----------एक गीत----------
मल्लाहों की मक्कारी से नाव भँवर में डूब रही जब,
क्या होगा भविष्य भारत का स्वयं लेखनी पड़ी हो।।टेक।।
पदलिप्सा की मोह निशा में शासन तंत्र हुआ जब अंधा,
लोकतंत्र के मूल्यों की हत्या करना ही हो जब धंधा,
शांत प्रदर्शन सत्याग्रह पर भी जब दमन चक्र हो चलता,
आतंकी दानवता का शिशु जब अपहरण गर्भ में पलता,
हिंसा भ्रष्टाचार दलाली शासन के पर्याय बने जब,
संविधान का दम घुटता जब गिनता अपनी मौत घड़ी हो--
शासन ने ही वोटों के हित हिन्दू-मुस्लिम को भड़काया,
तुष्टिकरण के ही चक्कर में मन्दिर-मस्जिद विष फैलाया,
पंथ सम्प्रदायों के पीछे जाता मानव धर्म ढकेला,
कूटनीति के पाँसों में जब राष्ट्र धर्म बनता सौतेला,
अपनों के ही हाथों से जब अपनों की ही गर्दन कटती,
जब मानव-मूल्यों की हत्या करने की बेअंत कड़ी हो-----
सदनों में आपस में ही जब करते सभी घिनौनी बातें,
और वहाँ जब बात बात पर प्रचलन में हों जूता लातें,
राष्ट्र नायकों का जनहित से हो जाता है जब उच्चाटन,
बिना बनी ही सड़कों का जब मंत्री जी करते उद्घाटन,
मर्यादा जब बनी भिखारिन सरकारी योजना खोखली,
ठौर ठौर जब राजनीति में अपराधों की लगी झड़ी हो-----
राष्ट्र समस्याओं की उलझन पहले जैसी बनी हुयी है,
तालमेल के रंग बाहरी घात भीतरी घनी हुयी है,
जाति धर्म दल प्रान्त भेद की शाल विषैली तनी हुयी है,
राष्ट्र धर्म में सम्प्रदाय की तुच्छ भावना सनी हुयी है,
जब संकुचित स्वार्थ की आँधी नैतिकता के मूल्य ढहा दे,
प्रजातन्त्र की लाश घिनौनी जब कुर्सी के तले गड़ी हो----
झोपड़ियों में सदा मोहर्रम सदनों में जब दीवाली हो,
शाख शाख पर बैठे उल्लू सूख रही जब हर डाली हो,
राजनीति के पण्डे ही जब सदाचार की कब्र बना दें,
मानवता, ईमान,न्याय की लाशें जब उसमें दफ़ना दें,
जनता का जनसेवक पर से 'प्रेमी'जब विश्वास हट गया,
जब शासन की काया रोगी राजनीति की देह सड़ी हो-----
क्या होगा भविष्य भारत का स्वयं लेखनी मौन पड़ी हो,
मल्लाहों की मक्कारी से नाव भँवर में डूब रही जब,
क्या होगा भविष्य भारत का स्वयं लेखनी मौन पड़ी हो।।
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