नहीं समझ कुछ आता है,
अपना लिखा गीत मुझको तो
बिलकुल ही ना भाता है.
कभी-कभी तो जगकर रात
लिखता और मिटाता गीत
लिखा हुआ पढ़ता कई बार
नहीं समझ में आता गीत
कई बार लिखते-लिखते
कुछ झुंझलाहट सी होती
और कभी जाने-अनजाने
कविता पलक भिगोती
कितने ही मौके आये जब-
लगता लिखना है बेकार,
कितने ही मौके आये जब-
लगता बेड़ा गर्क है यार
खुद से पूछा कितनी बार,
क्या होगा जो लिख डाला?
लिखते हो तो अच्छा लिखते
ये क्या है गड़बड़ झाला?
जब पढ़ता औरों के गीत
तब लगता मैं हूँ नालायक
मेरी कविता अर्थ-अनर्थ,
उसकी कविता ही है लायक
इसीलिये अब नहीं लिख रहा,
मन में ही लिख लेता हूँ.
'नज़र-नज़र का फेर' समझकर
खुद निंदा कर लेता हूँ. Poems and Prayers for the Very Young (Pictureback(R))
2 comments:
bahuit hi badhiya
बहुत अच्छा लिखते हो, पहली बार आपके ब्लोग पर आया हुं,आगे भी आता रहुंगा !
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