...जैसा कि, मैं पहले लिख चुका, जब मैं दिल्ली कमाने आया तो चिल्ला गाँव मेरा पहला ठिकाना बना। इस गाँव का कीचड़ देखकर ऐसा लगता था जैसे कि बांसा गांव, जिला हरदोई में आ गया हूँ। क्योंकि कीचड़ के मामले में बांसा पहले और कुरसठ दूसरे नाम पर था। हालांकि कुरसठ आज साफ़ सफाई और सड़क के मामले में अव्वल है, लेकिन बांसा में अभी और भी सुधार की गुंजाइश है...तो चिल्ला गाँव की गंदगी देखकर मन होता था कि वापस मेरठ लौट जाऊँ...
मेरा ऑफिस समाचार अपार्टमेंट के पास शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में फर्स्ट फ्लोर पर था। घर से ऑफिस जाते समय मैं हमेशा पार्क वाली राह लेता था, जहाँ उस रिहाइशी कॉलोनी में रहने वाले पत्रकार, अभिनेता आदि पसीना बहाते नज़र आते। हाफ पैंट और टी-शर्ट में पालतू कुत्ते के साथ दौड़ लगाते लोगों को देखता तो बड़ा कौतूहल होता। तब फिजिकल फिटनेस के बारे में इतना ज्ञान न था। कभी कभी जवान लडकियां बिना दुपट्टे के जब दौड़ लगाती दिखतीं तो शर्म के मारे बुरा हाल हो जाता लेकिन अगले दिन उन्हें देखने की उत्सुकता जाग्रत हो जाती। हालांकि पैसे वाले लोग उस दूरी को तय करने के लिए रिक्शा करते थे बावजूद मैं शॉर्टकट लेकर आफिस जाता। समय का पाबंद होने की वजह से मैं आफिस वाली जगह पहले ही पहुँच जाता और वहाँ आसपास की दुकान पर काम करते हुए लड़कों, एटीएम में ड्यूटी करते हुए गार्ड आदि को देखता, यकीन मानिए उनके कार्य में बड़ी ईमानदारी दिखती। किराने की दुकान में काम करने वाले गाँव से आए हुए लड़के जीतोड़ मेहनत करते। कोई झाड़ू लगाता, कोई सामान की सफाई करता, काम की लगन या कहें कि मालिक का डर वे हमेशा काम में तल्लीन दिखते। एटीएम के गार्ड मुस्तैदी से दरवाजे पर खड़े रहते, जैसे ही कोई पैसे निकालने आता वे उसे सलूट मारते और चेहरे पर मुस्कराहट की चाशनी बिखेर देते। एटीएम मशीन में घुसने वाला उसे इग्नोर करता हुआ अंदर जाता और ढेर सारे नए नए नोट से साथ बाहर आता। तब एटीएम में नए नोट ही लगाए जाते थे। मेरे पास एटीएम न होने का मलाल दिखाई पड़ता।
इतना सब देखने के बावजूद भी समय से पहले ही आफिस पहुंच जाता। काम से फुर्सत न मिलती। हिंदी टाइपिंग, आर्टिकल, धारावाहिक, फ़िल्म की स्क्रिप्ट, किताबें, लेटर, अखबार की कंपोज़िंग, विज्ञापनों की डिज़ाइन, कवर पेज़ की डिजाइन आदि का ढेर लगा रहता। अंग्रेजी में हाथ कमजोर होने के कारण भी अंग्रेजी में अखबार निकालने वाले गुप्ता जी मेरा खूब सर खाते। अख़बार में आर्टिकल छपवाने वाले लोग आते, कोई स्कैनिंग करवाता, कोई विदेश में अपने लड़के को मेल लिखवाता। आफिस में कभी कभी जवान लड़के लड़कियां आकर सर्फिंग करते और याहू चैट में चूमाचाटी वाले मैसेज भेजते। पूरे दिन काम रहता और सांस लेने की फुर्सत न मिलती। जब हमारे दादा-दादी की उम्र के बुजुर्ग को फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते सुनता दाँतों तले उंगली दबा लेता। ये इलाका काफी संपन्न और पढ़े लिखे लोगों का था।
शाम को जब मैं आफिस से निकलता मार्किट में रहीस लड़के लड़कियां कोक, पेप्सी बर्गर आदि खा पी रहे होते। वे विदेश की तरह कमर में हाथ डाले या एक दूसरे का हाथ पकड़कर मार्किट के चबूतरे पर बैठे रहते। कभी कभी अंधेरे का फायदा उठाकर कुछ लोगों को चूमाचाटी करते हुए जब देखता बहुत अजीब लगता। दवा की दुकान में लोगों की भीड़भाड़ देखकर लगता जैसे यहाँ के लोग बहुत बीमार हैं...
कमरे पर जाने के लिए कभी कभी कीचड़ से बचने के लिए अलग अलग रास्ते चुनता लेकिन निराशा हाथ लगती। जैसे ही गांव में घुसता लगता दिल्ली में नहीं बल्कि गांव से भी बद्तर जगह पर रहने आ गया। चिल्ला छोड़े बरसों हो गए लेकिन वह गांव आज भी जेहन में बसा हुआ है।
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