Friday, October 24, 2008

दीवाली के दीप जलें चहुं ओर रोशनी छा जाये

दीवाली के दीप जलें चहुं ओर रोशनी छा जाये
मन मांगी मुराद सबको पावन अवसर पर मिल जाये

पहले दीवाली कैसी थी इसका कुछ मैं वर्णन कर दूं
जी चाह रहा है इसी तरह मन को अपने हलका कर लूँ?

याद आ गये बचपन के दिन
छुटपन के दिन, खुशियों के दिन

कभी पटाके नहीं जलाये क्येकि मुझे डर लगता था
अभी मिठाई अभी मिलेगी हरपल ऐसा लगता था।

यार दोस्त सब मिलजुल कर हम खेल खेलते सुबहो शाम
करते थे ना कोई काम, करते थे ना कोई काम,

गुल्ली-डंडा खूब खेलते, सांझ सुबह का ख्याल नहीं
अम्मा डंडा लेकर आये, बापू की परवाह नहीं

इस प्रकार दिन कट जाते थे, जब तक खुलते स्कूल नहीं
फिर हो जाती थी तैयारी पढ़ने की क्योंकि दिसम्बर दूर नही।

अब दीवाली कहां रही इस बार दीवाला हो ही गया।
यह देश कहां से कहां गया, सेंसेक्स कहां से कहा गया।

अब खेल को गेम बोलते हैं, उसका ही सारा चक्कर है
जो जीत गया वो जीत गया जो हार गया वो कहां गया?

अब शोर-शराबा है ऐसा,
डर लगता है कैसा-कैसा

कहीं पटाके और अनार में कोई बम ना आ जाये
इस हंसती-खिलती दीवाली में मातम फिर ना छा जाये

प्रभु ऐसा उपाय कर दो,
रोशन जग पूरा कर दो

'शिशु' की यही कामना है,
दूजी नहीं ‘भावना’ है।

प्रभु फिर से तुम आ जाओ
किसी वेश में किसी वेश में,
फर्क न पड़ता किसी देश में

इस जग का उद्धार करो
जीवन नैया पार करो

सुख-शान्ति चहुं ओर बिखेरो
सपने सबके खूब उकेरो

मनोकामना पूरी हो
अधंकार से दूरी हो

और रोशनी छा जाये
चहुँदिश खुशियाँ आ जायें।

2 comments:

श्रीकांत पाराशर said...

Achhi bhavnayen.achhi kavita. Deepavali ke deepakon ka prakash aapke jeevan men hamesha khushiyon ki jagmagahat bhar de.

My CV said...

यद् दिलाया उन बचपन की दिवाली का जो बहूत दिनों से हम भूल गए थे |
बहूत अच्छे कवि शिशुपाल "खिलाड़ी"

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