Monday, May 4, 2020

तीन महीने की नौकरी



चौधरी सर्विसेस से पहले लालकुर्ती, मेरठ में एक कमर्शियल सेंटर में टाइपिस्ट की एक जॉब मिल गई। वहाँ के मालिक उत्तरप्रदेश बिजली बोर्ड से रिटायर्ड हेड क्लर्क थे। वह जॉब मुझे मेरे मकान मालिक के लड़के ने बताई थी जो दुकानदार के लड़के का पिट्ठू था। जब मैं इंटरव्यू के लिए गया तो उस दिन वहाँ तीन लोग और थे जहाँ टाइपिंग टेस्ट एक बहाना था, असल में वे उसे रखने वाले थे जो मजबूर हो और कम पैसे में काम को राजी हो जाए। इसलिए मुझसे बेहतर उन्हें कैंडिडेट न मिला।

हमारे मालिक की टाइपिंग स्पीड हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ही कमाल की थी। "40 साल की नौकरी में यही मेरी पूँजी है" ऐसा उनका कहना था तथा जब भी कोई टाइपिंग करवाने वहाँ आता वे शेखी बघारते हुए यही रटा रटाया वाक्य सुनाते थे। जबकि, उनके बेटे की आवारागर्दी, ख़र्चीले स्वभाव, तड़क भड़क घर-मकान, रहन सहन और पूँजी देखकर अंदाज़ा लगाना मुश्किल न था कि, वे कितने बड़े ईमानदार रहे होंगें। ख़ैर।

 "इससे नहीं हो पायेगा" उनका तकिया कलाम था। जैसे ही कोई टाइपिंग करवाने आता, वे कहते इससे नहीं हो पाएगा। लाओ मैं कर देता हूँ। ये सेंटर उन्होनें अपने बिगड़ैल बेटे के लिए खोला था, जहाँ टाइपिंग सिखाने के साथ ही साथ फ़ोटोकॉपी और पीसीओ, फैक्स आदि का भी इंतजाम था। दो कम्प्यूटर भी थे जो हमेशा ढके रहते थे। कभी कभी उनका बिगड़ैल जवान लड़का उस पर गेम या कोरल ड्रा पर कुछ चीले कौवे बनाता रहता था। लड़कियों के नाम वाला उनका एकलौता लड़का 'पिंकी' दुकान पर एक पल भी न टिकता। हमेशा सूट बूट में रहने वाला वह एक पल में ही न जाने कहाँ बाइक पर चढ़कर फुर्र हो जाता। वे दिन भर मुझसे अपने आवारा बेटे की आलोचना करते और जब मैं उनकी हाँ में हाँ न मिलाता तब कोई ऐसा काम थमा देते जिससे ऊब महसूस होती जैसे कार्बन पेपर गिनना, फ़ोटोकॉपी के लिए A4 और लीगल रिम कितने हैं, की गिनती करना, आलपिन की डिब्बी जानबूझकर गिरा देते ताकि मैं खाली न बैठ रहूँ। और कुछ नहीं तो टाइपिंग मशीन ही खोलकर बैठ जाते और कलपुर्जे साफ़ करने को कहते आदि आदि। लेकिन असल काम न करवाते। 

वहीं पास में एक मंदिर था जहाँ चबूतरे पर संगमरमर लगा था, शाम के समय मैं पेशाब करने का बहाना करके कई बार उस मंदिर में तरावट और ऊब से बचने के लिए 10 पंदह मिनट बैठता और पुजारी से गप्पें हाँकता, वह हमारे पड़ोसी जिले पीलीभीत का रहने वाला था। वह बेसुरा पुजारी अखंड रामायण का जब पाठ करता तब अपने गाँव की धुन में पिरोई  चौपाई याद आ जाती और मन होता जाकर कह दूँ "बेसुरे"। लेकिन शाम को बंटने वाले प्रसाद के चक्कर या कहें कि डर की वजह से में ऐसा न कह पाता। वहाँ धनाढ्य लोग आए दिन केला, जलेबी पूड़ी, हलुआ आदि बांटते रहते और पुजारी मुझे एक दिन पहले ही बता देता तब मुझे खाना न बनाना पड़ता। शाम के लिए भी पैक कर लेता।

कोई भी टाइपिंग करवाने आता मुझसे पहले वे मशीन पर बैठ जाते और फटाफट करके दे देते।  गुल्लक में ताला लगाकर रखते चाभी पायजामें में खोंस लेते जैसे पुराने समय की सासू माँ। बेटे के पास डुप्लीकेट चाभी थी, जिसके बारे में उन्हें पता था। वह आए दिन उनके पैसे पर हाथ साफ करता रहता था। एक दिन उसने 100 रुपए मुझे और 1000 खुद साफ कर, हिदायत दी यदि किसी को बताया तो 200 वापस करने पड़ेंगे। उस पैसे से मैंने बेगमपुल की बाजार से लिल्लामी अमिताभ बच्चन वाली बेलबॉटम और और बड़े बड़े छापा वाली टीशर्ट खरीदी। जिसे शर्म की वजह से कभी न पहना और एक दिन कूड़े बीनने वाले को भेंट कर दी।

एक दिन शाम की चाय के समय मेरे मालिक बैठे बैठे हमेशा के लिए सो गए। तभी कोई टाइपिंग करवाने आ गया, मैंनें उन्हें जगाए बिना टाइपिंग कर दी। 3 महीने में यही मेरा पहला और आख़िरी टाइपिंग का जॉब था। अगले दिन से दुकान बंद होने के साथ ही मेरा आखिरी महीने का वेतन 500 रुपए भी डूब गया। लेकिन मुझे कोई अफ़सोस न हुआ, वास्तव में वहाँ 3 महीने में कोई ख़ास काम किया ही न था। 

एक दिन बेगमपुल पर जब चौधरी सर्विसेस के लिए जनरेटर की ख़ातिर डीज़ल लेकर आ रहा था तब उनके रंग मिज़ाज लड़के को देखा, वह 4 बजे टाइपिंग सीखने वाली छम्मकछल्लो को बाइक पर घुमा रहा था। तब मुझे समझ आया कि वह 4 बजे ही क्यों मुझे पेपर और स्टेशनी खरीदने के लिए पेपर मार्केट भेजता था और मालिक को आराम करने की सलाह देता था। कितना भोला था न मैं!

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