नज़र नज़र का फ़ेर समझिए,
होती है हैरानी कुछ।
भरी जवानी में करता हूँ,
ऐसी अब नादानी कुछ।।
फूहड़ता पर बहसें करता,
अपने गाँव की भाषा में।
फ़िर से वहीं बसूँगा जाकर,
जीवन है इस आशा में।।
दिवास्वप्न यदि देख रहा हूँ,
क्या इसमें है हानि कुछ।
भरी जवानी में करता हूँ,
ऐसी अब नादानी कुछ।।
ऊब गया शहरी जीवन से,
चारों ओर उदासी है।
अनजाने लोगों की भीड़,
जीवन कितना बासी है।।
बोल रहा हूँ ऐसी बोली,
जो लगती बेगानी कुछ।
भरी जवानी में करता हूँ,
ऐसी अब नादानी कुछ।।
झूठ नहीं ये सत्य कह रहा,
सारा सब कुछ गंदा है।
बोली भाषा, दाना-पानी,
सारा सब कुछ धंधा है।।
तलब लगी तालाबों की,
अब पीना गंदा पानी कुछ।
भरी जवानी में करता हूँ,
ऐसी अब नादानी कुछ।।
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