नज़र-नज़र का फ़ेर 'शिशु'-
होती है हैरानी कुछ।
भरी जवानी में करता हूँ,
अब ऐसी नादानी कुछ।।
फूहड़ता पर बहसें करता,
अपने गाँव की भाषा में।
क्या फ़िर से मैं वहीं बसूँगा?
रहता इस जिज्ञासा में।।
दिवास्वप्न यदि देख रहा हूँ,
क्या इसमें है हानि कुछ!
भरी जवानी में करता हूँ,
अब ऐसी नादानी कुछ।।
ऊब गया शहरी जीवन से,
चारों ओर उदासी है।
अनजाने लोगों की भीड़,
जीवन कितना बासी है।।
बोल रहा हूँ ऐसी बोली,
जो लगती अनजानी कुछ।
भरी जवानी में करता हूँ,
अब ऐसी नादानी कुछ।।
बोली-भाषा, दाना-पानी,
जीना मरना धंधा है।
पानी और हवा की क्या!
पर्यावरण ही गंदा है।
इससे अच्छा तालाबों का
लगता अच्छा पानी कुछ।
भरी जवानी में करता हूँ,
अब ऐसी नादानी कुछ।।
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