सन 1997-98 की बात है तब पुलिस थाना ठीक बस अड्डे के पास हुआ करता था। कस्बा पुराना है। लेकिन राजनीतिक उपेक्षा की वजह से उतना विकास नहीं हुआ जितना उस पर उसका हक़ है। वहां से रेलवे स्टेशन करीब 1 किलोमीटर के फासले पर है। स्टेशन और थाना दोनों में एक समानता थी- जमीन। दोनों के पास मतलब से ज्यादा जमीन थी, लेकिन, वह सरकारी उदासीनता की वजह से वीरान पड़ी थी। इसी वीराने पर गाँजा पैर पसारे था। असल में कुछ जमीन छोड़कर बाकी पर गाँजे का निवास था या ये कहें कि गाँजा ही दोनों जगहों का वारिस था।
कस्बे के आसपास छोटे गांवों का जमावड़ा था, ज्यादातर गावों के नाम के आगे 'पुरवा' लगा था, जैसे गयादीन पुरवा, नंदन पुरवा। जिसे बड़े गांव वाले पुरई-पाले कहकर उपहास उड़ाते थे। ख़ैर गांव से कस्बे की बाजार में खरीदारी करने आते लोग जाते समय स्टेशन के पास जरूर ठिठकते, साइकिल पेड़ के सहारे टिकाते और खाली थैले में गाँजा भरकर ले जाते। बाज़ार आते समय इसकी प्लॉनिंग पहले ही हो जाती। एक थैला केवल गाँजा के लिए होता था। कोई रोक टोक नहीं, जितना चाहो जैसे चाहो खोंट लो। गाँजे की मुस्कराहट उस समय देखते ही बनती। हालांकि ट्रेन से उतरने वालों की गाँजे पर नज़र न पड़ती। गाँजा मुसाफिरों से अपने को उपेक्षित समझता। वो कहते हैं कि हीरे की परख जौहरी को होती है इसलिये पैदल-राहगीरों, साइकिल, टांगे, बैलगाड़ी वालों को इसकी परख थी। उस समय तक मोटर साइकिल का उतना चलन नहीं था। कोई कोई ही मोटरसाइकिल से चलता था, लेकिन वो भी उसका रस लिए बिना नहीं मानता।
अब थाने की तरफ चलते हैं। उस समय गाँजा रखना, पीना अपराध नहीं था, लेकिन पुलिश की नज़र में उगाना जरूर अपराध था, इसलिए लोग अपनी निजी जमीन पर उसे नहीं बोते थे। उन दिनों सार्वजनिक जमीन पर कब्जा करने का दौर नहीं था। लोग उसका उपयोग जरूर करते लेकिन कब्जा नहीं जमाते। इसलिए सार्वजनिक जमीन गाँजा उगाने के लिए उपयोग में लाई जाती थी। लोग कहते थे थाने के गाँजे की अलग ही बात है। जिसने एक बार उस गाँजे की चिलम लगा ली उसके लिए पूरा दिन गर्व की बात होती थी। उससे बढ़कर भोले का प्रसाद कोई और हो ही नही सकता। लेकिन वहाँ से गाँजा तोड़कर कैसे लाएं यह बिल्ली के गले में घण्टी बांधने के समान था। सयाने लोगों का काम थाने का चौकीदार कर देता था, लेकिन गरीब और कुम्हार, चमार, पासी, धोबी धानुक आदि जातियों को चौकीदार भाव नहीं देता था, हालांकि वह भी उनमें से एक था। कुछ पियक्कड़ थाने का गाँजा पीने की खातिर छोटे मोटे अपराध तक कर डालते थे, ऐसा कहा जाता था, इस बात में कितनी सच्चाई है कहना मुश्किल है।
जबसे गाँजा लाना ले जाना अपराध की श्रेणी में आया है तबसे सार्वजनिक जगहों का गाँजा सूखकर काँटा हो गया है। कई सालों बाद स्टेशन जाना हुआ देखा कि वहाँ का गाँजा अपनी अंतिम सांस गिन रहा है। थाने में गाँजा तो हरगिज होगा ही नहीं क्योंकि अब पुलिस किसी बेगुनाह को पकड़ते ही सबसे पहले गाँजा और तमंचा दिखाकर ही जेल भेजती है। वहां का सारा गाँजा अब जेल में बंद है।
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