रविवार की एक घटना
बात उन दिनों की है जब मैं 8वीं जमात में पढ़ता था। यह सन 1992 और 6 दिसम्बर की एक छोटी सी घटना है। मेरा विद्यालय लखनऊ शहर के बीचोबीच नक्खास में स्थित था। मुख्य सड़क आलमनगर रेलवे स्टेशन जाती थी। विद्यालय के ठीक सामने यादव डेरी थी, जहाँ आए दिन झगड़ा-झाँसा होता रहता था, झगड़ा दूध में पानी को मिलाकर और झाँसा डेयरी वाला हम बच्चों को देता था, मेरा विद्यालय आवासीय विद्यालय था और हमारे लिए दूध उसी डेयरी से आता था। दूध में आधे से अधिक पानी की मात्रा पहले ही होती थी जबकि, आधा पानी स्कूल के कर्मचारी बाद में मिला देते थे। दूध का दूध और पानी का पानी मुहावरा वहीं से याद हुआ।
यह वह दौर था जब टीवी का दौर नहीं था। हमारे विद्यालय में केवल दो टीवी थे- एक रंगीन और एक श्वेत श्याम। हॉस्टल वार्डन के यहाँ श्वेत श्याम और प्रिंसिपल साहेब के पास रंगीन टीवी था। हमारे लिए टीवी देखने का एक निर्धारित समय तय था। हम उस समय चिढ़ जाते जब किसी कार्यक्रम के बीच में समाचार आ जाते। तब हमें समाचार का उतना महत्व ज्ञात नहीं था। हाँ, उन दिनों खबरों के लिए अखबार पढ़ना जरूरी था, प्रतिदिन अखबार से एक बुरी और एक अच्छी ख़बर को हिंदी के अध्यापक को पढ़कर सुनाना एक नियम था। मुझे अखबार पढ़ने की लत वहीं से लगी थी। हमारे आवासीय विद्यालय में दो अखबार आते थे एक हिंदी का जिसे कर्मचारी, अध्यापक और बच्चे पढ़ते, दूसरा अंगरेजी का जिसे प्रिंसिपल का बेटा बब्बू पढ़ता था।
भूमिका न बनाते हुए सीधे सीधे मुद्दे पर आता हूँ, अक्सर लोग तारीख़ याद रखते हैं लेकिन दिन नहीं और बाद में तारीख़ को दिन के नाम से उच्चारित करते हैं। लेकिन मेरे लिए वह दिन महत्वपूर्ण था, तारीखें इतिहास में लिख ही ली जाती हैं, लेकिन दिन गुमनाम हो जाते हैं। मेरी घटना दिन से जुड़ी हुई है, इसलिए मुझे याद है उस दिन रविवार था। आवासीय विद्यालय होने के कारण हमारे लिए रविवार भी अन्य दिनों की ही तरह था, प्रातः 4 बजे की घंटी के बाद सुबह की प्रार्थना होती थी, "इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमजोर हो ना" फ़िर पढ़ने के लिए बैठना पड़ता था, नियमित सुबह पढ़ाई करना नियम था जिसे बच्चे बखूबी निभाते थे. छः दिसंबर से पहले तक हम बच्चों को मंदिर मस्जिद के मुद्दे के बारे में कुछ भी पता नहीं था। रविवार को कपड़े धोना होता था, हमारे विद्यालय में एक लंबा-चौड़ा दलान था जहाँ काफी मात्रा में नल लगे थे, पानी सुबह 5 बजे से लेकर 9 बजे तक आता था इसलिए कपड़े धोने की होड़ लग जाती, हमें अपनी सादगीपूर्ण ड्रेस से बेहद लगाव था। सफ़ेद शर्ट और सफ़ेद फूल पैंट। साफ़, सफ़ेद कपड़े हमारे विद्यालय की एक पहचान थी, हमारे पड़ोसी हमें उन कपड़ों से पहचानते थे, रंगीन कपड़े न के बराबर पहनते थे, बाहर जाने की सख़्त मनाही होने के बावजूद इसलिए हम जब कभी बाहर जाते भी हमें पहचान लिया जाता और कोई न कोई शिकायत कर देता था।
रविवार को अक्सर हम नक्खास का बाजार देखने निकल जाते, खरीदना कुछ नहीं, केवल मोल भाव करना, दूर से चीजों को देखने भर से मन को अच्छा लगता था। कभे कभी हम दोस्तों के साथ उनको सामान खरीदवाने जाते थे।
रविवार से पहले की कोई भीबघटना की जानकारी हमें नहीं थी। हम बाजार जैसे ही पहुँचे, भोंपू की आवाज़ आने लगी, किसी ने जोर से चिल्लाया अयोध्या में कार सेवक मस्जिद तोड़ रहे हैं, शायद उन्हें फोन से यह ख़बर आई, पुलिश की गाड़ियां सायरन बजाती हुई इधर से उधर दौड़ने लगीं लेकिन बाजार बंद करने की कोई मुनादी नहीं की गई। इससे पहले मैंने मस्जिद तोड़ने की कोई खबर नहीं सुनी थी। हमारे विद्यालय में हिन्दू मुस्लिम और अन्य धर्मों के बच्चे पढ़ते थे, हमें मंदिर और मस्जिद से कोई खास लगाव नहीं था। हम पढ़ाई और मनोरंजन पर चर्चा किया करते थे। हम एक साथ बैठकर खाना खाते, हमने अपने विद्यालय में कभी भी जातिगत, छुआछूत आदि की बातें नहीं सुनी थी।
बाज़ार में कोई चिल्ला रहा था 'देशभर से लाखों की संख्या में पहुंचे कारसेवक मस्जिद तोड़ रहें हैं।' बाजार बंद कर दो कर्फ़्यू लगने वाला है। कर्फ़्यू शब्द पहली बार हमने सुना था। मेरे साथ बाजार में मेरा सहपाठी हबीब था। हबीब उम्र में मुझसे कोई 2 साल बड़ा था, उम्र में बड़ा होने की वजह से उसे मुझसे ज्यादा तजुर्बा था। हबीब ने कहा जल्दी करो हमें कर्फ़्यू लगने से पहले विद्यालय पहुँचना है। अफरा तफ़री मच गई थी। आनन फानन में दुकानें बंद होने लगीं। पीछे से किसी दुकानदार ने आवाज लगाकर कहा इन बच्चों को मैं जानता हूँ ये उस विद्यालय से कोई जाओ इनको इनके स्कूल छोड़कर आ जाओ। फौरन कोई हमारे साथ साथ चलने लगा। हम थोड़ी देर में विद्यालय में पहुँच गए। कर्फ़्यू लग गया था।
हमारे विद्यालय के आसपास मुस्लिम रिहायशी कॉलोनी थी। हम हमारे पड़ोसियों की पतंगबाजी के दौरान खिंचाई करते थे। बब्बू भइया का पड़ोस में कोई चक्कर चलता था वो इशारेबाजी करते थे। हमें इशारेबाजी देखने में मजा आता था। कर्फ़्यू लगने के बाद उसदिन सब अपने अपने घरों में कैद हो गए। हम अपने अपने कमरों में बंद हो गए। अफ़वाह ये थी कि हमारे विद्यालय पर पत्थर बाजी हो सकती है, गोलियां चल सकती हैं इसलिए सबको अपने अपने कमरों में रहना है कमरे बाहर जब भी कोई आएगा विद्यालय का चपरासी उनके साथ होगा। हमें डर लग रहा था। लेकिन कोई भी पत्थर बाजी और गोली की कोई भी आवाज नहीं आई। केवल पुलिश की गाड़ियां इधर से उधर सायरन बजा रहीं थीं। कोई अप्रिय घटना नहीं घटी, हालांकि हम ऐसी घटना का इंतजार कर रहे थे। हमारे मन में कौतूहल था ऐसा कुछ देखने के लिए हम बेताब थे। हमारा रशोइया शाम को आकार खाना बनाता था उस दिन वह नहीं आया। हमारा किचन बाहर खुले मैदान की दीवाल से सटकर था। दीवाल की दूसरी तरफ घनी जनसंख्या वाली मुस्लिम बाहुल्य कॉलोनी थी। डर की वजह से कोई भी खाना बनाने नहीं गया। हमारे पड़ोसी अपने घरों में कैद थे, उनके घरों से हमारे किचन और खाना खाने का दलान साफ दिखाई देता था। हम लाइन में बैठकर खाना खाते और खाना खाने से पहले बहुत तेज आवाज में एक श्लोक बोला जाता था, फिर हम बोलते 'गोविंद जी आइए भोग लगाइए'। उस दिन वे उस आवाज से महरूम थे।
अगले दिन हमें खाने से ज्यादा अखबार की चिंता थी, अखबार नहीं आया, हम टीवी भी नहीं देख पा रहे थे क्योंकि टीवी देखने के लिए हमें छत पर जाना पड़ता जहां प्रधानाचार्य के घर में रखी टीवी हम बाहर से देखते थे। हमारे पड़ोसी नेक थे। लखनऊ से बहुत अप्रिय घटनाएं घटित हुईं लेकिन हमारे पड़ोस में कोई भी बुरी खबर नहीं आई।
शेष अगली कड़ी में....
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