाता वे भय से ग्रसित हो जाते। तब मरना और जीना नियति के हाथ में था जिसे लोग भाग्यशाली होने और श्रापित होने से परिभाषित करते थे।
त्रासदी के करीब 10 साल बाद भी किसानों की हालत बहुत ही दयनीय रही, घोर दरिद्रता, ग़रीबी में लोगों के दिन बीते। इतना सब होने के बावजूद भी गाँव में कोई भूख से न मरा। बड़े काश्तकारों ने गरीब और बटाई खेत करने वालों की खूब मदद की। उनसे अनाज में हिस्सा न लिया। खूब अनाज दान किया गया। वैर भाव सब खत्म हो गए। इंसानियत और भाई चारे की ऐसी मिशाल आजतक न देखी गई...
*आज पिताजी से फोन पर हुई बातचीत पर आधारित।
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