जब एक गदहिया कुम्हार ने निरुत्तर कर दिया था-
तो इसमे बुरा कहाँ सरकार
पढ़ा जो सोलह दूनी आठ।
जमाता हूँ गदगे पर ठाठ...
शहर में ख़ाक कमाते हो,
गाँव तो खाली आते हो।
बिना मूँछों के मुँहचोट्टा,
नज़र तक जाली आते हो।।
रात में पीकर मैं अद्धा-
खुले में सोता डाल के खाट।
पढ़ा जो सोलह दूनी आठ।
जमाता हूँ गदहे पर ठाठ...
शहर में प्रतिदिन ही बेचैन-
बॉस के सुनते कड़वे बैन।
मोहमाया में पड़कर आप-
न लेते पलभर तक का चैन।।
खरीदा तो क्या है गद्दा-
नींद के लिए चाहिए टाट।
पढ़ा जो सोलह दूनी आठ।
जमाता हूँ गदहे पर ठाठ...
साथ में क्या ले जाएंगें?
कमाएंगे, क्या पाएंगें?
अधिक से अधिक यही होगा-
दाल रोटी ही खाएंगें।
बुरा तुम मानो पर दद्दा-
अंत में उठ जाती है हाट।
तो इसमे बुरा कहाँ सरकार
पढ़ा जो सोलह दूनी आठ।
जमाता हूँ गदहे पर ठाठ।।
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