पतझड़ बीत गया है लेकिन, बड़ी उदासी छायी है।
कोयल ने भी राग न छेड़ा, ख़ामोशी घिर आई है।
लगते हैं वीराने जंगल, नदी बिना जल धारा है।
चरागाह सूने दिखते हैं, लगता गया उजाड़ा है।
दूर-दूर तक पथिक न कोई, कहीं दिखाई देता अब।
पुरवा-पछुवा सब बेज़ान, ख़बर न कोई लेता अब।
बहुत हो गया इंतज़ार अब, ढलने वाली बेला है।
जैसे प्रियसी का जीवन, प्रिय के बिना अकेला है।
उसी रूप में आ जाओ अब कवि ने तुम्हें पुकारा है।
नीरसता को त्याग के देखो, जीवन कितना प्यारा है।
#बसंत #शिशु
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