मेरे घर में आज टीवी नहीं है। किसी भी परिचित को बताता हूँ वो इसे झूठ समझते हैं, रिश्तेदारों को लगता है टीवी खरीद नहीं सकता और दोस्त, भाई भतीजे इसे कंजूसी की हद मानते हैं।
यकीन मानिए, कभी टीवी और वीडियो देखने का इतना चस्का था कि रात रात रात वीसीआर पर फिल्में देखीं। आसपास के गांव बकाया नहीं रखे। आज भी याद है, हमारे पड़ोसी के एक रिश्तेदार जो बांसा गाँव के थे, के घर छिदना था। बातों बातों में पता लगा कि उनके वुस दिन वीडियो भी होगा, फिर क्या था तय दिन पर मैं और मेरा चचेरा भाई पहुंच गए। अंधेरी रात में मेरी नई साइकिल, जो मुझे मेरे मामा ने दी थी को लेकर चल दिए, लूटपाट और चोरी का डर नहीं, जैसे ही मामा भांजा (एक स्थान) के पास पहुँचे जो मूसलाधार बारिश हुई पूछो मत, वहां पहले से ही गहरा नाला था ऊपर से बारिश लौटना मंजूर नहीं, वहां से गांव और बांसा की दूरी लगभग बराबर लेकिन गांव लौटना मंजूर न था, जैसे तैसे हम पहुँच तो गए लेकिन बांसा का कीचड़ उन दिनों मशहूर था। बारिश की वजह से वीडियो को रिश्तेदार की चौपाल में लगाया गया था जहां तिल रखने की जगह नहीं, फ़िल्म लगी थी शहंशाह। आधी फ़िल्म देखी कि जनरेटर जवाब दे गया। वीडियो वाले को लोगों ने मारते मारते छोड़ा, ख़ैर हम रात को ही हताश निराश गाँव आ गए, इससे पहले कि किसी को पता चलता हम सो गए।
गाँव में लोगों के घर महाभारत, रामायण और रात को फ़िल्म देखना दूसरों की तरह मेरा भी शौख था। मेरे गांव में मेरी यादाश्त के अनुसार केहर दादा के यहाँ टीवी सबसे पहले आई थी, पता नहीं लेकिन लोग कहते हैं यह उनको दहेज में मिली थी। और टीवी पर सबसे पहले मैंने सौतन फ़िल्म देखी थी और वीडियो पर नदिया के पार या संतोषी माँ दोनों में से एक, ठीक ठीक याद नहीं। केहर दादा इस मामले में दिलदार थे, टीवी को बाजार में लगा देते थे कम से कम दो सौ लोग जमा होते थे, महिलाएं अलग बैठती थीं और पुरूष अलग। वहीं पड़ोस में चौधरी बाबा का घर था, लोग मूत मूत कर बुरा हाल कर देते थे, वे बाहर ही लेटते थे, खुखराइन्द के मारे बुरा हाल होता था बेचारे बड़े ही सज्जन थे कभी किसी को कुछ नहीं कहा। गाँव में उसके बाद जिनके घर टीवी आई वे सब मास्टर थे, ज्यादातर अच्छे लोग थे सबके लिए दरवाजा खोल देते थे लेकिन मेरी याद में कुछ लोग बहुत खराब थे हमें भगा दिया करते थे, हम हताश निराश होकर उन्हें कोसते इनकी टीवी खराब हो जाए, बैटरी बीच में ही खत्म हो जाए, बंदर एंटीना तोड़ दे आदि आदि और कभी कभी ऐसा हो भी जाता था। तब मन को जो संतोष मिलता बता नहीं सकता।
इसके बाद 8वीं से लखनऊ शहर में पढ़ने चला गया, वहां होस्टल में रहता था। हॉस्टल में टीवी नहीं थी लेकिन होस्टल वार्डन के घर जरूर थी। दुबे जी वार्डन थे शायद बलिया जिला था उनका। शाम को एक घंटे सभी बच्चों को टीवी देखने देते थे। कुछ सयाने बच्चे रात को भी टीवी देख लेते उनकी दीवाल में एक होल कर दिया था, आंख लगाकर देख आते। मैं उनमें नहीं था।
मेरठ में कम्प्यूटर की पढ़ाई के दौरान मकान मालकिन के घर टीवी देखता, सब सो जाते रिमोट मैं ले लेता और रात के 12 बारह बजे तक देखता। सब कहते कितना शौकीन है रात को देर से सोता और सुबह 5 बजे जग जाता, 6 बजे ट्यूशन पढ़ाने जाता फिर कंप्यूटर क्लासेस और फिर 12 बजे लौटता, खाना बनाता, लेकिन खाता टीवी देखते देखते। लोग मुझे टीवी का कीड़ा कहते।
फिर दिल्ली आ गया, यहाँ रूम में दोस्त के पास वीसीआर वाली टीवी थी, आफिस से आकर पहले एक घण्टे टीवी देखता, उसके बाद खाना बनाने की सोचता, मैं आफिस से पहले आ जाता और दोस्त बाद में, जब तक वह आता मैं खाना बना लेता, बर्तन धोने की जिम्मेदारी उसकी होती। इसके बाद हम चार दोस्त रहने लगे, सबने आपस में पैसे मिलाकर टीवी नई खरीद ली दोस्त ने पुरानी टीवी गांव भेज दी,जिसे उनके चचेरे भाई ने औने पौने दाम में बेंच दिया।
सच कहूँ तो टीवी देखने का चस्का कम्प्यूटर पर काम करने के बाद से कम हो गया और शादी के बाद तो इसमें और भी दिलचस्पी कम हो गई। पत्नी को भी टीवी में इंटरेस्ट नहीं था इसलिए आज हमारे घर में टीवी नहीं है। लोग कहते हैं तुम्हारा टाइम कैसे पास होता है उन्हें बताता हूँ बात करने से, हम दोनों नौकरीपेशा वाले थे घर पर आकर टीवी देखते तो बात कब करते, इसलिए टीवी से मोह छोड़ना पड़ा। अब बच्चा भी टीवी की डिमांड नहीं करता, उसे एक घंटे मोबाइल दिया जाता है जहाँ वह अपने मन के प्रोग्राम देखता है, खासकर यूट्यूब पर स्टोरी पड़ता है, कुछ गिने चुने कार्टून देखता है। मुझे आजकल मोबाइल का नशा लगा है, जिसमें सोशल मीडिया का नशा सर चढ़कर बोल रहा है, जिसे धीरे धीरे छोड़ने का मन करता है, अब व्हाट्सऐप कम ही प्रयोग करता हूँ, धीरे धीरे फेसबुक को अलविदा कहूंगा और फिर ट्वीटर को। ब्लॉग लिखना जारी रहेगा।
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