आज सुबह दिव्य निपटान के समय उन्नाव जिले की घटना का चलचित्र चलने लगा। यह जिला हमारा पड़ोसी जिला है इसलिए न तो मैं पक्ष में लिखूँगा और न ही विपक्ष में, क्योंकि मेरे माँ बाप वहीं रहते हैं और परिवारदार आदमी भी हूँ। किसी की कोई बुराई नहीं लेना चाहता, क्योंकि विधायक जी के जितने पक्ष में लोग हैं उससे ज़्यादा विपक्ष में। ये बनी खेल रही पार्टियां भी उनके समर्थन में रही हैं, सपा, बसपा, कांग्रेस हर पार्टी में उन्होंने विधायकी के मजे लिए हैं इसलिए जब राजनीतिक दल उनकी आलोचना करते हैं तब हंसी आती है।
मीडिया में काम करने वाले वहाँ के छुटभैये पत्रकार उनकी छवि को चमकाने में कसर नहीं छोड़ते थे। अब उनका विरोध कर रहे हैं। लोग दबे मुंह बोल रहे हैं जो पत्रकार उनके विरोध में हैं वह सब बाहरी हैं। उन्नाव का पत्रकार उनके बारे में लिखकर देख ले, लिखने से पहले दस बार सोचेगा।
चलो एक बार को मान लेते हैं ये दुर्घटना ही थी। तो क्या यदि पूर्व की घटनाएं नहीं होतीं तो इस प्रकार की घटना होती। उन्नाव के कुछ लोगों से बात हुई लोग बोलते हैं लड़की के परिवार ने उनकी छवि खराब की है नहीं तो बहुत भोले भाले व्यक्ति रहे हैं। गरीबों के मसीहा। बहन बेटियों की शादी का खर्च उठाने वाले। अपन पत्रकार तो हैं नहीं जो इन लफड़ों में पड़ें और खोजबीन करें। अब सोचता हूँ पत्रकारिता कितना कठिन काम है यदि ईमानदारी से की जाए, ठीक वैसे ही जैसे पुलिस की नौकरी।
अब न्यायालय का कार्य कठिन हो गया है। सीबीआई तो ख़ैर। इन पर टिप्पड़ी करके उनका जवाबदेय बनने से डरता हूँ। हाँ न्याय निष्पक्ष होना चाहिए यदि विधायक दोषी हैं तो उन्हें सजा मिले और यदि विधायक की छवि को खराब किया गया तो उन्हें भी न्याय के कठघरे में खड़ा होना ही पड़ेगा। न्याय को भावनाओं से ऊपर उठकर देखना पड़ेगा। न्यायाधीश को डर के आगे घुटने टेकने से अच्छा है त्यागपत्र दे देना चाहिए। या फिर उन्हें ऐसी ख़तरनाक पद पर जाने से खुद को पहले ही रोकना चाहिए। सरकारी नौकरी का मोह छोड़कर प्राइवेट जॉब या कोई बिजनेस कर लेना चाहिए। आजकल सरकारें बहुत से बिजनेस सजेस्ट कर रही हैं। डर के लिए हम प्राइवेट वाले ठीक हैं जिन्हें रोज ही डर रहता है नौकरी रहेगी या चली जाएगी।
बिना कमोड वाली सीट पर बैठकर इतना ही सोचा जा सकता है। और ऐसा ही लिख सकता था। न्याय की उम्मीद है, उम्मीद पर दुनियां कायम है।
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