Thursday, August 1, 2019

बम्बा पर वाली मस्जिद।


बात उन दिनों की है तब हमारे गाँव में कांवड़ नहीं निकलती थी। और मंदिर भी कम ही थे। तब बम्बा पर एक छोटी सी मस्जिद थी जहाँ ईद की नमाज पढ़ी जाती थी। कभी कभी लोग जुमे की नमाज़ भी पढ़ने जाते थे। कोई भोंपू नहीं शांति पूर्वक। लोग मजाक मजाक में कहते देखो कैसी उठक बैठक लगा रहे हैं। अटवा और कुरसठ गाँव के लोग वहां नमाज अता करते थे।

ईद के समय तो कसम से बड़ी रौनक होती थी वहाँ। अम्मा कहती थीं देखो आज इनका त्यौहार है। जब हमारे घर के सामने से छोटे छोटे बच्चे रंग बिरंगी गोल टोपी लगकर निकलते थे तब रौनक देखते ही बनती थी। एक बार मेरा छोटा भाई टोपी की जिद कर बैठा, उधर से दिलदार चाचा जा रहे थे उन्होंने एक टोपी उसके सिर पर रखकर हाथ पकड़कर बम्बा पर ले जाने लगे। वो उनका हाथ छुड़ाकर भाग गया लेकिन टोपी दे नहीं रहा था। बड़ी मुश्किल से उन्हें उनकी टोपी मिली। दद्दा ने मारते मारते छोड़ा तब जाकर भाई ने टोपी दी थी।

बकरीद में जब लोग बकरा काटने ले जाते तब अम्मा दरवाजा बंद कर देती और दरवाजे की झिर्री से बकरे को देखकर कहती बेचारा। उन दिनों कल्लू कहार बाबा का एक बकरा बहुत शरारती था। अम्मा कुछ भी अनाज बाहर सुखातीं वह मुंह मारकर चला ही जाता। बड़ा कोसती, 'तुझे कसाई ले जाए, मुआ कहीं का' फिर बकरीद के अगले दिन जब वह नहीं दिखा उन्हें बड़ा खराब लगा। कढ़ाई कर रहीं थी और बार बार बोलती जाती बेचारा। दद्दा ने उन्हें डाँट दिया पहले तो उसे रोज कोसती थीं अब देखो कितनी याद आ रही है। सिलाई का अड्डा रखकर रोने लगीं। एक बार श्रीपाल चच्चा के साथ मैं भी बम्बा पर चला गया। हिन्दू लोग भी वहीं से मीट कटवाकर लाते थे। तब कुम्हारों के परिवार में केवल 2 या 3 घर ही थे जो मीट खाते थे। बाकी परिवार उन्हें हेय दृष्टि से देखता था। वह वो जमाना था जब शाकाहारी का प्रचार नहीं किया जाता था अब की तरह नहीं और अब परिवार में लगभग हर कोई नॉनवेज खाता है केवल कुछ एक छोड़कर अम्मा भी उसमें शामिल हैं।

साल के बारहों महीने बम्बा में पानी भरा रहता था। हम लोग वहां नहाने जाते थे, कपड़े निकालकर कूद जाते। खूब मस्ती करते। हमारे लिए वह संगम से कम न था। फिर मस्जिद के चक्कर लगाते और देखते वहाँ कोई भी भगवान की फ़ोटो नहीं है बड़ी निराशा हाथ लगती। फिर हम मस्जिद का पीछे वाला कूबड़ देखने जाते शायद वहां कुछ दिख जाए और तब कभी कभार कोई बड़ा बूढ़ा देख लेता जमकर खबर लेता। कोई बाउंड्री नहीं कोई रोक टोक नहीं। जबूतरे पर बैठकर मस्ती करते घर तब जाते जब अम्मा और दद्दा या तो खेतों की ओर चले जाते या वे सो रहे होते। बम्बा नहाया है ऐसा पता चलने पर पिटाई होती। एक दो धौल यही पिटाई थी उससे ही कितना डर था। अब सोचता हूँ इतने से क्यों डरता था।

आज तबियत कुछ ख़राब है इसलिए घर पर लेटा हूँ ऑफिस जाना था लेकिन हालत ऐसी है जुखाम के मारे बुरा हाल है नींद आ नहीं रही और अचानक बम्बा और वह मस्जिद ऐसे ही अनायास याद आ गए। लिखकर मन हल्का हो गया है।

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