Wednesday, October 15, 2008

कौन जाने कल को इसी बहाने लिखने भी लगूं!

आज मैं फिर से लिखने बैठ गया। अभी लिखना शुरू ही किया था कि अचानक एक बात याद आ गयी। मैंने उसे उस बात को कहीं पर पढ़ा था। ठीक से याद नहीं कहां लेकिन यह जरूर कह सकता हूं कि शायद वह रसियन किताब थी।

लिखा कुछ इस तरह था-
इस जीवन में मरना तो कुछ कठिन नहीं,
किन्तु बनाना इस जीवन को इससे कठिन नहीं।

मैंने इसे इसे ऐसे कहा-
नया नहीं कुछ इस जीवन में मरना
पर जीना भी इससे नया नहीं।

यह मैं इसलिए नहीं लिखना चाह रहा था कि इसमें मरना लिखा है। पर बाद में सोचा कि जो सही है उसे लिखा तो जा ही सकता है। बात यह है कि सत्य को लिखे बिना रहा नहीं जाता। हां यह बात अलग है कि सत्य बोलना उतना आसान नहीं। लेकिन क्या लिखना कठिन है। इसमें लोगों की राय होगी नहीं। शायद नहीं।

जैसे कि मैंने ऊपर लिखा कि मैं लिखने बैठ गया। इससे तो ऐसा लगता है कई सालों से लिख रहा हूँ। लेकिन ऐसा नहीं, मैंने अभी-अभी लिखना शुरू किया है। मैंने अभी-अभी एक किताब की समीक्षा पढ़ी थी उसमें लिखा था कि लिखने के लिए दाढ़ी बढ़ाना जरूरी है सो आजकल मैं भी बढ़ाने लगा। सोचा शायद इससे मेरे लेखन में कुछ बदलाव आये। फिर सोचा यह तो लेखक लोग बढ़ाते हैं और मैं कोई लेखक तो हूँ नहीं।

खैर जब लिखना शुरू कर ही दिया है तो अब रूकना कैसा? जो मन में आयेगा लिखूंगा। ऐसा मैने इसलिए लिखा कि कोई मेहनताने के लिए तो लिख नहीं रहा मतलब किसी अखबार या मीडिया के लिए। तो जो अखबार वाले चाहेंगे वो लिखूंगा अरे मैं तो अपने लिखने की भूख को शांत करने के लिए लिख रहा हूं। तो लिखूंगा। कहा भी गया है कि भूख मिटाने के लिए आदमी क्या-क्या नहीं करता, ठीक है। जीं हां इसमें कोई तर्क नहीं दे सकता। अब यह बात अलग है कि कुछ लोग तर्क औरह कुतर्क में माहिर होते हैं। उन्हें तो बस मसाला कहं या मामला कहंे, चाहिए और वो आ जाते हैं तर्क करने।

लिख मैं इसलिए भी रहा हूं कि कौन जाने कल शायद इसी बहाने लिख लगूं।

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